पुण्य प्रसून बाजपेयी का यह लेख, देश में मुस्लिम वोट बैंक की सियासत, केंद्र की अल्पसंख्योंको के लिए योजनाओं के साथ धोखेबाजी और कांग्रेस के फरेब को बेनकाब करता है.muslim.j

कांग्रेस को एहसास नहीं रहा होगा कि जिस मुसलिम समुदाय को लेकर उसने हर चुनाव से पहले बिसात बिछायी, वह ऐसे वक्त में फिसल रहा है जब हिंदुत्व की प्रयोगशाला के नायक नरेंद्र मोदी सामने खड़े हैं. जब गुजरात दंगों के नाम पर मुसलिम समाज के भीतर खौफ पैदा करने की राजनीति तेज हो सकती है, उसी वक्त अगर मुसलिम समाज के भीतर से कांग्रेस सरकार पर सवाल उठे, तो यह सियासी तौर पर खतरे की घंटी तो है. यह सवाल दिल्ली के विज्ञान भवन में वक्फ बोर्ड के ऐसे कार्यक्रम में उठा, जिसमें मुसलिमों को सामने बिठा कर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अल्पसंख्यक विकास योजनाओं का जिक्र इस उम्मीद में कर रहे थे कि तालियां बजेंगी, पर वहां तो पूर्वी दिल्ली के डॉ फहीम बेग का गुस्सा उभर गया.

सवाल सिर्फ विरोध का नहीं था. सवाल सोनिया गांधी व मनमोहन सिंह की मौजूदगी में विरोध का था और कांग्रेस की मुसलिमों को लुभानेवाली योजनाओं के फेल होने से निकले आक्रोश का भी था. इससे दो सवाल सीधे उभरे, पहला क्या राजनीतिक तौर पर मुसलिम कांग्रेस का विकल्प देख रहे हैं? और दूसरा, क्या गुजरात दंगों से आगे विकास और न्यूनतम जरूरत उनकी पहली प्रथामिकता है? जो भी हो, 2014 की राजनीतिक बिसात पर मुसलिम अगर कांग्रेस का विकल्प खोजने निकला, तो लोकसभा की 218 सीटें सीधे प्रभावित होंगी.

कांग्रेस व बीजेपी

कांग्रेस और बीजेपी के लिए मुसलिम समाज के क्या मायने हैं, यह इससे भी समझा जा सकता है कि मौजूदा लोकसभा में कांग्रेस की 122 सीटें मुसलिम प्रभावित क्षेत्रों से ही हैं. जम्मू-कश्मीर, असम, पश्चिम बंगाल, केरल, यूपी, बिहार, झारखंड, कर्नाटक, दिल्ली, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, गुजरात, तमिलनाडु की कुल 358 में से 198 सीटों का नतीजा मुसलिम समीकरण से तय होता है. 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस इन 198 में से 102 सीटें जीती थी, जबकि बीजेपी को इनमें 30 सीटों पर जीत विभिन्न सियासी समीकरणों के जरिये मिली थी. यानी सत्ता तक पहुंचने के लिए कांग्रेस की नब्ज मुसलिम वोट बैंक के हाथ रही है. दूसरी ओर बीजेपी को भी अगर मोदी की अगुवाई में सत्ता तक पहुंचना है तो उसे हिंदुत्व और संघ की धारा छोड़ कर कांग्रेस के अल्पसंख्यक बिसात की पोपली जमीन को उभारना होगा और विकल्प के तौर पर विकास का खांचा भी रखना होगा. सियासत के ये नये संकेत हैं, पर राजनीतिक बिसात से इतर देश में मुसलिमों को लेकर सत्ता का जमीनी सच क्या है, यह अकसर चुनावी जीत-हार में छिपता रहा है.

65 साल में 21 हजार योजनाओं का हस्र

2014 की चुनावी बिसात पर मुसलिम वोट बैंक कैसे प्यादा भर है, इसे समझने से पहले उस दर्द को परख लें जो पीएम की 15 सूत्री से लेकर हजारों सूत्री कार्यक्रमों तले दबी हुई हैं. सच यह है कि बीते 60 बरस से हाशिये पर पड़े लोग राजनीतिक लाभ पाने के लिए हर सत्ता के सामने खाली कटोरा लिए ही लगातार खड़े हैं. 1952 के पहले चुनाव के वक्त भी खड़े थे और 2014 के चुनाव से ऐन पहले भी खड़े हैं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक के दौर में मुसलिम समाज के लिए 21,098 से ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं लायी जा चुकी हैं, लेकिन इन हजारों योजनाओं का नायाब सच यह है कि मुसलिम समाज आज मनमोहन सिंह से जिन मुद्दों पर रूठा हुआ है, उसे पूरा करने का बीड़ा नेहरू के दौर से हर सरकार ने लगातार उठाया है. मसलन अल्पसंख्यक समुदाय में शिक्षा का स्तर ऊपर उठाने के मद्देनजर अब तक 900 से ज्यादा कार्यक्रमों का ऐलान हो चुका है.

