विगत 2-3 अप्रैल को बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन का 37वाँ महाधिवेशन संपन्न हुआ। 98 वर्षीय इस ऐतिहासिक साहित्यिक संस्था का दो दिवसीय

समारोह की यहां पढिये कम्पलीट रिपोर्ट.IMG_2617

यह आयोजन कई अर्थों में ऐतिहासिक रहा। पटना के कदमकुआं स्थित इसके परिसर में यह आयोजन खूब धूम-धाम से और उत्साह्पूर्वक आहूत हुआ, जिसका उद्घाटन बिहार के महामहिम राज्यपाल श्री रामनाथ कोविंद ने किया।

 

खास बात यह रही कि गोवा की राज्यपाल और विदुषी साहित्यकार डा मृदुला सिन्हा दोनों हीं दिन मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहीं और दूसरे दिन समापन समारोह में, 50 विद्वानों और विदुषियों को, बिहार की महान साहित्यिक-विभूतियों के नाम से नामित अलंकरणों से सम्मानित किया। यशस्वी कथाकार डा नरेन्द्र कोहली, प्रतिष्ठित और विद्वान पत्रकार डा वेद प्रताप वैदिक, साहित्य अकादमी के विद्वान सदस्य और साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अध्यक्ष डा सूर्य प्रसाद दीक्षित, दक्षिण भारत में हिन्दी के महान ध्वज-वाहक और कोलाद मठ, बंगलुरु के पीठाधीश्वर डा शांतावीर महास्वामी, महात्मागांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति डा गिरीश्वर मिश्र और महान कवि पद्म-भूषण गोपाल दास ‘नीरज’ जैसी विभूतियों की उपस्थिति से स्वाभाविक रूप से इस आयोजन को विशिष्ट मूल्य मिला। इनके अतिरिक्त केरल और बंगाल समेत अनेक प्रदेशों से भी विद्वान आमंत्रित किये गये थे जिन्होंने अधिवेशन के विभिन्न सत्रों में भाग लिया। अधिवेशन में पांच सौ से अधिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया।

इस महाधिवेशन को साहित्य सम्मेलन तथा इसके युवा अध्यक्ष डा अनिल सुलभ के लिये एक बड़ी चुनौती माना जा रहा था। इस आयोजन की सफ़लता से बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की पुरानी गरिमा पुनः लौटी है। देश-भर में इसकी व्यापक रूप से चर्चा हो रही है।

पहला सत्र, पहला दिन     

महाधिवेशन का उद्घाटन 2 अप्रैल को साढे दस बजे बिहार के राज्यपाल श्री रामनाथ कोविंद ने किया। अपने उद्घाटन संबोधन में महामहिम ने साहित्य सम्मेलन की पुरनी गरिमा की चर्चा करते हुए इसकी पुनः बहाली की आशा व्यक्त की। उन्होंने भाषा और साहित्य के संबंध में महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द्र को उद्धृत करते हुए कहा कि, हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो – जो हममे गति, संघर्ष और वेचैनी पैदा करे।

उन्होंने कहा कि गतिशील और प्रगतिमूलक मनुष्य और समाज हीं मानव-सभ्यता की दौड़ में अपनी पहचान बना पाता है। व्यक्ति की स्वतंत्रता, मुक्ति-कामना, उसका अस्मिता-बोध – ये समस्त बातें, जब जीवन के व्यापक संदर्भों में मूल्यांकित होती हैं, चित्रित होती हैं, तभी इनका स्थायी महत्त्व होता है। साहित्य मनोरंजन मात्र अथवा समय बिताने का जरिया नही होता। साहित्यकारों पर, उनकी विशिष्टताओं के कारण, अन्य की तुलना में अधिक उत्तरदायित्व है। वे केवल आइना दिखानेवाले नही, बल्कि मार्ग-दर्शक भी हैं।

समारोह की मुख्य अतिथि और गोवा की राज्यपाल डा मृदुला सिन्हा ने कहा कि, हिन्दी हृदय की भाषा है। इसमें एक अकूंठ उर्जा और प्रवाह है। सूचना क्रांति के वर्तमान दौर में, हमें यह देखना और सुनिश्चित करना होगा कि इसकी प्रासंगिकता और सौंदर्य कैसे अक्षुण्ण रहे। उन्होंने मर्म-स्पर्शी वाणी मे कहा कि, माता, गंगा और हिन्दी, ये तीनों समान रूप से हमारे लिये पूज्यनीयां हैं, एक श्रेणी मे हैं। उन्होंने लोक-जीवन में प्रचलित एक कहावत के जरिये अपनी बात स्पष्ट की कि, “गंगा से मिलिहें त डूब के नहइहें………अम्मा से मिलिहें त खूल के बतिअइहें”।

