हाल ही में राजधानी पटना के एक महॅंगे व पॉश होटल एक गोलमेज कांफ्रेंस की तर्ज पर ‘राजनीति और मुसलमान’ विषय पर बातचीत का आयोजन किया गया। संदर्भ था 2014 का लोकसभा चुनाव।
अनीश अंकुर, सामाजिक कार्यकर्ता, पटना
बिहार के अलग-अलग सामाजिक संगठनों, सियासी रहनुमाओं, मजहबी संगठनों से जुड़े उलेमा ने दिन भर चले ब्रेनस्टार्मिंग बहस में बिहार के दो करोड़ मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक बदहाली के राजनीतिक आयामों पर खुले रूप से विचार किया। यह महसूस किया गया कि बिहार के मुसलमानों को अपने राजनैतिक वजूद का अहसास पूरे देश को कराने की जरूरत है।
जैसा कि इस बातचीत के आयोजक एवं पूर्व में नीतीशी सरकार में मद्यनिषेध मंत्री रह चुके जमशेद अशरफ ने कहा ‘‘ हमें मुसलमानों को उनकी ताकत का अहसास कराना होगा। एक ऐसे नेतृत्व वर्ग का निमार्ण होना चाहिए जिसके मुंह में जबान हो, जो अपनी बात कह सके और अपने अधिकार ले सके।’’
जब यह बातचीत हो रही थी उस वक्त तक मुजफ्फरनगर का भयावह दंगा हो चुका था, भारतीय जनता पार्टी 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर चुकी थी।
कुछ अहम सवाल
पटना में हुआ गोलमेज कांफेंरस यहां के मुसलमानों की उसी बेचैनी की अभिव्यक्ति है कि आज उनके समक्ष सियासी विकल्प कौन-कौन से हैं?2014 के आगामी लोकसभा चुनावों में किसके साथ जाएं? अपने पुराने विश्वस्त सहयोगी लालू प्रसाद के साथ? या फिर नरेंद्र मोदी को सबसे बड़ी चुनौती देने वाले नीतीश कुमार के साथ? एक यक्ष प्रश्न की तरह यह सवाल बिहार के अकलियतों के सामने है।
रामविलास पासवान क्या करेंगे? कांग्रेस क्या करेगी?लालू या नीतीष में से वह किसकेा वरीयता देगी। वामपंथी दलों किधर होंगे? नीतीश के साथ रहेंगे या स्वतंत्र चुनाव लडंगे?
दलित मुसलमानों में राजनीतिक चेतना
1990 में लालू प्रसाद यादव सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता के नारे के तहत बिहार में सत्तासीन हुए। बिहार के सामाजिक जीवन में लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया चल पड़ी। हिंदूओं की पिछड़ी जातियों का सश्क्तीकरण की प्रक्रिया का प्रारंभ हुआ। लेकिन 1994 में नीतीश कुमार लालू प्रसाद से अलग हुए। इसी साल मुस्लिम सियासत में भी एक छोटी सी तब्दीली आई।
एजाज अली के नेतृत्व में ‘आऑल इंडिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा’ का गठन हुआ। हिंदूओं के भीतर चलने वाली सामाजिक न्याय की धारा ने मुसलमानों के बीच भी अपनी पैठ बनानी शुरू कर दी। आगे चलकर 1998 में अली अनवर की नुामाइंदगी में ‘पसमांदा मुस्लिम महाज’ का गठन हुआ। बिहार की मुस्लिम सियासत में आगे आने वाले दिनों में तब्दीली के लिहाज से ये दोनों बेहद महत्वपूर्ण घटना थी।
इस तब्दीली पर लेकिन लालू प्रसाद ने मुसलमानों के भीतर आ रहे इन परिवर्तनों को ज्यादा तवज्जों ने दी। उनके पास एक ताकतवर सामाजिक समीकरण था जिसे माई के नाम से जाना जाता है. यादव की बिहार की कुल आबादी का वे लगभग 12-13 प्रतिशत मानी जाते रही है। मुसमानों की आबादी बिहार में अब लगभग 16.5 प्रतिषत के करीब है। लालू प्रसाद को सत्ता में बनाए रखने के लिए यह समीकरण काफी था।
