वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर बता रहे हैं कि मुख्यमंत्री जीतन मांझी के मूर्ति धोने वाले बयान से अलग यह विचार करने की जरूरत है कि यह पीड़ा अनुसूचित जाति के सामान्य जन की पीड़ा हैmanjhi

यह मान भी लिया जाए कि मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी हाल में मधुबनी जिले के जिस मंदिर में गए, उसे बाद में धोया नहीं गया, फिर भी उस बयान के पीछे की पीड़ा समझने की अधिक जरूरत है।

संभव है कि मूर्ति धोने के बारे में जीतन राम मांझी को किसी ने गलत सूचना दे दी हो। अच्छा ही होगा यदि यह खबर गलत हो। पर, इस प्रकरण में मुख्यमंत्री की उक्ति के पीछे की पीड़ा को समझने और उसे दूर करने की सख्त जरूरत है। इस काम के लिए सिर्फ सरकार बल्कि पूरे समाज को भी पूरे मन से लगना होगा। पर, सवाल है कि इसके लिए कितने लोग आज तैयार हैं ?

मुख्यमंत्री की यह पीड़ा अनुसूचित जाति के एक सामान्य व्यक्ति की पीड़ा है। वह पीड़ा अकारण भी नहीं है। आजादी के 67 साल बाद भी आज अनुसूचित जातियों की सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक स्थिति कैसी है? आजादी के बाद इस मामले में कुछ बदलाव जरूर आया है, पर क्या वह काफी है? मुख्यमंत्री ने कहा है कि काम लेना हो तो लोग पैर छुएंगे और प्रणाम करेंगे, पर वही लोग बाद में अछूत मानेंगे।

कैसे आयेगा फर्क

मुख्यमंत्री ने इसके अलावा भी इस तरह की कई बातें देखी और भोगी हांेगी। आर्थिकरूप से संपन्न बनाना होगा यहसब आज भी होता है, इस बात से भला कौन इनकार कर सकता है! हालांकि समाज में ऐसे लोगों की संख्या धीरे -धीरे बढ़ रही है, जो भेदभाव नहीं करते। पर ऐसे उदार लोगों की संख्या और भी तेजी से बढ़नी चाहिए, तब शायद फर्क आए! समाज के उपेक्षित लोगों के आर्थिक और शैक्षणिक विकास के साथ स्थिति और तेजी से बदल सकती है। इस पृष्ठभूमि में मुख्यमंत्री की यह घोषणा समयोचित है कि 50 लाख रुपए तक के टेंडर में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को आरक्षण दिए जाने पर विचार हो रहा है।

यदि सचमुच बिहार सरकार ने ऐसा कर दिया, तो कमजोर वर्ग में एक हद तक आर्थिक संपन्नता आएगी। आर्थिक संपन्नता से भी सामाजिक मेलजोल बढ़ता है। ऐसा सामान्य जातियों के बीच भी देखा जाता है। वैसे तो इस देश प्रदेश के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अल्पसंख्यकों के लिए जल्द ही कुछ खास करने की जरूरत है, पर जिन्हें सदियों से अछूत भी माना गया है, उनकी दशा सुधार कर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाने की तो और भी अधिक आवश्यकता है।

मुख्यमंत्री के पीड़ापूर्ण बयान ने इस समस्या की ओर प्रबुद्ध वर्ग का ध्यान एक बार और मजबूती से खींचा है। वैसे उनकी दशा में सुधार लाने की मुख्य जिम्मेदारी तो खुद सरकार की ही है। हालांकि कुछ जिम्मेदारी समाज सुधारकों और संतों की भी है।

गांधी का उपवास

कभी महात्मा गांधी ने किया था उपवास आचार्यकिशोर कुणाल ने पटना के प्रसिद्ध हनुमान मंदिर में 1993 में ही दलित पुरोहित बैठा कर अनुकरणीय काम किया था। पर इसे और आगे बढ़ाने की जरूरत है। अछूतों के सबसे बड़े नेता और हितैषी डा.बी.आर.आंबेडकर के साथ 1932 में पूना पैक्ट करके महात्मा गांधी ने इस उपेक्षित वर्ग के लोगों की दशा सुधारने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाया था। उन दिनों महात्मा ने यरवदा जेल में दलितों को समाज का हिस्सा बनाये रखने के लिए उपवास किया था। इस तरह उन्होंने अपनी जान को भी खतरे में डाला था। महात्मा गांधी ब्रिटिश सरकार के कम्युनल अवार्ड के खिलाफ थे। अभी बहुत कुछ करना बाकी है डा.आंबेडकरकी मांग पर ब्रिटिश सरकार ने यह कदम उठाया था। कम्युनल अवार्ड लागू हो जाता, तो विधायिका के लिए अनुसूचित जातियों के मतदाता अलग से अपने प्रतिनिधि चुनते।

ऐसी सुविधा तब अल्पसंख्यकों को मिली हुई थी। पर, आजादी के बाद भी उस पूना पैक्ट की भावना के अनुसार काम को आगे नहीं बढ़ाया जा सका है। सामाजिक स्तर पर भी अनुसूचित जाति की समाज की मुख्यधारा में स्वीकृति उतनी नहीं बढ़ी, जितनी अब तक बढ़ जा़नी चाहिए थी। मेलजोल कुछ बढ़ा है, पर अभी बहुत कुछ करना बाकी है।

1979में धोई गई थी मूर्ति

आजादीके 32 साल बाद भी वाराणसी में एक ऐसी घटना हो गई थी, जिसकी उम्मीद इस देश के विवेकशील लोग तब भी नहीं कर रहे थे। देश के तत्कालीन उपप्रधान मंत्री जगजीवन राम ने 1979 में वहां डा.संपूर्णानंद की मूर्ति का अनावरण किया था। कुछ बंद दिमाग के लोगों ने बाद में उस मूर्ति को गंगाजल से धोया था। अब 2014 में बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को लेकर भी ऐसी ही बात सामने आई। ग्रामीण विकास मंत्री नीतीश मिश्र, खान भूतत्व मंत्री राम लखन राम रमण और खुद संबंधित मंदिर के पुजारी अशोक कुमार झा ने भी मूर्ति को धोने की खबर की पुष्टि नहीं की है। इस खबर की सच्चाई पर विवाद हो सकता है। पर, इस पर कहां कोई विवाद है कि दलितों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए अभी बहुत कुछ करने की सख्त जरूरत है।

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