उन्होंने कहा कि हिन्दी को संपर्क-भाषा और व्यापार की भाषा कह कर छोटा किया जा रहा है। अंग्रेजी को देश की भाषा बनाने की कोशिश की जा रही है। भले हीं अंग्रेजी पेट की भाषा बन जाये, पर हृदय की भाषा तो हिन्दी ही है। उन्होंने कहा कि, साहित्य सम्मेलन को हिन्दी के विकास के लिये अपनी गति को और तेज करना चाहिये। विद्यालयों और महाविद्यालयों के बच्चों को जागरुक करना होगा। कहानी-सुनाने की परंपरा को फ़िर से आरंभ किया जाना चाहिये। इस तरह के मंच बनने चाहिये, जहां नयी पीढी सीधे किस्से-कहानी सुन सके। महामहिम के भाषण के पूर्व उनके द्वारा रचित गीत ‘हिन्दी है भारत की बिन्दी’ को बजाकर सुनाया गया। यह गीत भारत सरकार द्वारा ‘राज-भाषा गीत’ के रूप में स्वीकृत है।IMG_4040

इसके पूर्व अतिथियों का स्वागत करते हुए, महाधिवेशन के स्वागताध्यक्ष तथा सांसद रवीन्द्र किशोर सिन्हा ने सम्मेलन की स्थापना के विगत 97 वर्षों के गौरवशाली इतिहास पर एक सिंहावलोकन प्रस्तुत करते हुए, बताया कि वर्ष 1919 में देश-रत्न डा राजेन्द्र प्रसाद के आग्रह पर, अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेअल्न का 10वां अधिवेशन बिहार में आहूत किया गया था। इसी वर्ष राजेन्द्र बाबू की प्रेरणा से प्रदेश के उत्साही साहित्यकारों ने बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की। इस कार्य में मुजफ़्फ़ारपुर के युवा साहित्यकार श्री रामधारी प्रसाद (बाद में रामधारी प्रसाद ‘विशारद) की मुख्य-भूमिका थी, जिन्हें प्रो मथुरा प्रसाद दीक्षित, मुजफ़्फ़रपुर नगरपालिका के अध्यक्ष श्री बैद्यनाथ प्रसाद आदि का सहयोग प्राप्त हुआ। सम्मेलन के अध्यक्ष पद पर स्वयं डा राजेन्द्र प्रसाद समेत राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’, आचार्य शिवपूजन सहाय, रामवृक्ष बेनीपुरी, पं मोहनलाल महतो ’वियोगी’, डा काशी प्रसाद जायसवाल। राजा राधिका रमण प्रसाद सिन्हा, पं छविनाथ पाण्डेय, प्रो कलक्टर सिंह ‘केसरी’, राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह, संन्यासी भवानी दयाल, महापंडित राहुल सांकृत्यायन जैसी महान विभूतियां प्रतिष्ठित हुई और सम्मेलन की गरिमा का चतुर्दिक विस्तार किया।

श्री सिन्हा ने बताया कि सम्मेलन द्वारा केवल हिन्दी भाषा और साहित्य की उन्नति के लिये हीं नही,बल्कि भारत की अन्य लोक-भाषाओं, जिनमें दक्षिण भारतीय भाषाएँ भी सम्मिलित हैं, के शिक्षण और उन्नयन के कार्य हुआ करते थे। यहां के कला विभाग में कला और संगीत की विविध विधाओं में प्रशिक्षण की व्यवस्था थी। महाविद्यालय का संचालन होता था,जिसमें साहित्य में स्नातक और स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम संचालित किये जाते थे और ‘विद्या-वाचस्पति, साहित्य वाचस्पति, विद्या-वारिधि, साहित्य-वारिधि, कला-विभूषण, कला-भूषण, साहित्य विभूषण, साहित्य-भूषण आदि उपाधियां भी प्रदान की जाती थी। उन्होंने सम्मेलन-अध्यक्ष के कार्यों की सराहना करते हुए, यह आशा व्यक्त की कि वे सभी कार्यक्रम जो पूर्व में संचालित होते थे, अब पुनः आरंभ होंगे। उन्होंने महामहिम से आग्रह किया कि कुलाधिपति के रूप में वे साहित्य सम्मेलन को हिन्दी विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता प्रदान करें।

