फैज़ अहमद फैज़ की नज्म की यह पंक्ति वैसे तो कई मौकों पर गुनगुनाई जाती रही है। मगर हाशिमपुरा के माहौल में जहां सच अपने मायने खो चुका है वहां यह पंक्ति जैबुन निशा के सामने अचानक इस संवाददाता के मुंह से निकल जाती है। जैबुन निशा इकबाल अहमद की विधवा है  पीएसी की जेरे हिरासत होने वाले जनसंहार के वक्त जैबुन निशा की उम्र 20 साल थी। वर्षों बाद अदालत ने तमाम मुल्जिमों को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया. विजन मुस्लिम टूडे संवाददाता वसीम अकरम त्यागी ने उनसे बात चीत की पेश है बात चीत के मुख्य अंश –

जैबुन निशा अपने पति की तस्वी लिये
जैबुन निशा अपने पति की तस्वीर लिये

आप एक उम्मीद के साथ जी रहीं थी कि आपको इंसाफ मिलेगा मगर अदालत का फैसला आपकी उम्मीदों के विपरीत आया है ?

जवाब – मुझे बहुत झटका लगा जब सुना की मेरे पति के हत्यारे बरी हो गये हैं। मेरे न कुछ खाने को मन करता है और अब न ही किसी काम में मन लगता है। वह मंजर आज फिर मेरी आंखों के साने है जब पीएसी वाले उनको उठाकर ले गये थे। मैंने पूछा कि कहां ले जा रहे हो तो उन्होंने कहा कि बाहर साहब बुला रहे हैं वे दो बात करेंगे। मगर उसके बाद वे वापस नहीं आये। दो दिन पहले ही मेरी तीसरी बेटी उज्मा ने जन्म लिया था। मगर पांच दिन पता चला कि उनको मुरादनगर नहर पर ले जाकर गोली मार दी है। मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई कोई बेटा भी नहीं था बस तीन बेटियां थीं उनकी परवरिश की।

आपको न्याय क्यों नहीं मिल पाया कहां कोताही रही आखिर ?

हमने क़ानून को हर चीज़ मुहैया कराई है. मगर क़ानून अंधा, बहरा हो गया है, सबकुछ तो हमने मोहय्ये कराया था सारे सबूत दिये थे, आप ही एक बताईये साब कि यहां से पीएसी वाले उनको ले गये फिर उनको रास्ते में मार दिये आप ये बताओ उन्हें अगर इन्होंने नहीं मारा तो किसने मारा ?

आप बीस साल की उम्र में विधवा हो गईं उसके बाद इस पहाड़ सी जिंदगी को कैसे गुजारा ?

आंखों से आंसू साफ करते हो जिंदगी क्या होती है यह मुझसे बेहतर और कौन जान सकता है मेरी उम्र उस वक्त बीस साल थी अभी बचपना ही था कि यह हादसा हो गया मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल जिंदगी का था कि यह कैसे गुजरेगी ? मैंने घर में ही कामकाज शुरु किया सिलाई करके घर पर मेहनत मजदूरी करके बच्चो को पढ़ाया ज्यादा पैसा नहीं था इसलिये सिर्फ दसवीं तक ही मेरी बच्चियां पढ़ पाईं। समाज की तरह – तरह की बातें भी सुनीं कोई कहता कि जवान है कोई गलत कदम उठा लेगी। मगर अल्लाह का शुक्र है कि मैं पर्दे में रही और घर से बाहर नहीं निकलीं। फिर बेटियां बड़ी हो गईं तो उनकी शादी कर दी शादी कैसे की है यह तो बस मैं ही जानती हूं कोई सहारा नहीं था सिर्फ भाई ने कुछ मदद की थी। हमारे तो ससुर भी नहीं थे उनका भी इंतकाल हो गया था, और इस हादसे के बाद मेरे अम्मी और अब्बू का भी इंतकाल हो गया उन्हें भी सिर्फ यही सदमा था कि इतनी कम उम्र में उनकी बेटी विधवा हो गई।

बच्चे पूछते होंगे कि पापा कहां है फिर उन्हें कैसे समझाया ?

बड़ी बेटी को अपने पापा कि शक्ल हल्की सी याद है वैसे तो तीनों बच्चे उनकी तस्वीर के देखकर बड़े हुए हैं। वे अक्सर मुझसे पूछा करते थे कि हमारे पापा कहां हैं ? वे कब आयेंगे। क्या बताती उनको फिर वे बड़े हुए तो उन्हें इस जनसंहार के बारे में मालूम हुआ मौहल्ले के और भी लोगों के घर वाले मारे गये थे सब एक दूसरे को दिलासा देकर अपने आंसू साफ कर लिया करते थे। जो दास्तान में आपको सुना रही हूं मैंने हर दिन यह दास्तानें खुद को सुनाई हैं मगर एक ही सवाल है जिसका जवाब नहीं मिलता कि उनका क्या कसूर था उनको क्यों मारा ?

 बताइये क्या आपको न्याय मिलने की उम्मीद है ?

बिल्कुल मिलेगा हम हाईकोर्ट जायेंगे मैंने तो इस न्याय के लिये ही 28 साल गुजारे हैं कि न्याय मिले अब आगे देखती हूं कि अभी कितना वक्त और लगेगा मुझे न्याय मिलने में। मैंने अपने बच्चों की किताबों में पढ़ा है कि आखिर में जीत सच्चाई की होती है मुझे पूरी उम्मीद है कि जिन्होंने मेरा घर उजाड़ा है उन्हें सजा भी जरूर मिलेगी।मगर आप मीडिया वाले हो मेरे इस सवाल का जवाब भी जानते होंगे कि क्या मेरे शौहर के कातिल के लिये कोई सजा नहीं है ?

By Editor

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