इधर अशराफ मुसलमानों की फतवों की राजनीति को अस्वीकार किया जाने लगा। यही कारण है कि पसमांदा आंदोलन के षुरूआती नारों में से एक था ‘वोट हमारा, फतवा तुम्हारा नहीं चलेगा’।
लालू प्रसाद से ये सवाल पूछा जाने लगा कि वे हिंदूओं की पिछड़ी जातियों के सशक्तीकरण की बात तो करते हैं पर मुसनमानों में पिछड़े-दलितों या पसमांदा तबकों के मसाएल क्यों नहीं उठाना चाहते? अपने लिए बिहार में सियासी जगह तलाश रहे नीतीश कुमार को यहां सुनहरा मौका मिला।
2005 के अक्टुबर में हुए विधानसभा चुनावों में पसमांदा आंदोलन ने नीतीश कुमार के पक्ष में अपील जारी किया परिणामरूवरूप नीतीश कुमार की जीत हुई। नीतीश कुमार ने अली अनवर को राज्यसभा का सदस्य बनाकर पसमांदा आंदोलन को सियासी नुमांदगी दी। भाजपा के साथ रहने के बावजूद नीतीश कुमार की पार्टी को मुसलमानों का खासा वोट मिला। 2009 के लोकसभा और 2010 के विधानसभा चुनावों में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन ने बड़ी जीतें हासिल की। बिहार में पसमांदा मुसलमानों को अपनी स्वतंत्र ताकत का अहसास होने लगा। इस आंदोलन के लिए पार्टी से ज्यादा महत्व राजनैतिक प्रतिनिधित्व था।
मौजूदा सियासत का स्वरूप
इन चीजों के मद्देनजर बिहार की मुस्लिम सियासत के संदर्भ में ये स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में क्या मुसलमानों का अलग-अलग हिस्सा अब अपने-अपने ढ़ंग से वोट करेगा ? मुसलमान अब एक ब्लाक ;वोट बैंक की तरह नहीं रह पाएंगे?
इसे ही ध्यान में रखकर 15 सितंबर से लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राजद ने ‘अकलियत बेदारी मुहिम’ की षुरूआत की है। अल्पसंख्यक वोट बैंक पर जद-यू की दावेदारी को रोकने की दिशा में इसे एक महत्वपूर्ण कदम माना जा रहा है। राजद के पांच मुस्लिम नेताओं की अध्यक्षता वाली टोलियां गांव-गांव जाकर नीतीश सरकार की अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों को उजागर करेगी।
बिहार की राजनीति पर मुसलमानों के प्रभाव की बात करें तो यहां के 243 विधानसभा क्षेत्रों में से 60 सीटों के परिणाम मुख्यतः अल्पसंख्यक वोटों से तय होते हैं। किशनगंज, अररिया, भागलपूर सहित उत्तर बिहार के जिले सुपौल, मधेपूरा, सहरसा, दरभंगा मध्य बिहार के गोपालगंज, सीवान, गया ,नालंदा आदि सीटों में उनकी उपस्थिति 18 से 70 प्रतिषत तक मानी जाती है। किषनगंज में मुसलमानों की सर्वाधिक उपस्थिति 78 प्रतिशत है। इसके साथ-साथ 50 सीटों पर अल्पसंख्यक वोट 10-17 प्रतिषत तक हैं जो चुनाव परिणाम केा प्रभावित कर सकते हैं।
लोकसभा के हिसाब से नजर डाली जाए तो बिहार में लोक सभा की 40 सीटों पर सभी पार्टियों को मिलाकर, चार-पांच मुसलमान ही लोक सभा चुनाव में जीतते रहे हैं। अभी संसद में बिहार के मात्र 3 मुस्लिम सांसद हैं। कोई भी पार्टी मुसलमानों को आबादी के अनुसार टिकट नहीं देती। जबकि आबादी के अनुकूल बिहार से सात मुसलमानों को लोक सभा में होना चाहिए। मुस्लिम नेताओं द्वारा कहा ठीक ही कहा जाता है ‘वोट के लिए जियारत, टिकट देने में सियासत’।
वर्तमान विधानसभा में मूसलमानों की देखने से भी उनके राजनैतिक पसंद का पता चल सकता है। जद-यू के 7, राजद के 6, भाजपा के 1, कांग्रेस से 3 एवं लोजपा 2 विधानसभा सदस्य अभी हैं। भाजपा को एक सीट नीतीश कुमार के कारण प्राप्त हो पाया। जाहिर है बिहार में मुसलमान इन्हीं दलों पर अपना भरोसा रखते रहे हैं।