सम्मेलन के अध्यक्ष

सम्मेलन-अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने इस महाधिवेशन को, सम्मेलन की उन्नति और प्रगति का ‘प्रस्थान-बिन्दु’ की संज्ञा देते हुए कहा कि दो-दो महामहिमों की उपस्थिति और अनेक महान विद्वानों के मूल्यवान विचारों से एक बार फ़िर सम्मेलन को असीम उर्जा मिल रही है। इसमें संदेह नही कि प्रदेश की यह गौरवशाली संस्था पुनः अपना वह गरिमापूर्ण स्थान प्राप्त करने में सफ़ल होगी, जिसके कारण संपूर्ण भारतवर्ष में ईसकी प्रतिष्ठा थी। तब वह साहित्य-संसार के लिये एक तीर्थ-स्थल-सा था। देश भर के साहित्यकार इसे ‘गुरुद्वारा’ मानता था। बिहार आनेवाले सभी साहित्यकार यहाँ ‘मत्था टेकना’ ज़रूरी समझते थे। यह वही ऐतिहासिक स्थल है, जहाँ विश्व-महाकाव्य के रूप में प्रतिष्ठित, महाकवि जयशंकर प्रसाद की अमूल्य काव्य-कृति ‘कामायनी’ का परिशोधन किया गया था। उपन्यास-समाट मुंशी प्रेमचन्द्र के अनेक उपन्यासों को यहीं आचार्य शिवपूजन सहाय ने संशोधित और परिवर्द्धित किया ।

डा सुलभ ने कहा कि सम्मेलन के पराभव के दिन अब बीत चुके हैं। अब यह साहित्य-समाज का विश्वास और सहयोग प्राप्त कर उन्नति के मार्ग पर पद-चालन आरंभ कर दिया है। वे सारे कार्य आरंभ कर दिये गये हैं जो पहले हुआ करते थे। उन्होंने सम्मेलन की सफ़लता के लिये कार्यसमिति और स्वागत समिति द्वारा किये गये श्रम और साधना की प्रशंसा करते हुए विशेष रूप से महाधिवेशन के स्वागताध्यक्ष रवीन्द्र किशोर सिन्हा के प्रति कृतज्ञता का भाव प्रकट किया।

इस सत्र में चर्चित समीक्षक डा विनोद कुमार मंगलम की पुस्तक “अज्ञेय और पाश्चात्य साहित्यकार”, डा छाया सिन्हा की पुस्तक ‘नट जाति और उसकी बोली’ तथा स्वागताध्यक्ष रवीन्द्र किशोर सिन्हा के सौजन्य से प्रकाशित साहित्य-सम्मेलन के वार्षिक-कैलेंडर का लोकार्पण भी महामहिम-द्वै द्वारा किया गया। आरंभ में प्रसिद्ध नृत्याचार्य डा नागेन्द्र प्रसाद मोहिनी के निर्देशन और नेतृत्व में महाप्राण निराला की वाणी-वंदना से अतिथियों का स्वागत किया गया।

उद्घाटन समारोह

 

उद्घाटन समारोह में, डा नरेन्द्र कोहली, डा वेद प्रताप वैदिक, डा सूर्य प्रसाद दीक्षित, डा शांतावीर महास्वामी, वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय तथा विश्व विद्यालय सेवा आयोग, बिहार के पूर्व अध्यक्ष प्रो शशि शेखर तिवारी भी उपस्थित थे। धन्यवाद-ज्ञापन सम्मेलन के प्रधानमंत्री आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव ने तथा मंच-संचालन सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने किया।

महाधिवेशन का प्रथम वैचारिक सत्र 12 बजे आरंभ हुआ, जिसका उद्घाटन वरिष्ठ कथाकार डा नरेन्द्र कोहली ने किया। गोष्ठी का विषय था- “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता : सामाजिक दायित्व, पत्रकारिता और साहित्य”। अपने उद्घाटन वक्तव्य में डा कोहली ने कहा कि, आज भी असामाजिक तत्त्व-रुपी राक्षस, हमारे समाज में विद्यमान हैं। इसलिये आज साहित्यकारों, पत्रकारों और प्रबुद्धजनों को ‘ॠषि’ की भूमिका में आना होगा।

सत्र-सभापति और साहित्य सम्मेलन, प्रयाग के अध्यक्ष डा सूर्य प्रसाद दीक्षित ने कहा कि, जिस लेखनी या बोली से सामाजिक विद्वेष, जातीय वैर, लिंगीय संघर्ष, पीढियों के बीच संघर्ष बढे, अंतर्राष्ट्रीय संबंधो पर असर पड़े, उस पर नियंत्रण होना आवश्यक है।

