कहते हैं कि समरथ को नाही दोष गोसाई- तो क्या यही हाल बिहार की नौकरशाही का भी है जो वरिष्ठ व दोषी आईएएस अफसर को बचाने के लिए निर्दोष आईएएस के करियर को दाव पर लगा देती है?

MA Ibrahimi
MA Ibrahimi

बिहार कैडर के पूर्व आईएएस अफसर एमए इब्राहिमी ने इस तथ्य से पर्दा उठाते हुए लिखा है कि कैसे समस्तीपुर जेल गोलीकांड में तत्कालीन डीएम अनूप मुखर्जी दोषी करार दिये जाने के बावजूद बचा दिये गये जबकि बतौर एसडीओ इब्राहिमी को इस मामले में बाजाब्ता लिखित वार्निंग दी गयी जबकि जांच आयोग ने उन्हें निर्दोष करार दिया था.

पुस्तक में खोला राज

1978 बैच के बिहार कैडर के आईएएस  रहे इब्राहिमी ने अपनी पुस्तक ‘माई एक्सप्रियेंस इन गवर्नेंस’  में इस घटना का विस्तार से उल्लेख किया है. हर आनंद पब्लिकेशन से प्रकाशित पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि 1981 में समस्तीपुर जेल में कैदियों ने हड़ताल करके उत्पात मचा रखा था जिसका नेतृत्व लालबाबू राय नामक छात्र नेता कर रहे थे जो कर्पूरी ठाकुर के करीबी थे इस उत्पात को दबाने के लिए समस्तीपुर के तत्कालीन डीएम अनूप मुखर्जी और एसपी केबी कौर ने बल प्रयोग का फैसला लिया. तब मैं वहां एसडीओ के पद पर था लेकिन मेरा तबादला दानापुर हो चुका था .लेकिन इसी बीच कैदियों से निपटने के लिए डीएम अनूप मुखर्जी और एसपी केबी कौर बल प्रयोग करने के लिए जेल परिसर पहुंच गये. दोनों अफसरों ने गोली चलाने का आदेश दे दिया. तब मैं जेल परिसर से बाहर तैनात था और मैंने इससे पहले भी उन्हें बल प्रयोग पर अपनी अनिच्छा जाहिर कर दी थी. इसके बावजूद गोली चलाई गयी. इस घटना के बाद सरकार ने गोली कांड की जांच के लिए एक आयोग का गठन किया. आयोग ने जांच के बाद डीएम अनूप मुखर्जी {जो बाद में बिहार सरकार के  मुख्य सचिव बने} और बीके कौर और जेल प्रशासन को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया. इस रिपोर्ट की बुनियाद पर डीएम और एसपी पर सरकार की गाज गिरती, इससे पहले अनूप मुखर्जी ने किसी न किसी तरह खुद को बचा लिया. इस मामले में मेरी कोई संलिप्तता नहीं थी इसलिए मेरे खिलाफ स्वाभाविक तौर पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. लेकिन हालात तब बदल गये जब मैं सीवान का डीएम बना और वहां कुछ लोगों के खिलाफ एक्शन लिया.

साजिश 

इसके बाद कुछ लोग विधान परिषद के एक सदस्य से मिले और उसके बाद उन्होंने ने परिषद में यह सवाल पूछा कि समस्तीपुर जेल गोलीकांड में मेरे खिलाफ क्या कार्रवाई की गयी? इस सवाल के जवाब में गृह विभाग ने जान बूझ कर एक शरारतपूर्ण और गलत जवाब में कहा कि मेरे खिलाफ कारवाई की जायेगी. इसके बाद मैंने कहा कि गोलीकांड में मेरी कोई भूमिका नहीं रही और जांच आयोग की रिपोर्ट में मुझे दोषी भी नहीं ठहराया गया है, इस मामले में मेरे पास तमाम दस्तवाजी साक्ष्य मौजूद हैं. लेकिन तत्कालीन गृहसचिव जिया लाल आर्या ने इस मामले में किसी भी तरह मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का आदेश लेने में सफल रहे. हालांकि मुख्यमंत्री इस पक्ष में नहीं थे क्योंकि उन्हें सच्चाई मालूम थी लेकिन उनको नजर अंदाज करके कुछ वरिष्ठ आईएएस अफसरों ने पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाते हुए कार्मिक विभाग द्वारा मेरी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में वार्निंग का नोट लगवा दिया.

इस घटना के बाद सरकारी तंत्र से मेरा विश्वास हिल गया. और मैं तुरत सेंट्रल एडमिंस्ट्रेटवि ट्रिब्युनल यानी कैट में शिकायत ले कर पहुंच गया. कैट ने तमाम सुबूतों को देख कर यह माना कि मेरे खिलाफ नाइंसाफी की गयी है और उसने चेतावनी पत्र को निरस्त करने का आदेश दिया.

अपने करियर के शुरुआती वर्षों में ही मुझे अनुभव हुआ कि ऐसे सरकारी तंत्र में दोषी आसानी से बरी हो सकते हैं और निर्दोष को बलि का बकरा बनाया जाता है.

‘माई एक्सप्रियेंस इन गवर्नेंस’  का सम्पादित अंश, लेखक डॉ. एमए इब्राहिमी, पूर्व आईएएस

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