मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षी पहल ‘लोक संवाद’ दम तोड़ने लगा है। जनता के दरबार में मुख्यमंत्री कार्यक्रम को बंद कर सीएम ने 2016 से लोकसंवाद शुरू किया था। यह नीतीश कुमार के कॉरपोरेट कल्चर का विस्तार था। इसके लिए व्यापक स्तर पर प्रचार-प्रसार अभियान चलाया गया था। कुछ दिनों तक लोक संवाद को लेकर पूरा प्रशासनिक महकमा सक्रिय रहा, लेकिन कुछ महीने बाद ही सांस थमने लगी।

वीरेंद्र यादव


प्रारंभ में यह तय हुआ था कि लोक संवाद में एक दिन में 50 लोगों की राय सुनी जाएगी। लेकिन इस साल के पहले लोकसंवाद में सोमवार को मात्र नौ लोग राय देने के लिए पंजीकृत किये गये थे। उनमें से एक गायब ही रहे। इससे लोक संवाद की निरर्थकता को आप आसानी से समझ सकते हैं। मुख्यमंत्री निवास के आवासीय परिसर में अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस ‘लोक संवाद’ नामक भवन में 7 जनवरी को साल के पहले लोकसंवाद में मुख्यमंत्री समेत कुल 14 मंत्री मौजूद थे। यानी आधा मंत्रिमंडल। इसमें मुख्य सचिव समेत करीब डेढ़ दर्जन विभागों के सचिव व प्रधान सचिव मौजूद थे। और संवाद में अपनी राय लेकर पहुंचे मात्र 8 लोग। मतलब आम लोगों की रुचि लोकसंवाद से समाप्त हो गयी है।

और सबसे बड़ी बात, जिसे मुख्यमंत्री ने खुद बताया। प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद सीएम पत्रकारों से अनौपचारिक रूप से बतिया रहे थे। सीएम ने कहा कि लोकसंवाद के लिए अब कोई सुझाव भी नहीं आता है। जो पहले से पेंडि़ंग पड़ा हुआ है, उसी में से चुनकर लोगों को बुलाया जा रहा है। अगला लोकसंवाद अब 21 जनवरी को होगा। मुख्यमंत्री की यह स्वीकृति लोक संवाद की निरर्थकता साबित करने के लिए पर्याप्त है।

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