मुख्यवक्ता के रूप में उपस्थित वरिष्ठ पत्रकार डा वेद प्रताप वैदिक ने राजनीत वालों पर हमला बोलते हुए कहा कि, देश के अब तक के सारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सारे नेता अंग्रेजी की गुलामी करते आये हैं। विश्व हिन्दी सम्मेलन जैसा ढोंग तो आज तक मैंने देखा नही। एक प्रस्ताव तक पारित नही करते। बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। किसी में भी, प्रधान मंत्री में भी, हिन्दी के लिये सीधे-सीधे खड़े होने की हिम्मत नही है।

उन्होंने अधिवेशन को सार्थक बताते हुए कहा कि बिहार में हो रहा ऐसा आयोजन सुकून देता है। पिछले 70-72 सालों में एक बार भी मैने अंग्रेजी मे हस्ताक्षर नही किया। आप सब से भी प्रतिज्ञा कराना चाहता हूं कि किसी भी कागज पर अंग्रेजी में दस्तखत मत कीजिये। मनुष्य होने की पहली शर्त है- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। आज अभिव्यक्ति के नाम पर कुछ लोग देश को बदनाम कर रहे हैं।

41 प्रतिशत हैं हिंदी भाषी      

वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने कहा कि हिंदी का लगातार विस्तार हो रहा है। 1971 की जनगणना में 37 प्रतिशत लोग हिंदी बोलने वाले थे और 2001 में यह प्रतिशत बढकर 41 हो गयी। आज हिन्दी बाज़ार की भाषा बन गयी है। आज रिक्शावाले और सरकारवाले दोनों हिन्दी पढते और बोलते हैं। अब यह सूचना क्रांति की भाषा बन गयी है।

इस सत्र में वरिष्ठ समीक्षक डा खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि आलोचना, साहित्य का प्राण है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सवाल तभी उठते हैं, जब राजनीति बीच में आ जाती है। वरिष्ठ पत्रकार विकास कुमार झा का कहना था कि पत्रकारिता में तथ्य पवित्र होते हैं, विचार नही। अतिथियों का स्वागत सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेन्द्रनाथ गुप्त ने तथा धन्यवाद ज्ञापन दूसरे उपाध्यक्ष पं शिवदत्त मिश्र ने किया। मंच का संचालन कर रहे थे वरिष्ठ साहित्यकार साहित्य-सारथी बलभद्र कल्याण।

दूूसरा सत्र  

दूसरे सत्र का जिसका विषय- ‘साहित्य में ग्राम्य-जीवन और बिहार’ था, का उद्घाटन कोलादमठ, बंगलुरू के पीठाधीश्वर डा शांतावीर महास्वामी ने किया।

सत्र-सभापति के रूप में अपना व्याख्यान देते हुए, प्रसिद्ध कथाकार और राष्ट्रभाषा परिषद, बिहार के पूर्व अध्यक्ष डा रामधारी सिंह ‘दिवाकर’ ने हिन्दी साहित्य में ग्रामीण-परिवेश और उसके विपुल सौंदर्य के साथ उसकी वेदना-संवेदना की सविस्तार चर्चा की। मुख्य-वक्ता के रूप में उपस्थित चर्चित कवि और पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो सुरेन्द्र स्निग्ध ने बिहार के अनेक साहित्यकारों के नाम गिनाये, जिन्होंने अपने साहित्य में ग्राम्य-जीवन और उसकी पीड़ा और शक्ति का मह्त्त्व दिया है।

इस सत्र में, केरल से आये महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, कोट्टायम के हिन्दी विभागाध्यक्ष डा बाबू जोसेफ़, तथा उसी विभाग में सह-प्राध्यापक डा ए सुमेश तथा प्रसिद्ध चलचित्र समीक्षक राकेश मंजुल ने भी अपने व्याख्यान प्रस्तुत किये। अतिथियों का स्वागत सम्मेलन के साहित्यमंत्री डा शत्रुघ्न प्रसाद ने तथा धन्यवाद ज्ञापन वरिष्ठ विद्वान डा ब्रह्मचारी सुरेन्द्र कुमार ने किया। मंच का संचालन डा वोनोद कुमार मंगलम ने किया।