रोजगार को लेकर 2500 से ज्यादा योजनाएं बीते 60 बरस में बनायी गयीं. अल्पसंख्यक गरीबों के विकास के लिए 1900 से ज्यादा, झुग्गी-बस्तियों में बेहतर जीवन देने के लिए 3 हजार से ज्यादा योजनाएं बनीं. यानी हर वह मांग या हर वह दरिद्रगी, जिसका जिक्र सच्चर कमेटी में किया गया है, या फिर 2004 में सत्ता संभालने के महज आठ महीने बाद 26 जनवरी, 2005 को पीएम के नाम से जिस 15 सूत्री योजना का ऐलान हुआ, उसकी त्रसदी देश में यही रही कि उसे अमलीजामा पहनाया जाता भी है या नहीं इसपर कभी किसी ने ध्यान नहीं दिया.

खाली थाली ही नसीब है
खाली थाली ही नसीब है

ऐलान होता है, मर जाती हैं योजनायें

संयोग देखिए, 2014 का चुनाव दस्तक दे रहा है तब प्रधानमंत्री ने एक बार फिर दिल्ली में 60 बरस की परंपरा को ही निभाते हुए मुसलिमों के लिए एक नयी हितकारी योजना का ऐलान कर खामोशी बरतने में ही भलाई समझी. लेकिन योजनाएं सिर्फ ऐलान होकर कैसे मर जाती हैं, इस दर्द को समेटे पीएम के ऐलान भरे भाषण पर पहली बार अंगुली उसी तबके ने उठा दी, जिसे राजनीतिक बिसात पर महत्वपूर्ण बना दिया गया है. सरकारी आंकड़े ही बताते हैं कि जिस 15 सूत्री कार्यक्रम पर मनमोहन सरकार को गर्व होना चाहिए, उसकी सफलता का पैमाना तीन फीसदी से आगे नहीं बढ़ पाया. मसलन, 2005 में जारी हुए पीएम के 15 सूत्री कार्यक्रम में शिक्षा के अवसर को बढ़ावा देने का जिक्र है, पर इस पर सिर्फ 3.2 फीसदी अमल हो पाया है.

ये है विकास की सच्चाई

रोजगार में समान हिस्सेदारी का जिक्र है, पर इस क्षेत्र में महज 2.91 फीसदी सफलता मिली है. विकास योजना में समान हिस्सदारी का जिक्र भी 15 सूत्री में है, लेकिन सफलता का पैमाना 1.71 फीसदी है. आवास योजना में उचित हिस्सेदारी की सफलता का पैमाना 0.89 फीसदी है. और तो और, पीएम की तरफ से हर स्कीम के मद के पैसे का 15 फीसदी अल्पसंख्यक समुदाय को देने की बात कही गयी थी, लेकिन सफलता मिली 0.2 फीसदी. तो क्या चुनावी बिसात पर ये सवाल उठेंगे या मुसलिम समुदाय फिर वोट बैंक में तब्दील हो जायेगा. अगर ऐसा होता है तो 2014 की चुनावी बिसात का सच यही है कि लोकसभा की 543 सीटों में से 218 पर मुसलिम वोट बैंक का प्रभाव है. इनमें से 35 सीटों पर 30 फीसदी से ज्यादा मुसलिम हैं.

कितने निर्णाय मुसलमान< 38 पर 21 से 30 फीसदी तक मुसलिम हैं. बाकी 145 सीटों पर 11 से 20 फीसदी मुसलिम हैं. लेकिन मुसलिम समुदाय की लोकसभा में नुमाइंदगी महज 6 फीसदी है. यानी 2009 में सिर्फ 30 मुसलिम सांसद बन पाये. यह संख्या आजादी के बाद कभी बहुत ज्यादा हो गयी हो, ऐसा भी नहीं है. दरअसल, देस का सच यही है कि आजादी के तुरंत बाद मुसलिमों को वोट बैंक मान लिया गया. जिस मौलाना अबुल कलाम ने 1947 के बाद देश में मुसलिमों की सुरक्षा को लेकर नेहरू के साथ कमर कसी, उन्हें भी 1952 में चुनाव लड़ना पड़ा तो यूपी में रामपुर लोकसभा सीट से टिकट गया, जहां 80 फीसदी मुसलिम वोटर थे. तब कांग्रेस की नीति से मौलाना नाखुश हुए थे और 62 बरस बाद एक आम मुसलिम मनमोहन से नाखुश हुआ है. ब्लॉग से

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