बिहार में चुनाव नहीं लड़ने का फैसला लेकर आम आदमी पार्टी ने सूझबूझ दिखायी है। जो लोग लालू से हाथ मिलाने को लेकर नीतीश पर निशाना साध रहे हैं, क्‍या वे बता सकते हैं कि जंगलराज के तमाम शोशों के बावजूद लालू यादव का वोट प्रतिशत कितना खिसक पाया है?download (1)

अविनाश 

मौजूदा लोकसभा में आरजेडी के चार सांसद हैं और कई लोकसभा में उसने बीजेपी को कड़ी टक्‍कर दी थी। ऐसे में लालू और नीतीश का साथ आना भले ही बिहार के लिए कथित तौर पर चिंतित दोस्‍तों को नहीं रास आ रहे हो, लेकिन यह बीजेपी के अजेय अभियान की राह में दिल्‍ली के बाद दूसरा रोड़ा हो सकता है। बीजेपी-आरएसएस की सांप्रदायिकता देश के लिए जहरीली हवा की तरह है – जिसमें एक देश सिर्फ शमशान और कब्रिस्‍तान में बदल सकता है। इन्‍हें सत्ता से दूर रखना एक जरूरी संघर्ष है और भ्रष्‍टाचार के खिलाफ जंग से बड़ी लड़ाई है।

महादलित राजनीति नीतीश की खोज

जीतनराम मांझी को लेकर लोभ-लाभ वाले बीजेपी के असमंजस को हम इसी आईने में देख सकते हैं। बिहार में महादलित की राजनीति को अलग से रेखांकित करने का काम नीतीश कुमार ने ही किया था। इसलिए मांझी के विरोध और बर्खास्‍तगी से जुड़ी घटनाओं का बड़ा असर जेडीयू की राजनीति पर नहीं पड़ेगा। अभी भी कई महादलित नेता जेडीयू में मौजूद हैं। चिंता बीजेपी को करनी चाहिए, जिनके साथ बिहार में लोकजनशक्ति पार्टी का वोटबैंक तो है, लेकिन केंद्र सरकार में रामविलास पासवान की स्थिति के देखते हुए वह प्रभावित भी हो सकता है। संभव है, चुनाव आते-आते उनका कद और मंत्रालय बढ़ा दिया जाए – लेकिन इस काम में जितनी देरी होगी, बीजेपी की मुश्किल उतनी बढ़ती जाएगी।

भाजपा के बिहार आसान नहीं

बिहार में सवर्ण कुछ सीटों पर भले परिणामों को अपने पक्ष में करने की हैसियत रखते हों, लेकिन दलितों-पिछड़ों और मुसलमानों के बिना बीजेपी बिहार की सत्ता पर कब्‍जा करने का सपना भी नहीं देख सकती। ऐसे में जेडीयू-आरजेडी गठबंधन लाभ की स्थिति में है। अगर वे कम्‍युनिस्‍ट पार्टियों को महागठबंधन का मोह छोड़ कर साथ आने को राजी कर पाये, तो मोदी-शाह की जोड़ी के लिए दिल्‍ली के बाद दूसरे बड़े अपमान से जूझना पड़ सकता है।

बिहार में चल रही मौजूदा उठापटक के बीच बीजेपी का कोई भी खयाली पुलाव रेत का महल ही साबित होगा। हां, अगर वो शाहनवाज हुसैन जैसे किसी मुसलिम नेता को चुनाव से पहले बिहार के मुख्‍यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्‍ट कर दें, तो खेल उनके पक्ष में पलट सकता है। लेकिन तब भी सांप्रदायिकता उनकी राज-काज-नीति के केंद्र में होगी।

अविनाश वरिष्ठ पत्रकार हैं

 

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