संध्या में सम्मेलन के कलामंत्री और प्रसिद्ध नृत्याचार्य डा नागेन्द्र प्रसाद मोहिनी के निर्देशन में ‘रंगशाला’ के कलाकारों ने नृत्य-नाटिका ‘आम्रपाली’ तथा बाबू रघुवीर नारायण के अमरगीत ‘बटोहिया’ पर नृत्य-रूपक की भव्य प्रस्तुति की गयी। इसके पूर्व डा शंकर प्रसाद ने अपनी गज़ल-गायिकी का खूबसूरत अंदाज पेश किया। संगीत संध्या का उद्घाटन बिहार के कला एवं संस्कृति मंत्री डा शिवचन्द्र राम ने किया। इस अवसर पर बिहार के राजस्व एवं भूमि-सुधार विभाग के मंत्री डा मदन मोहन झा मुख्य अतिथि के रूप में तथा दूरदर्शन केन्द्र पटना के केन्द्र निदेशक पुरुषोत्तम नारायण सिंह विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित थे। अतिथियों का स्वागत डा नागेन्द्र प्रसाद मोहिनी ने, धन्यवाद-ज्ञापन स्वागत समिति के उपाध्यक्ष कुमार अनुपम ने तथा मंच का संचालन पल्लवी विश्वास ने किया।

कवि सम्मेलन

आज के दिन की तरह आज की रात भी हमेशा के लिये यादगार बन गयी, जब हिन्दी काव्य के जीवंत प्रमाण-पुरुष पद्म-भूषण गोपाल दास ‘नीरज’ की अध्यक्षता में साढे चार घँटे से अधिक समय तक चले कवि-सम्मेलन का अविस्मरणीय आनंद बिहार-वासियों को प्राप्त हुआ। दो व्यक्तियों का सहारा लेकर वे धीरे-धीरे चलकर मंच पर पहुंचे। उनके सम्मान में जोरदार तालियाँ बजी। उन्होंने दीप-प्रज्ज्वलित कर कवि सम्मेलन का उ्द्घाटन किया। संचालन कर रहे कवि डा गजेन्द्र सोलंकी ने कहा कि कवि-सम्मेलन का कारवाँ तो बढेगा हीं, अगर गुरुवर ‘नीरज’ दो शब्द बोल कर इसका आरंभ कर देते तो अच्छा होता…………

फ़िर क्या था ! कविवर ने माइक पकड़ी। पहले आवाज़ लड़खड़ाई। लगा कि ठीक से बोल नहीं सकेंगे। लेकिन दो पल बाद हीं इस 92 वर्षीय कवि ने कविताई का ऐसा रंग बिखेरा कि सब उसमें रंग गये। उन्होंने कहा कि, आत्मा के सौंदर्य का शब्द-रूप है काव्य। मानव होना है भाग्य पर, कवि होना है सौभाग्य।

फ़िर कुछ दोहे पढे- “ अद्भूत गणतंत्र है/ अद्भूत षडयंत्र है। संत पड़े हैं जेल में/ डाकू स्वतंत्र हैं”। “आज़ादी के बाद कुछ ऐसा हुआ विकास/ हरियाली को दे दिया ऊसर ने वनवास”। “महा ठगनी ये सांस है/ पल-पल आये जाये/ रुक जायेगी कहां/ कोई जान न पाये”। “तन से भारी सांस है/ इसे समझ लो खूब/ मुर्दा जल में तैरता/ ज़िंदा जाता डूब’। इस तरह ढेर सारे दोहे और जब लगभग डेढ बजे रात में कवि-सम्मेलन अपनी समाप्ति पर था कई गीत और गज़लें भी, एक तो सस्वर, पढी।

कवयित्री डा सीता सागर के इस निर्दोष श्रृंगार गीत पर कि, “भँवर से तुमने दिया निकाल/ किया पल भर में मुझे निहाल/ दिया सांचे में अपने ढाल/ नौलखा हार बना डाला/ बुरा वक्त थी मैं तो/ तुमने त्योहार बना डाला”, श्रोता झूम से उठे और तालियां स्वर के साथ बजने लगीं। अन्य कवियों ने भी अपनी श्रेष्ठतम रचनाएं पढीं तथा श्रोताओं को अंत तक बांधे रखा।

कवि सम्मेलन में, ख्याति-लब्ध कवि डा कुँवर वेचैन, डा अनिल चौबे, विनीत पाण्डेय, चरणजीत चरण, सत्य नारायण, रमेश कवँल, आरपी घायल, नाशाद औरंगाबादी, दिनेश कुमार शर्मा, राम उचित पासवान ‘पासवाँ’ तथा संचालक के आग्रह पर सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने भी अपनी एक लोकप्रिय गज़ल “सहरा में दो बूंद आब सी है ज़िन्दगी/ खूबसूरत मगर खाब सी है ज़िन्दगी” का सस्वर पाठ किया। अंत में संचालक डा गजेन्द्र सिंह सोलंकी के प्रिय छंदों के प्रभावकारी पाठ से कवि सम्मेलन रात के दो बजे संपन्न हुआ। अनवरत कर-तल ध्वनि से सुधी श्रोताओंने ‘नीरज’ समेत सभी कवियों को विदा किया।