आगामी लोकसभा चुनाव में मुसलमान की पसंद के विषय में वेबसाइट नौकरशाही.डॉट.इन मॉडरेटर इर्शादुल हक के अनुसार ‘‘ जब भी लड़ाई सांप्रादायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के बीच होगी जैसा कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री की उम्मीदवारी और मुजफ्फरनगर के दंगों से स्पष्ट है, मुसलमानों के आपसी अंर्तविरोध- खासकर पसमांदा ओदालन के – लगभग समाप्त हो जाऐंगे’’ ऐसी स्थिति में इर्शाद आगे कहते हैं ‘‘ मुसलमान टैक्टिकल वोटिेंग करेगा यानी जहां जो राजनैतिक समीकरण सांप्रदायिक शक्तियों को हराने की स्थिति में होगा मुसलमान उसे वोट देगा। कोई राज्यस्तरीय ट्रेंड किसी एक पार्टी के प़क्ष में नहीं होगा।’’
बिहार में नीतीश कुमार के साथ रहकर भाजपा ने अपनी ताकत में खासा इजाफा किया है। जिन इलाकों में भाजपा का कोई नामलेवा न था वहा भी उसे पैर पसारने की जगह मिल गयी। जे.पी आंदोलन से जुड़े प्रमुख सामाजिक-राजनैतिक कार्यकर्ता अख्तर हुसैन के अनुसार ‘‘ कल तक वैषाली, समस्तीपूर जैसे इलाके समाजवादी आंदोलन और बेगूसराय वामपंथी आंदोलन के गढ़ माने जाते थे लेकिन अब इन जगहों में भी भाजपा की ष्षक्ति बढ़ रही है। ऐसे में मुसलमान नीतीश की बजाए लालू की ओर तरजीह देंगे’’
नया ट्रेंड
नीतीश कुमार के प्रति अभी देश भर के धर्मनिरपेक्ष जनमत में उत्साह सा नजर आता है। कई राजनैतिक विष्लेषक ये सोचते हैं कि इसका फायदा नीतीश कुमार को मुस्लिम वोटों के रूप में प्राप्त होगा। लेकिन बिहार में अब तक का वोटिंग पैटर्न बताता है कि मुसलमान उसी सियासी ताकत के साथ चुनावों में खड़ा होता है जिसके पीछे बिहार की कोई ताकतवर हिंदू जाति की रही हो। मसलन आजादी के पष्चात 1990 तक ,1977 के एक संक्ष्प्ति मौके को छोड़कर, मुसलमान का बहुसंख्यक कांग्रेस के पीछे था। उसकी प्रमुख वजह सवर्ण षक्तियों का कांग्रेस के पीछे होना था।
1989 के भागलपूर दंगे के बाद मुसलमान ताकतवर यादव जाति के समर्थन वाले लालू प्रसाद के साथ गए और लंबे समय तक उसके साथ रहे। बाद में अल्पसंख्यकों का एक हिस्सा नीतीश के साथ गया तो उस समय भी नीतीष के पीछे शक्तिशाली सवर्ण जाति भूमिहार का समथर्न, भाजपा से एलायंस के कारण, था। लेकिन अब, इस वक्त समय नीतीश कुमार बगैर किसी बड़ी ताकतवर जाति के सहयोग के बगैर 2014 के लोकसभा चुनावों की वैतरणी पार करेंगे। क्या मुसलमान ऐसी स्थिति में उनपर अपना भरोसा कायम रखेंगे? इस समय का सबसे बड़ा सवाल यही है।
अमेरिकी स्कालर जेफरी विटसो जो ,यूनियन कालेज में एंथ्रोपोलाॅजी पढ़ाते हैं, 1990 से बिहार में हर उतार-चढ़ाव के गवाह रहे हैं। उनकी मान्यता है कि ‘‘ भाजपा से अलग होने के बाद नीतीष कुमार के साथ कोई ताकतवर जाति नहीं है। उॅंची जातियों की स्वााभविक पसंद भाजपा है। यादव पूरी तरह अब भी लालू प्रसाद के साथ है। मुसलमानों का भी एक हिस्सा उनके साथ है। बिहार में बगैर ताकतवर जातियों के सहयोग के चुनाव नहीं जीता जा सकता। यह बात आजादी के पहले से चली आ रही है। इस बार अगर ऐसा होता है तो यह इतिहास रचने वाली बात होगी।’’
मोदी फैक्टर
