पिछले कुछ समय से भारत में असहमति की आवाजें कुचल देने की मानसिकता मजबूत हुई है. पेरियार छात्र संघ पर प्रतिबंध और ’11 साल सलाखों के पीछे’ पुस्तक पर गुजरात सरकार की पाबंदी ने साबित कर दिया है कि लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा है.freedom

वसीम अकरम त्यागी

‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ लोकतंत्र का सबसे बड़ा अधिकार है। प्रसिद्ध विचारक वॉलटेयर के ने कहा था कि ” हालांकि मैं आपसे असहमत हूं, पर आप अपनी बात कह सके इसके लिए मैं जिंदगी भर संघर्ष करने के लिए तैयार हूं।” यानि असहमति की आवाज को बर्दाशत करने की क्षमता और उसको अधिकार दिलाने के लिए संघर्ष लोकतंत्र का सबसे बड़ा अधिकार है। बशर्ते इस अधिकार का इस्तेमाल असंवैधानिक तरीके से न किया जाए।

 

सहमत या असहमत होना अलग बात है लेकिन जहां आप असहमति की आवाजों को दबा देते हैं या सत्ता के बल पर उन पर प्रतिबंध लगा देते हैं वहां आप लोकतंत्र से भटक कर तानाशाही अख्तियार कर लेते हैं। पिछले दिनों दो एसे मामले सामने आये जिनमें असहमति की आवाजों को कुचल दिया गया।

आईआईटी मद्रास का मामला

पहला मामला है चेन्नई आईआईटी के अबेंडकर पेरियार स्टूडेंट सर्किल समूह का जिसके बारे में मानव संसाधन विकास मंत्रालय से शिकायत की गई थी कि समूह के छात्र जाति के नाम पर छात्रों के बीच वैमनस्य फैला रहा है और प्रधानमंत्री तथा हिन्दुओं के खिलाफ भी घृणा फैलाने की कोशिश की जा रही है। मानव संसाधन मंत्रालय ने तत्काल प्रभाव से इस समूह को प्रतिबंधित कर दिया। मीडिया और सोशल मीडिया में इस खबर के वायरल हो जाने के बाद फिर से इस समूह को मंजूरी दी गई।

11 साल सलाखों के पीछे पुस्तक पर पाबंदी

दूसरा मामला गुजरात के अहमदाबाद का है,जो आतंकवाद के आरोप में फर्जी तरीके से फंसाये गये मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम से जुड़ा है। 2002 में गांधीनगर के अक्षरधाम मंदिर पर हुए आतंकी हमले के आरोप में मुफ्ती अब्दुल कय्यूम को गिरफ्तार किया था उन पर आरोप लगाया था कि इस हमले में मारे गए फिदायीन की जेब से उर्दू में लिखी एक चिट्ठी मिली थी, जो मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम ने लिखी थी। इसी आरोप के चलते अब्दुल क़य्यूम 2003 में गिरफ्तार किए गए थे। पोटा कानून के कड़े प्रावधानों के चलते इस मामले में उन्हें स्थानीय अदालत से फांसी तक की सजा सुनायी गई थी। लेकिन पिछले साल मुफ़्ती अब्दुल क़य्यूम को सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष करार दिया और वे बरी हो गए। जेल से छूटने के बाद मुफ्ती कय्यूम ने अपने ऊपर हुए पुलिसया अत्याचार की दास्तानों को विभिन्न मीडिया कर्मियों से शेयर किया था उन्होंने कहा था कि अहमदाबाद पुलिस ने उन पर दबाव डालकर और उन्हें मार पीटकर उनसे जुर्म क़ुबूल करवाया गया था। उन्होंने अपने दर्द की दास्तान को बयान करने के लिये एक किताब लिखी है, जिसका शीर्षक है ’11 साल सलाखों के पीछे।’ इस किताब में उन्होंने पुलिस के उन अधिकारियों के बारे में लिखा है जिन्होंने उन पर जुर्म क़ुबूल करने के लिए दबाव डाला था।