दूसरा दिन  

अधिवेशन के दूसरे दिन तीन वैचारिक सत्र संपन्न हुए। प्रथम वैचारिक-सत्र का विषय – “राजभाषा हिन्दी के समक्ष चुनौतियाँ” था, जिसका उद्घाटन डा सूर्य प्रसाद दीक्षित ने किया।

पहला सत्र 

सत्र का सभापतित्व करते हुए महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्द्धा के कुलपति डा गिरीश्वर मिश्र ने कहा कि हिन्दी साहित्य को और लोकप्रिय बनाने के लिये शोध को बढावा देने की आवश्यकता है। शोध किये गये शब्दों का प्रचलन बढना चाहिये। उन्होंने कहा कि मानक हिन्दी के लिये चार लाख शब्दों का चयन भारत की विभिन्न भाषाओं से शोध कर किया गया है। किंतु दुख है कि इनमें से मात्र एक हज़ार शब्दों का ही प्रयोग हो रहा है।

इस सत्र में प्रसिद्ध समीक्षक और राष्ट्र-भाषा परिषद, बिहार के पूर्व निदेशक डा शिववंश पाण्डेय, रिजर्ब बैंक, पटना में हिन्दी अधिकारी डा परिमलेन्दु कुमार सिन्हा तथा मगध विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा मेजर बकबीर सिंह ‘भसीन’ ने भी अपने व्याख्यान प्रस्तुत किये। आतिथियों का स्वागत वरिष्ठ साहित्यकार और अवकाश प्राप्त भा प्र से अधिकारी जियालाल आर्य ने, धन्यवाद-ज्ञापन प्रो वासुकी नाथ झा ने तथा मंच का संचालन सम्मेलन के अर्थमंत्री योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने किया।

दूसरा सत्र, महिलाओं पर

अगला वैचारिक सत्र महिलाओं पर केन्द्रित था और इसका विषय भी था – “हिन्दी साहित्य में महिलाओं की सहभागिता”। इस सत्र का उद्घाटन गोवा की राज्यपाल डा मृदुला सिन्हा ने किया। अपने उद्घाटन-संबोधन में डा सिन्हा ने कहा कि, साहित्य में स्त्री और पुरुष विमर्श नही हो सकता। दोनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि देश में होने वाले महिला लेखन पर पश्चिम ने गहरा प्रभाव डाला है। भारतीय साहित्य को पश्चिम से आनेवाली पछुआ हवा से बचाने की ज़रूरत है। 1980 से लेखन में पश्चिम से हवा आने लगी। इसका गहरा असर महिलाओं के लेखन पर पड़ा। लेखन विवेक से किया जाना नितांत आवश्यक है। इससे नयी पीढी को भी जोड़ा जाना चाहिये।

विषय पर अपना मुख्य व्याख्यान देती हुई मगध विश्व विद्यालय में हिन्दी की पूर्व विभागाध्यक्ष डा भूपेन्द्र कलसी ने कहा कि बिहार में महिला-लेखन की एक लंबी परंपरा रही है। समय समय पर महिला साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं से समाज में नयी चेतना पैदा की। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान गांधी जी के बिहार आगमन के बाद महिलाएँ बड़ी संख्या में घरों से बाहर निकलीं और साहित्य में भी अपनी भागीदारी दी।

इस सत्र में प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता में हिन्दी विभाग की अध्यक्ष डा तनुजा मजुमदार तथा डा सुमेधा पाठक ने भी अपने व्याख्यान प्रस्तुत किये। अतिथियों का स्वागत कौलेज औफ़ कौमर्स, पटना की हिन्दी विभागाध्यक्ष डा मंगला रानी ने, धन्यवाद-ज्ञापन डा उषा सिंह ने तथा मंच का संचालन कवयित्री डा शांति जैन ने किया। सत्र की अध्यक्षता कर रही थी, वरिष्ठ पत्रकार और कवयित्री डा अहिल्या मिश्र।

महाधिवेशन का 5वाँ सत्र खुला-सत्र था। इसमें प्रतिनिधियों को अपने विचार रखने के अवसर दिये गये। इस सत्र का उद्घाटन पटना उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेन्द्र प्रसाद ने तथा सभापतित्व मेजर बलबीर सिंह ‘भसीन’ ने किया। अतिथियों का स्वागत, स्वागत समिति के उपाध्यक्ष अभिजीत कश्यप ने, धन्यवाद-ज्ञापन श्रीकांत सत्यदर्शी ने तथा संचालन आचार्य आनंद किशोर शास्त्री ने किया।