मोदी फैक्टर केा सहरों की परिघटना बताते हुए जेफरी कहते हैं ‘‘ नरेंद्र मोदी फैक्टर सर्वव्यापी नहीं है। जहाॅं तक ग्रामीण इलाके की बात है वहां अब भी लोग लालू और नीतीश कुमार की चर्चा करते हैं। दोनों की तुलनाएं होती हैं। मोदी वहां नहीं हैं। शहरों में मोदी के नाम पर गोलबंदी होती है तो उसके उलट क्या होगा? कांग्रेस के साथ नीतीष रहते हैं या लालू, इस पर भी बहुत कुछ मुसलमानों का रूख निर्भर करेगा ’’
नीतीश फैक्टर
मुसलमान लालू या नीतीश कुमार में से किसे पसंद करेंगे? चर्चित सामाजिक कार्यकर्ता नैय्यर फातमी कहते हैं ‘‘ मुसममानों का 10-20 प्रतिषत खुषहाल जो तबका है, जो मेडिकल, इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट आदि में संभावनाएं तलाश रहा है वो भले नीतीश कुमार को विकास के नाम पर वोट दे दे लेकिन बहुसंख्यक लोग नहीं उनके साथ नहीं जाएंगे।’’ इसकी वजह बताते हुए नैय्यर फातमी बताते हैं ‘‘ नीतीश कुमार ने मुसलमानों केा बिरादरी के नाम पर बांट कर आपसी भाईचारे को तोड़ डाला है। मुस्लिम संस्थाओं, खानकाहों आदि पर से लोगों की आस्था घट गयी है। क्योंकि इनमें से अधिकांष केा- इमारते-ए-षरिया, इदारे-ए-षरिया आदि को – नीतीष कुमार द्वारा खरीद लिया गया है।’’ अंत में नतीजे के तौर पर नैय्यर फातमी का मानना है कि ‘‘ मुसलमानों की पहली पसंद अभी भी लालू ही होंगे।’’
वहीं दूसरी ओर न्यूज एजेंसी आई.ए.एन.एस से जुड़े पत्रकार इमरान खान ने लालू प्रसाद को सेक्यूलरिज्म का पुराना चैंपियन और नीतीष कुमार केा नया सेक्यूलर आईकान बताते हुए कहा ‘‘ लालू प्रसाद ने 1990 में आडवाणी का, रामजन्मभूमि यात्रा के दौरान गिरफ्तार कर जो एक बड़ा काम था लेकिन उसका राजनीतिक लाभ उन्हें बहुत मिल चुका। यदि नीतीष कुमार की 2014 के लोकसभा के चुनाव में हार होती है। तो दुनिया को ये संदेष जाएगा कि हार का मुख्य कारण धर्मनिरपेक्षता को लेकर लिया गया उनका सैद्धाांतिक स्टैंड था और मुसलमान ऐसा कभी नहीं चाहेंगे।’’ लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के तुलना करते हुए इमरान खान ने कहा ‘‘ आगे आने वाले महीनों में बिहार में लालू लोकसभा के चुनावी रेस से ही न कहीं बाहर हो जाएं। वैसे भी यदि 30 सितंबर को चारा घेटाले के मामले में लालू को सजा हो जाती है तो नीतीष कुमार के सेक्यूलर ताकतों का केंद्र बनने कर राह आसान हो जाएगी।’’
बिहार में अभी मुसलमानों के भीतर आगे आने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर काफी उथल-पुथल चल रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है किसी एक पार्टी और गठबंधन के पक्ष में निर्णायक नतीजे की स्थिति अभी नहीं आई है।
ऐसे में बिहार के अल्पसंख्यक किसके होंगे? यह आगामी कुछ महीनों के दरम्यान बनने वाले सियासी समीकरणों पर निर्भर करेगा। लेकिन लालू प्रसाद को चारा घोटाले में सजा सुनाये जाने के बाद निश्चित तौर पर मुसलमानों ने राजनीतिक समीकरण को नये सिरे से सोचने की शुरुआत भी हुई है. लेकिन मुसलमानों के लिए सबसे बड़ी राजनैतिक कसौटी यही होगी कि कौन गठजोड़ ऐसा है जो उसके लिए फायदेमंद होगा? किस राजनैतिक शख्सीयत में यह सलाहियत है कि वो सभी धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक शक्क्तियों को इकट्ठा कर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के मंसूबे को करारी षिकस्त दे सके।
अनीश अंकुर का यह लेख हमने प्रथम पोस्ट से साभार लिया है