एक आईएएस से यह उम्मीद की जाती है कि वह प्रशासनिक कामों में दक्ष हो पर बीते दौर के आईएएस कुमार सिंह ने आदिवासियों के सामाजिक जीवन में ऐसी क्रांति लायी जिसकी मिसाल नहीं मिलती

इस पुस्तक से दुनिया में छा गये कुमार सुरेश सिंह
इस पुस्तक से दुनिया भर में छा गये थे कुमार सुरेश सिंह

निराला

फर्ज कीजिए कुमार सुरेश सिंह झारखंड के इलाके में न आये होते, तो क्या फर्क पड़ जाता? अगर इस कसौटी पर ही कुमार सुरेश सिंह का आकलन करते हैं तो अधिकांश लोगों का स्पष्ट तौर पर जवाब मिलता है- झारखंड का विशाल आदिवासी समाज अब भी नायकत्व की तलाश में भटकता हुआ होता.

प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी ने तो अपनी सबसे चर्चित रचना ‘ अरण्येन अधिकार’ को कुमार सुरेश सिंह को ही समर्पित करते हुए स्पष्ट शब्दों में लिखा भी है कि,‘‘ आज अगर बिरसा मुंडा आदिवासियों के चाहत, स्वतंत्रता, न्याय और अधिकार के नायक के तौर पर सामने हैं तो उसका श्रेय कुमार सुरेश सिंह को जाता है.

प्रसिद्ध फिल्मकार मृणाल सेन तो कुमार सुरेश सिंह को पांच प्रमुख बंगाली सपूतों में रखते हैं. यह अलग बात है कि कुमार बंगाली नहीं थे.

कुमार सुरेश सिंह की उम्र 25 साल की थी जब वे खूंटी जिले में नौजवान आइएएस अधिकारी के तौर पर सेवा देने आये थे. उसी दौरान बीरबंकी नामक गांव में उन्होंने मुंडा आदिवासियों को मुंडारी गीत गाते हुए, उस पर नृत्य करते हुए देखा-सुना. एक नौजवान अधिकारी की लगन ही थी कि कुमार ने फिर मुंडारी भाषा को सीखा तब उन्होंने बिरसा मुंडा नामक एक नायक को सामने लाया.

बौद्धिक जगत और पारंपरिक इतिहास लेखक जगत ने कुमार सुरेश सिंह को और उनके ऐतिहासिक खोज को गंभीरता से नहीं लिया, उपहास का पात्र भी बनाया लेकिन जिद्दी युवा धुन ने बौद्धिक जमात को परे कर खुद को नये काम में लग गया.

लेखक भी चिंतक भी

1967 में पलामू में भीषण अकाल पड़ा था उस वक्त जिले के जिलाधिकारी कोई और नहीं बल्कि कुमार सुरेश सिंह ही थे. पलामू के उस भीषण अकाल को सुकाल में बदलने की जो कवायद कुमार सुरेश सिंह ने की थी, वह आज भी पलामूवासियों की स्मृति में जीवंतता के साथ कैद है. पलामू के अकाल को करीब से देखने-समझने के बाद फिर इस नौजवान आइएएस अधिकारी ने एक किताब लिखी- फेमिन इन इंडिया. उसमें लिखा कि ‘ सामान्य तौर पर अकाल और सुखाड़ मानवजनित होते हैं और भ्रष्टाचार इसे परवान तक पहुंचाता है.’

सबसे बड़ा बौधिक अभ्यास

कुमार सुरेश सिंह एक आइएएस अधिकारी के तौर पर ट्रांसफर-पोस्टिंग के फेरे में इधर से उधर होते रहे और आखिर में इन्हें एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में महानिदेशक बनने का मौका मिला. वहां पहुंचकर कुमार सुरेश सिंह ने जो काम किये, उससे दुनिया भी हतप्रभ रही. सात सालों के अथक परिश्रम, गहन अनुसंधान और व्यापक सर्वेक्षण के बाद 1985 में 45 खंडों में ‘पीपुल्स ऑफ इंडिया’ का जब प्रकाशन हुआ तो पश्चिम जगत की मीडिया ने इसे 20वीं सदी का सबसे बड़ा बौद्धिक अभ्यास कहा. कुमार सुरेश सिंह के नेतृत्व, दिशा-निर्देश और मार्गदर्शन में आजाद भारत में पहली बार समुदायों की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थितियों में हो रहे बदलाव का अध्ययन हो सका. छिन्न-भिन्न होते सामाजिक ढांचे, सांप्रदायिक सौहार्द्र की चरमराहट वाले दौर में जब रोज-ब-रोज कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट की महत्ता को रेखांकित किया जा रहा है तो ऐसे समय में ‘ पीपुल ऑफ इंडिया’ के कुछ पन्नों पर गौर किये जाने की जरूरत है. उसमें दर्ज है कि 4635 समुदायों से मिलकर भारतीय समाज बनता है जिसमें काफी विविधता होते हुए भी 35 कम्युनिटी अब भी ऐसे हैं, जो एक साथ हिंदू और इसलाम धर्म को मानते हैं. 116 ऐसे समुदायों का अस्तित्व है, जो हिंदुत्व और इसाइयत पर एक समान आस्था रखते हैं और 17 समुदाय ऐसे हैं, जो एक साथ हिंदू, इसलाम और सिख धर्म को मानते हैं.

झारखंड जैसे पिछड़े इलाके से लेकर देश के स्तर पर कुमार सुरेश सिंह ने जो काम किया, उसे दुनिया ने नोटिस लिया. संयुक्त राष्ट्र की ओर से उन्हें यूएन अवार्ड फॉर फिल्ड रिसर्च इन जेनेवा दिया.

बस, अफसोसजनक पहलू यह रहा कि 20 मई 2006 को 70 साल की उम्र में इतिहास और मानवविज्ञान के साथ अपनी प्रशासनिक क्षमता के जरिये एक नया आयाम गढ़नेवाला यह नायक दुनिया से विदा हुआ तो कृतघ्न बौद्धिक जगत ने उस तरह से नोटिस नहीं लिया, जिसकी उम्मीद की जानी चाहिए थी.

niralaनिराला तहलका पत्रिका के बिहार के विशेष संवाददाता हैं.भूले बिसरे मुद्दों और विषयों को खोज निकालने में इन्हें महारथ हासिल है. पत्रकारिता के अलावा आंचलिक संस्कृति के विकास के मुखर प्रतिनिधि हैं और भोजपुरी भाषा पर उनके काम को काफी सराहना मिली है.

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