समापन समारोह

महाधिवेशन का समापन समारोह भी उद्घाटन-समारोह की भांति भव्य हुआ। पुनः गोवा की राज्यपाल मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित हुईं और अपने स्नेह-सिक्त मर्म-स्पर्शी उद्गार से सबको मोहित और आह्लादित कर दिया। उन्होंने कहा कि साहित्य के लिये जो कुछ भी संभव हो सबकुछ करने की आवश्यकता है। शादी के बाद जब घर से विदा हुई तो गांव की बूढी महिलाओं ने कहा कि –“बेटी पगड़ी की लाज रखना”। बाद में समझ पायी कि ‘पगड़ी की लाज़’ का अर्थ क्या है। पगड़ी ऊंची करने का अर्थ क्या है! अब जब साहित्य में आयी हूं तो साहित्य की पगड़ी ऊंची करनी है। हमें साहित्य की पगड़ी ऊंची रखनी है। उन्होंने साहित्य सम्मेलन को आगे बढने का आह्वान करते हुए, अपने सभी प्रकार के सहयोग का आश्वासन भी दिया।

समापन समारोह में महामहिम द्वारा प्रदेश के 50 साहित्यसेवियों और विद्वानों को विविध सम्मानों से सम्मानित किया गया। महाधिवेशन के स्वागताध्यक्ष और सांसद रवीन्द्र किशोर सिन्हा ने पुनः अतिथियों का स्वागत किया और सबके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष तथा सभी सहयोगियों को बधाई दी। सभा की अध्यक्षता सम्मेलन-अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने की। इस अवसर पर सम्मेलन की त्रैमासिक पत्रिका ‘सम्मेलन साहित्य’ के महाधिवेशन विशेषांक का लोकार्पण महामहिम्द्वारा किया गया। मंच का संचालन पत्रकार रवि अटल ने किया। अंत में राष्ट्र-गान के साथ यह दो दिवसीय महाधिवेशन भव्य रूप में संपन्न हुआ।

सम्मानितों की सूचि;

क्रम संख्या व नाम                :            अलंकरण           :            अवदान

1)  श्री गोवर्द्धन प्रसाद सदय            : पं मोहनलाल महतो ‘वियोगी’ सम्मान : अखंडित साहित्य-साधना हेतु

2)  डा शिववंश पाण्डेय          : आचार्य शिवपूजन सहाय सम्मान ( साहित्यिक संपादन में विशेष कार्य

3)  श्री ब्रजमोहन सहाय ‘मोहन प्रेमयोगी  : राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ सम्मान (काव्य में राष्ट्रीय-भाव)

4)  डा रामधारी सिंह ‘दिवाकर’    : फ़णीश्वर नाथ रेणु सम्मान ( कथा-लेखन में ग्राम्य एवं आंचलिकता )

5)  डा दिनेश दत्त शर्मा          : आचार्य नलिन विलोचन शर्मा सम्मान ( साहित्यालोचन )

6)  प्रो सुरेन्द्र स्निग्ध           : बाबा नागार्जुन सम्मान (जन सरोकारों की रचनाओं के लिये)

7)  डा शिवदास पाण्डेय          : महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान

8)  श्री सुनील कुमार पाठक       : भिखारी ठाकुर सम्मान

9)  श्री ॠषिकेश सुलभ           : राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह सम्मान

10) श्री चन्द्रमोहन प्रधान        : डा लक्ष्मी नारायण सिंह ‘सुधांशु’ सम्मान ( हिन्दी सेवा व समालोचना )

11)  श्री हृदयेश्वर               : कलक्टर सिंह ‘केसरी’ सम्मान ( काव्य में ग्राम्य-जीवन )

12) डा ओम प्रकाश साह ‘प्रियंवद’  : रामवृक्ष बेनीपुरी सम्मान

13) डा किशोर सिन्हा           : प्रफ़ुल्ल चंद्र ओझा ‘मुक्त’ सम्मान ( रेडियो नाटक / रूपक हेतु विशेष कार्य )

14) डा राम प्रवेश सिंह          : पं छविनाथ पाण्डेय सम्मान ( पाठालोचन में विशेष कार्य हेतु)

15) श्री विनोद कुमार चौधरी,भापुसे : केदार नाथ मिश्र ‘प्रभात’ सम्मान ( गीत-प्रबंध में विशेष कार्य हेतु )

16) डा कल्याणी कुसुम सिंह            : प्रकाशवती नारायण सम्मान ( कथा-साहित्य में महिला )

