चीजें कांग्रेस की गुप्त रणनीति के अनुरूप चल रही हैं. उसे पता है कि देश भर में उसके विरुद्ध सत्ता विरोधी लहर है और इसका लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिलेगा. इसलिए उसने मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के समानांतर एक बड़ी छवि गढ़ने के लिए राजनीतिक नवसिखिए अरविंद केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवा कर मुहरे के रूप में सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया है. शुक्रवार को अरविंद केजरीवाल के इस्तीफे का कांग्रेसी दृष्टिकोण यही है.kejriwal--621x414

इर्शादुल हक

आखिर सोचने की बात है कि केजरीवाल के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी को सत्ता सिंहसन सौंपने और उसके द्वारा नित्य नये अपमान के घूट पीने का जोखिम कांग्रेस ने क्यों उठाया? दर असल कांग्रेस अपने दो सूत्री एजेंडे पर काम कर रही थी- पहला, वह नरेंद्र मोदी के समानांतर अरविंद केजरीवाल के रूप में एक ऐसी छवि गढ़ना चाह रही थी जो कांग्रेस विरोधी लहर की तीव्रता को दो टुकरों में बांट सके और दूसरा, वह आम जनता को बता सके कि साम्प्रदायिक राजनीति करने वाली भाजपा को रोकने के लिए उसने केजरीवाल को समर्थन दिया.

इस समय भाजपा, अपनी ऊर्जा इस बात के मंथन में लगा रही है कि अरविंद केजरीवाल उसे कितना डैमेज कर सकते हैं और इस डैमेज को कैसे कंट्रौल किया जाये.क्योंकि उसे बखूबी पता है कि राजस्थान में दो महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में उसे जो सत्ता मिली, वह सिर्फ इसलिए कि वहां कांग्रेसी सत्ता विरोधी लहर थी और उस विरोधी लहर को बांटने वाला कोई ‘कोजरीवाल फैक्टर’ नहीं था. लेकिन भाजपा ने दिल्ली में देखा कि कांग्रेसी सत्ता विरोधी लहर की तीव्रता को अरविंद केजरी वाल की आम आदमी पार्टी ने बखूबी बांटा- नतीजा भाजपा दिल्ली में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बाद भी सत्ता से दूर रह गयी.

मोदी के समानांतर केजरीवाल

दर असल कांग्रेस को केजरीवाल के रूप में तुरूप का एक पत्ता मिल गया है. दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के पहले कांग्रेस के इस तुरूप के पत्ते का राजनीतिक कद इतना बड़ा नहीं था जो नरेंद्र मोदी के समानांतर खड़ा हो सके. दिल्ली का मुख्यमंत्री बनने के बाद और मुख्यमंत्री की कुर्सी कुर्बान करने के 49 दिनों में भारती मीडिया का नायक केजरीवाल ही बने रहे. इन 49 दिनों में मीडिया में मोदी की जगह को केजरीवाल ने कैप्चर सा कर रखा था. खुद मोदी ने केजरीवाल की मीडिया में बने रहने पर भड़ास तक निकाला. इस अर्से में केजरीवाल की छवि इतनी विराट बन गयी कि मीडिया की सत्ता पर काबिज पत्रकारों से लेकर (जैसे आशुतोष) कैबिनेट मंत्री( बिहार की मंत्री परवीन अमानुल्लाह) तक और पूर्व नौकरशाहों से लेकर कारोबारी घरानों के शीर्ष पर बैठे लोगों तक ने आम आदमी पार्टी का दामन थामा. इन 49 दिनों में निश्चित तौर पर केजरीवाल ने खुद को राष्ट्रीय फलक पर प्रोजेक्ट करने का पूरा प्रयास किया. उधर कांग्रेस की गुप्त रणनीति भी यही रही कि केजरीवाल की छवि जैसे जैसे वृहत होती जायेगी वह मोदी के समानांतर खड़े होते जायेंगे. इन 49 दिनों में यही हुआ है. केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनवाने की कांग्रेस की सबसे बड़ी यही उपलब्धि है.

अब सवाल यह है कि क्या केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा के भगवा रथ को रोका, लोकसभा चुनाव में इसे किस हद तक नुकसान पहुंचा पायेंगे पायेंगे? इस बात को समझने के लिए केजरीवाल के वटरों की सामाजिक पृष्ठभूमि को देखा जाये तो चीजें काफी हद तक स्पष्ट हो जाती हैं. केजरीवाल को दिल्ली के शहरी मध्यवर्ग का समर्थन रहा है और पारम्परिक तौर पर शहरी मध्यवर्ग भाजपा का सपोर्टर रहा है. ऐसे में अरविंद केजरीवाल का इमरजेंस निश्चित तौर पर भारतीय जनता पार्टी के लिए खतर की घंटी है.

इस बात का पूरा आभास भारतीय जनता पार्टी के रणनीतिकारों को भी है.इस बात के मद्दे नजर भारतीय जनता पार्टी केजरीवाल से होने वाले डैमेज को कंट्रोल करने की रणनीति में जुट गयी है. अब देखना है कि भाजपा आने वाले दिनों में कांग्रेसी सत्ता विरोधी लहर को बंटने से रोकने के लिए क्या करती है.

By Editor