बीबीसी की एक विश्लेष्णात्मक रिपोर्ट उन रहस्यों से पर्दा उठा रही है जो बताती है कि कैसे मीडिया नरेंद्र मोदी के पक्ष मे आ गया है. इतना ही नहीं तटस्थ रहने वाले सम्पादकों को कैसे हटाया जा रहा है.

मोदी के रंम में भारतीय मीडिया
मोदी के रंम में भारतीय मीडिया

पिछले सप्ताह दिल्ली में जब आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने अपने मंत्रिमंडल के मंत्रियों के साथ सड़क पर धरना दिया तो उन्हें शुरुआत में मीडिया में जबरदस्त कवरेज मिली और मीडिया का रवैया पूरी तरह सकारात्मक रहा लेकिन धरना जैसे ही दूसरे दिन में प्रवेश किया लगभग सारे टीवी चैनल अचानक केजरीवाल और उनके धरने के विरोधी हो गए .

मीडिया का विरोध इतना अचानक , सामूहिक और स्पष्ट था कि खुद केजरीवाल ने पत्रकारों से पूछा कि आखिर मीडिया को हो क्या गया?

इस बिंदु पर किसी को भी नहीं मालूम कि आम आदमी पार्टी आगामी चुनाव में क्या भूमिका निभायेगी लेकिन इतना ज़रूर है कि पार्टी ने एक भी नेता और उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे बिना भारत की राजनीति का दृश्य ही बदल दिया है .

इस नई पार्टी कांग्रेस और भाजपा से लेकर सभी क्षेत्रीय दलों तक एक विवशता पैदा कर दी है .

दूसरी ओर भाजपा नेता नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता तेजी से बढ़ रही है और प्रधानमंत्री के लिए अपने रास्ते को बड़े सहज होता जा रहा है . मोदी के बेहतर अवसरों के अनुपात में ही अब भारत का मीडिया भी रंग बदलता जा रहा है और लगभग सभी टीवी चैनलों पर समाचारों और टिप्पणियों में अचानक मोदी की तरफ झुकाव दिखने लगा है .

कुछ विश्लेषणात्मक रिपोर्ट के अनुसार कई कॉर्पोरेट मालिकों ने अपने चैनलों को स्पष्ट रूप से निर्देश दिया है वह मोदी के विरोध से बचें और मोदी विरोधी विश्लेषकों और विशेषज्ञों को बहसों में कम से कम बुलायें.

एक प्रमुख पत्रिका ने अपने एक लेख में लिखा है कि पिछले कुछ हफ्तों में कम से कम पांच प्रमुख सम्पादकों को तटस्थ रहने या मोदी विरोधी विचारों के कारण उनके पदों से हटा दिया गया है . यही नहीं टीवी चैनलों पर अचानक ऐसे विश्लेषकों और पर्यवेक्षकों की संख्या बढ़ गई है जो दक्षिणपंथी विचारधारा वाले हैं .

गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि में नरेंद्र मोदी अधिकांश अंग्रेजी मीडिया को शक की नजर से देखते रहे हैं . मीडिया के प्रति उनका रवैया काफी घमंडी और एकतरफा रहा है .

मोदी अंग्रेजी मीडिया को शक की नजरों से देखते हैं
मोदी अंग्रेजी मीडिया को शक की नजरों से देखते हैं

वह अभी तक पत्रकारों से बचते रहे हैं और साक्षात्कार केवल उसी पत्रकार को देते हैं जिसे वे चाहते हैं . साक्षात्कार से पहले वह पत्रकार से सारे सवाल भी मांगते हैं. और पत्रकार को यह भी बताया जाता है कि इनमें कौन से सवाल पूछना है और कौन से नहीं .

भारत के एक प्रमुख पत्रकार ने कुछ साल पहले एक साक्षात्कार के दौरान जब मोदी से गुजरात दंगों के बारे में सवाल किया तो वे बेहद नाराजगी के साथ साक्षात्कार से उठकर चले गए . इसके बाद किसी भारतीय पत्रकार आमतौर उनसे दंगों के बारे सवाल साहस नहीं करते और अब भी भारतीय मीडिया अपनी इसी रवैये पर चल रहा हा.

भारत के कॉरपोरेट हाउसेज़ और बड़े औद्योगिक घराने धार्मिक नरसंहार , जातिवाद , धार्मिक भेदभाव और अन्य महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दों पर शायद ही कभी कोई स्टैंड लेते हों और वह हमेशा चुप ही रहे हैं .
मोदी में उन्हें एक खुली अर्थव्यवस्था के वाहक और सुधारवादी नेता नजर आता है . मोदी का साथ देना इसलिए भी उनके लिए स्वाभाविक है कि वे मौजूदा चुनावी राजनीति की बिसात पर पराजित मुहरों के साथ प्रतिबद्धता दिखा कर कोई जोखिम नहीं लेना नहीं चाहते.

भारतीय मीडिया भी अचानक इसलिए मोदी के रंग में रंग जा रहा है.

बीबीसी में शकील अख्तर की रिपोर्ट

By Editor