17) श्री संजय कुमार                  : रामेश्वर सिंह काश्यप उर्फ़ लोहा सिंह सम्मान (नाटय-शास्त्र व रेडियो रूपक)

18) डा ध्रूब कुमार              : पं राम दयाल पाण्डेय सम्मान

19) डा नीलिमा सिन्हा          : बच्चन देवी साहित्य साधना सम्मान ( गद्य और पद्य में समानान्तर-साधना)

20) डा परिमलेन्दु कुमार सिन्हा   : आचार्य जानकी बल्लभ शास्त्री सम्मान ( गीति-काव्य के लिये )

21) श्री कमलेन्द्र झा ‘कमल’            : गोपाल सिंह नेपाली सम्मान ( गीत में प्रकृति एवं राष्ट्र-भाव )

22) श्री बच्चा ठाकुर                  : आरसी प्रसाद सिंह सम्मान ( काव्य में प्रकृति-चित्रण )

23) डा सुमेधा पाठक                 : चतुर्वेदी प्रतिभा मिश्र सम्मान (लोकभाषा के लिये)

24) डा अजय कुमार सिंह        : राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह सम्मान (साहित्य की उन्नति में विशेष-सहयोग)

25) श्री शिव कुमार             : बाबू गंगा शरण सिंह सम्मान ( हिन्दी भाषा के कार्य में विशेष सहयोग)

26) डा धीरेन्द्र झा             : पं जनार्दन झा द्विज सम्मान

27) श्री सैय्यद हुसैन अब्बास रिज्वी : पीर मोहम्मद मुनीस हिन्दी सेवी सम्मान ( हिन्दी-सेवी मुसलमान )

28) डा विनोद कुमार मंगलम     : आचार्य देवेन्द्रनाथ शर्मा सम्मान (देश-विदेश के साहित्यकारों पर विशेष)

29) श्री अर्जुन प्रसाद बादल       : रघुवीर नारायण सम्मान

30) श्री सुदर्शन श्रीनिवास शाण्डिल्य : पं राम नारायण शास्त्री सम्मान (संस्कृत-साहित्य व व्याकरण हेतु विशेष कार्य)

31) श्री हेमन्त कुमार, बाढ       : पं रामचन्द्र भारद्वाज सम्मान

32) श्री अरुण कुमार वर्मा        : हास्य रसावतार पं जगन्नाथ चतुर्वेदी सम्मान ( हास्य-व्यंग्य हेतु )

33)  डा नवल किशोर प्र श्रीवास्तव : साहित्य सम्मेलन हिन्दी साधना सम्मान ( हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

34) श्री राम उचित पासवान            : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान ( हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

35) डा अमरेन्द्र नारायण         : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान ( हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

36) डा भावना शेखर                 : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान (हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

37) श्री नाशाद औरंगाबादी        : साहित्य सम्मेलन काव्य-साधना सम्मान ( हिन्दी-उर्दू में काव्य-सृजन )

38) श्री रमेश कवँल             : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान ( हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

39) डा अर्चना त्रिपाठी           : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान ( हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

40) श्री ज़फ़र सिद्दिक़ी           : साहित्य सम्मेलन काव्य-साधना सम्मान ( हिन्दी-उर्दू में काव्य-सृजन )

41) श्री हसन नवाब हसन        : साहित्य सम्मेलन काव्य-साधना सम्मान ( हिन्दी-उर्दू में काव्य-सृजन )

42) श्रीमती रुखशाना सिद्दिकी     : साहित्य सम्मेलन काव्य-साधना सम्मान ( हिन्दी-उर्दू में काव्य-सृजन )

43) डा माधुरी सिंह             : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान ( हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

44) श्रीमती संगीता चौधरी        : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान ( हिन्दी भाषा और साहित्य की सेवा)

45) श्री चन्द्र किशोर पाराशर            : साहित्य सम्मेलन लोक-साहित्य-साधना सम्मान ( बज्जिका में सृजन )

46) श्री अशरफ़ अस्थानवी        : साहित्य सम्मेलन काव्य-साधना सम्मान ( हिन्दी-उर्दू में काव्य-सृजन )

47) श्री आर प्रवेश              : साहित्य सम्मेलन लोक-साहित्य-साधना सम्मान ( अंगिका में सृजन )

48)  श्रीमती रेणु कुमारी         : साहित्य सम्मेलन हिन्दी सेवी सम्मान

49)  डा सुभद्रा वीरेन्द्र           : साहित्य सम्मेलन काव्य-साधना सम्मान

50)  श्री अशोक महेश्वरी,        : प्रकाशन-श्री सम्मान

राज कमल प्रकाशन

 

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