जामिया टीचर्स सॉलिडेरिटी एसोसियेशन की रिपोर्ट बताती है कि मध्य प्रदेश में ऐसे 75 फर्जी केस हैं जिसमें बेगुनाह लोग सलाखों में बंद हैं.jail

यह रिपोर्ट 7 नवम्बर को दिल्ली के जामिआ मिल्लिया इस्लामिया में रिलीज़ की जायेगी, जिसमें वरिष्ठ मानवाधिकार कार्यकर्ता डॉक्टर बिनायक सेन, राष्ट्रीय अल्पसंखयक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह, सुप्रीम कोर्ट के लॉयर्स, अशोक अग्रवाल और रेबेका जॉन भाग लेंगे.

देश भर में ऐसे सैकड़ों मुक़दमे हैं, जिसमे लोग बेगुनाही की सज़ा भुगत रहे हैं. इन मुक़दमों और सज़ाओं का आधार उनके पास से ‘ज़ब्त साहित्य’ के अलावा कुछ नहीं है.

मध्यप्रदेश की स्तिथि कुछ ऐसी ही है, जिसकी ओर बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया है और इसीलिए इस मामले में कोई ख़ास दस्तावेज़ भी नहीं मिलते। यह रिपोर्ट ऐसे ही मुकदमों का दस्तावेज़ीकरण (डॉक्यूमेंटेशन) है, जिसमे सन 2001 और 2012 के बीच “अनधिकृत गतिविधि अधिनियम” (UAPA) के तहत कायम किये गए मुक़दमों की पड़ताल की गयी है. इसमें 75 ऐसे केसेज़ को जमा किया गया है जो मध्य प्रदेश के विभिन्न जिलो, जैसे इंदौर, खंडवा, भोपाल, बुरहानपुर, सेओनी, उज्जैन, निमछ, गुना, आदि में स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया (सिमी) के पूर्व-सदस्यों, उनके मित्रों, जाननेवालों, यही नहीं दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध न होने के बावजूद, पर कायम किये गए हैं. यहाँ पर नोट करने लायक एक अहम तथ्य ये है कि इन वर्षों में कोई एक भी आतंकी घटना नहीं हुयी है. यही नहीं, इन तमाम मामलों में हिंसा करने का एक भी आरोप नहीं है.

ये केसेज़ हमें फ़र्ज़ी मामलों में फसाये जाने के प्रविर्तियों (patterns) से भी अवगत करता है. ज़यादहतर एफ. आई. आर एक दुसरे के कार्बन कॉपी प्रतीत होते हैं. इसी प्रकार इन मामलों का आधार सिमी के पोस्टर्स, पर्चे, और दूसरे साहित्य बताये गए हैं. और निर्विवाद रूप से सारे पोस्टर और पर्चे सिमी पर प्रतिबन्ध (2001) से पहले के हैं.

दूसरे मैगज़ीन्स जो जब्तशुदा साहित्य में दिखाए गए हैं वो तहरीक़-ए-मिल्लत नामक एक मैगज़ीन की प्रतियां हैं जो कि RNI द्वारा रजिस्टर्ड है और जिसे कभी भी ‘ग़ैर-क़ानूनी’ नहीं घोषित किया गया. साथ ही “नई-दुनिया” और “दैनिक जागरण” के ऐसे क्लिपिंग्स को भी अभियोग के लायक़ साहित्य बताया है जिसमे सिमी से जुड़ी कोई ख़बर छपी है.

इन एफआईरों में ये आरोप दर्ज़ है कि मुल्ज़िम चौक-चौराहे और दूसरे सार्वजनिक स्थानों पर खड़े होकर प्रतिबंधित संगठन सिमी के पक्ष में नारे लगा रहे थे और बयानबाज़ी कर रहे थे और ये प्रण ले रहे थे कि वो संगठन के उद्देश्य को आगे बढ़ायेंगे। ये भी कहा गया है कि ऐसा करते वक़्त उनके पास पोस्टर्स और पर्चे थे !

