देशपाल सिंह पंवार अपने कॉलम दिल्ली सलतनत में इस बार बता रहे हैं कि मूछें तब आनबान और शान हुआ करती थीं पर बदलते जमाने ने इसकी हैसियत भी बदल के रख दी है

मालिक आमिर की मूछें
मालिक आमिर की मूछें

मूछें तब

0-एक वो जमाना था जब मूंछें आन-बान-शान का प्रतीक हुआ करती थीं। मूंछ पर हाथ डालना इज्जत से जोड़ लिया जाता था। मूंछ ही आदमी की शान-ओ-शौकत का एहसास कराती थी।

मूंछ ही हार-जीत का फैसला करती थी। लोग लड़ाई में अपनी मूंछों के लिए अपनी जान दे दिया करते थे। अगर किसी राजा ने अपनी मूंछें मुंड़वा ली तो हल्ला मच जाता था। समझ लो हार गया। एक बाल का मतलब होता था जबान, लोग अपनी जबान के बदले मूंछ का एक बाल गिरवी रख दिया करते थे। दी गई जबान पूरी नहीं हुई तो अगले दिन मूंछें साफ। उस जमाने में कहा भी जाता था कि मूंछ रखने का अधिकार केवल घर के उस मुखिया को है जो बेहतर ढंग से परिवार चला सकता हो, उस राजा को जो अपनी प्रजा का ख्याल रखता हो, उस महाराजा को, जिसकी छत्रछाया में सारे राज्य तरक्की कर रहे हों।
वैसे भी तब राजा के सामने मूंछ लेकर तो कोई जाता नहीं था। यानी मूंछें ही सर्वोपरि। मूंछों और नाक का उस दौर में सीधा रिश्ता था। मूंछों पर बन आई तो समझो नाक गई। नाक गई तो समझो इज्जत गई। खैर मूंछों का हो या ना हो लेकिन नाक का रूतबा तो आज भी है।

0- तब मूंछें रखने वाले खुद से ज्यादा मूंछों का ख्याल रखते थे। जब नाई से मूंछ सही करानी हो तो नाई के दास्ताने जरूरी। जैसे मूंछें ना हों कोई खजाना हो जिसे छिपाकर रखना बेहद जरूरी। नाई से कुछ गड़बड़ होते ही खैर नहीं। मारपीट से लेकर जुर्माने तक या इससे भी आगे अत्याचार तक नाई को झेलने ही पड़ते थे पर अब?

मूछें अब

0-अब तानाशाही का दौर तो है नहीं। लोकतंत्र है। तरक्कीपसंद जमाना है। इसकी भी कोई बाध्यता नहीं कि मूंछ रखना ही रखना है। जिसकी मर्जी हो रखे और जिसकी मर्जी हो ना रखे। अब तो ये फैशन का पार्ट हो गई हैं। या फिर कहा जा सकता है कि जिसके चेहरे पर मूंछ फबती है तो वो रखता है और जिसके चेहरे पर अच्छी ना लगे तो वो नहीं रखता। भारत की युवा पीढ़ी तो खैर वैसे भी मूंछों से दूर है। कौन रोज-रोज का झंझट मोल ले? लिहाजा सफाचट। सुंदर दिखना होता है। मूंछें रखेंगे तो कहीं ना कहीं इस बात से घबराते हैं कि विपरीत लिंग में आकर्षण ना खो जाए। खैर हमारा कहने का ये आश्य तो कतई नहीं कि जो रखता है वो सही और जो नहीं रखता वो गलत।panwar

बताने के पीछे कारण बस इतना सा है कि कम से कम मूंछें अब आन-बान-शान का प्रतीक तो कतई नहीं। वो केवल मूड की खेती बनकर रह गई हैं। उनके कटने या रखने से कम से कम इज्जत का कोई नाता नहीं। मान मर्यादा, सम्मान सब कुछ गंवाने पर भी आज के दौर में कोई ये नहीं कहता कि फलां-फलां की मूंछ कट गई। अब कट गई तो कट गई। इसमें क्या किया जाए? उसे तो अगले दिन फिर उग आना है। वैसे भी मूंछों का महत्व तब तक था जब तक इंसान का रूतबा था। अब पैसे की दुनिया है। मोह माया का जमाना है लिहाजा पैसे के सामने क्या मूंछ और क्या बे मूंछ।
मूंछ का सवाल

पुराना जमाना कोई खराब तो था नहीं। ये भी नहीं कहा जा सकता कि नया जमाना बेकार है लेकिन ये भी तो दावे से नहीं कहा जा सकता है कि यही स्वर्णिम दौर है। नए जमाने की नई फसल में मूछों का भले ही कोई शगल ना हो, नैतिक मूल्य दांव पर हों, चारों तरफ अराजकता का दौर हो, घूस-घपले-घोटालों के किस्सों से सब सराबोर हो, महंगाई जान ले रही हो तो ऐसे में कम से कम ये तो कहा ही जा सकता है कि विश्वास संकट की आंधी में जुबान की आन, मूंछों की शान और इंसान की बान का गान अब इतना बेसुरा हो चुका है कि इस बारे में कुछ कहना ही बेकार है।

मूछों पे ताव

हां कुछ समय के लिए पुराने जमाने को आधार बनाकर अगर बात की जाए तो कम से कम ये तो कहना ही पड़ेगा कि जिस राज्य में नेता,अफसर और ठेकेदार अमीर व जनता गरीब हो, 2.60 करोड़ आबादी में से 43 फीसदी महागरीब हो, आधी आबादी रोजगार के संकट से जूझ रही हो, फ्री के चावल व दाल पर किसी तरह गुजर-बसर कर रही हो, अपराध चरम पर हों, शिक्षा का बुरा हाल हो, खेत और पेट के लिए पानी ना हो, आधे से ज्यादा राज्य में नक्सलियों की हुकूमत हो और भी ना जाने क्या-क्या ऐसा हो जो तरक्की पसंद कौम के अहंकार पर पेवंद लगाता रहता हो तो पुराने जमाने के हिसाब से कम से कम ये सवाल तो उभरता ही है कि क्या ऐसे नेताओं को मूंछें रखने का हक है? क्या मूंछों पर ताव देने का हक है? अगर हम अपना घर और अपना राज्य सही नहीं रख सकते तो फिर मूंछ कैसे रख सकते हैं? हम पहले भी कह चुके हैं कि आज के दौर में मूंछों की बेकदरी सबसे ज्यादा है। पर जो देश अपनी संस्कृति पर इतराता घूमता रहता है तो उस देश में मूंछों की शान की उपेक्षा कैसे की जा सकती है? जिन्होंने रखी वो जानें, जिन्होंने नहीं रखी वो जानें कि क्यों रखी और क्यों नहीं रखी पर पुराने जमाने की बात होगी तो मूंछों की बात भी जरूर होगी।

अफसोस केवल इस बात का है कि तब मूंछें तय करती थी कि सब सही है पर अब तो कोई पैमाना या माध्यम ही नहीं रहा जिससे ये आंका जा सके कि हां सब कुछ ठीक है या कुछ गड़बड़ है।

By Editor