कि कैसे पहले से कहानी तैयार करके उन्हें इस मामले में गलत फंसाया गया था। महत्वपूर्ण है कि मारे गए फिदायीन की जेब से मिली जिस चिट्ठी को मुफ़्ती साहब ने लिखे होने का आरोप है, उसे लेकर भी कोर्ट में पुलिस की आलोचना हुई थी। जब फिदायीन को दर्जनों गोलियां लगी थीं और पूरे शरीर पर खून था, तो ये कैसे हो गया कि इस चिट्ठी पर खून का एक कतरा तक नहीं था ? इसी से पुलिस की मंशा पर सवाल उठे थे। पुलिस की जेरे हिरासत खुद के ऊपर हुऐ अत्याचार को  मुफ्ती अब्दुल कय्यूम ने किताबी शक्ल दे दी। जिस दिन इस किताब का विमोचन मौलाना अरशद मदनी के हाथों गुजरात के अहमदाबाद में होने वाला था उसी दिन गुजरात प्रशासन ने इस किताब पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगा दिया कि इससे सांप्रदायित तनाव पैदा होगा।

असहमति स्वीकार नहीं

उर्दू और गुजराती में लिखी यह किताब गुजरात में प्रतिबंधित कर दी गई है। किताब में सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ के आरोपी डी.जी वंजारा के जुल्म की दास्तान को भी बयान की गई है। जाहिर जो तथ्य किताब में गुजरात पुलिस का काला चिट्ठा खोलते हैं उनसे संबंधित अधिकारी असहमत तो होंगे ही। सवाल यहीं से पैदा होता है कि क्या असहमति की आवाजों को दबाने का नाम लोकतंत्र, और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है ? क्या यह अघोषित तानाशाही नहीं है ? फिर वॉलटेयर की उस सूक्ती का लोकतंत्र के लिये क्या महत्व रह जाता है जिसमें वे असहमत होने के बावजूद भी सामने वाले की अभिव्यक्त करने के लिये जीवन भर संघर्ष करने को कहते हैं।

सवाल जिसका जवाब नहीं

एक सवाल यह भी है कि क्या प्रशासन या शासन ने किताब को प्रतिबंध करने से पहले, असहमति की आवाज़ को दबाने से पहले उसका अध्ययन किया था ? अगर उस किताब में सांप्रदायिक सामग्री है तो फिर गुजरात के बाहर उस किताब पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाया गया ? क्या सिर्फ प्रशासन को गुजरात के ही सांप्रदायिक तानेबाने की चिंता है ?

सच तो यह है कि उस किताब में काला चिट्ठा है जो वहां के प्रशासन के चेहरे को बेनकाब करता है। वे असहमत हैं इसलिये मुफ्ती कय्यूम की किताब को प्रतिबंधित किया गया। जिस तरह से असहमती की आवाजों को दबाया जा रहा है वह लोकतंत्र के हित में नहीं हैं। और इस तरह बगैर पीड़ित पक्ष की आवाजों को सुनें, बगैर वजह जाने प्रतिबंधित कर देना लोकतांत्रिक मूल्यों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ है।

पांच साल में एक बार चुनाव हो जाने से लोकतंत्र पूरी तरह स्थापित नहीं होता बल्कि लोकतंत्र को अपने व्यवहार में लाना पड़ता है, असहमत होने के बावजूद भी असहमती की आवजों को सुननना पड़ता है। नागरिक सहमती के साथ – साथ अपनी असहमती दर्ज करा सकें इसीलिये अभिवय्कित स्वतंत्रता पर पहरा नहीं लगाया गया। एक तरफ सांप्रदायिक सदभाव बिगड़ने मुफ्ती अब्दुल कय्यूम किताब को प्रतिबंधित किया गया। दूसरी ओर संघ परिवार और उसके अनुषांगिक संगठनों के लोग आये दिन देश की फिजा को खराब करने की कोशिश कर रहे हैं मगर उन पर सरकार की खामोशी क्या यह सरकार का दौगला चरित्र नहीं है ?

 

वसीम अकरम त्यागी, पत्रकार विजन मुस्लिम टूडे

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By Editor