केस दर्ज करने को चिट्ठी

यहाँ एक अहम विशेषता और देखने को मिलती है कि किस प्रकार राज्य के दूसरे हिस्सों में मुक़दमा कायम करने का आधार बनता है. 27 मार्च 2008 को 13 मुख्य/अग्रणी सिमी कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी का दावा किया जाता है. उसके तुरंत बाद, 29 मार्च 2008 को धार के सीनियर सुप्रीटेंडेंट ऑफ़ पुलिस राज्य के दूसरे ज़िलों के अधिकारीयों से इसी तरह का मामला दर्ज करने के पत्र लिखते हैं. और इसके साथ ही, एक महीने के अंदर 18 केस दर्ज़ हो जाते हैं. इन सारे केसेज़ के एफआईआर में इस पत्र का साफ़-साफ़ ज़िक्र मिलता है. जबकि कानूनी तौर पर ऐसा करना बिलकुल ग़लत है.

ये रिपोर्ट ये दर्शाती है कि कैसे इतने हल्के सबूतों और कानूनी प्रक्रियाओं के घोर उलन्घन के बावजूद, बहुत सारे आरोपियों को कोर्ट ने सज़ा सुना दी है. रिपोर्ट के दूसरे हिस्से में, एक ऐसे ही केस (खंडवा: FIR 256/06) के ट्रायल और फ़ैसले का जायज़ा लिया गया है. इस केस में 14 आरोपी हैं, जिसमे दो बहनें राफ़िआ और आसिया भी हैं, को गिरफ्तार किया गया था. इन पर आरोप है कि ये लोग पर्चे, रशीद, पोस्टर्स और दूसरे साहित्य छापकर ग़ैरक़ानूनी संगठन सिमी की गातिविधियां अंजाम दे रहे थे. इस पूरे केस का आधार दूसरे आरोपियों का डिस्क्लोजर स्टेटमेंट और ज़ब्त की हुयी चीज़ों पर है. लेकिन ट्रायल के दौरान ये साफ़ हो गया कि ज़ब्ती के गवाहों पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्यूंकि या तो वो पूर्वाग्रहित हैं या फिर फ़र्ज़ी (स्टॉक विटनेस) हैं.

1 . एक मुख्य सरकारी गवाह (PW 1) ने इस बात का इक़रार किया वो बजरंग दल का सदस्य है.
2. PW 6 के खिलाफ उसी थाने के अंदर एक आपराधिक मामला दर्ज है, जहां इस केस की छानबीन हुई.

3. PW 5 ने पुलिस पर ज़बरदस्ती गवाही देने और यातनाएं पहुँचाने का आरोप लगाया और अपनी गवाही से मुकड़ गया. स्थानीय प्रेस में ये बात प्रमुखता से प्रकाशित हुई थी कि उसे ग़ैरक़ानूनी तौर पर गिरफ्तार किया गया था. लगातार दी जा रही यातनाओं के वजह से उसने उस वक़्त आत्महत्या कर ली जबकि ट्रायल चल ही रहा था.

इसके अलावा, ज़ब्त की गयी चीज़ें मुहरबंद (sealed) नहीं थीं, इसका इकरार अभियोजन पक्ष ने कोर्ट में खुद भी किया है। सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि, इन्ही जब्तशुदा चीज़ों को चार अलग केसेज़ का भी आधार बताया गया है ! (देखिये पृष्ट, 68-9) इस बाबत, मध्यप्रदेश हाई कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट और अभियोजन पक्ष को ज़बरदस्त फ़टकार भी लगाई और इस केस में UAPA के इस्तेमाल पर भी सवाल खड़ा किया। पर इन सब के बावजूद, ट्रायल कोर्ट ने तमाम तरह के प्रक्रियाओं के उलन्घन की अनदेखी करते हुए 14 में से 11 आरोपियों को UAPA के प्रावधानो के तहत सज़ा सुना दी.

By Editor