उत्तरपूर्व का दौरा करते हुए घुमक्कड़ पत्रकार विद्युत प्रकाश मौर्य पिछले दिनों कोहिमा पहुंच गये. सुनिए उन्हीं की जुबानी कोहिमा वार सिमेट्री की कहानी-war.cemetray

कोहिमा वार सिमेट्री यानी शहीदों की याद में बना स्मारक. वे लोग जो बेहतर कल के लिए लड़ते हुए इस दुनिया को अलविदा कह गए.इस स्मारक पर ये पंक्तियां लिखी हैं-“When you go home, Tell them of us and say.For your tomorrow, We gave our today”.

यानी – “जब घर जाना अपने,याद दिलाना मेरी, करना एक निवेदन, आपके कल के लिए हमने अपना आज किया समर्पण”

ये उन फौजियों का निवेदन है जो दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान लड़ते हुए शहीद हो गए. यहां दो सौ से ज्यादा शहीद फौजियों का स्मारक बना हुआ है. कोहिमा लंबे समय तक युद्ध का साक्षी रहा है. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान अप्रैल 1944 से जून 1944 तक यहां युद्ध चलता रहा.ये विश्व का सबसे बड़ा ब्रिटिश युद्ध माना जाता है. रायल क्वीन केंट रेजिमेंट के बटालियन के फौजियों ने यहां शहादत दी. यहां श्रद्धा के फूल चढ़ाने न सिर्फ भारत बल्कि विदेशों से भी लोग पहुंचते हैं.

कोहिमा के सभी आकर्षणों में से कोहिमा वार सिमेट्री यानी युद्ध स्मारक सबसे खास है. यहां 1421 स्लैब कोहिमा में हुए युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिकों की याद में खड़े किए गए हैं. यह स्थल दूसरे विश्वि युद्ध के दौरान एशियाई क्षेत्र में सबसे कट्टर था. यहां बनी सभी कब्रों में एक कांस्य प्लेट लगा है जिस पर शहीदों का विवरण है. कोहिमा युद्ध स्माकरक की देखरेख राष्ट्रमंडल युद्ध स्मारक आयोग ( कामनवेल्थ वार ग्रेव्स कमीशन) द्वारा की जाती है.

यहां सेना ने अपने 1405 जवान गंवाए थे जिसमें 146 की पहचान नहीं हो सकी जबकि वायु सेना के 15 सैनिक शहीद हुए. अप्रैल 1944 में जापानियों के भारत में घुसपैठ को गैरिसन हिल पर रोका गया और यह जगह संघर्ष का गवाह बनी. इसी हिल पर ये स्मारक बनाया गया है.

नेताजी की भी यादें जुड़ी हैं कोहिमा से -नेताजी की आजाद हिंद फौज ने भारत की ओर कूच करते समय अपना निशाना इम्फाल व कोहिमा को बनाया. लेकिन यहां पर उन्हें अंग्रेजों से जमकर लोहा लेना पड़ गया. अंग्रेज बहुत शक्तिशाली पड़ गये- तकनीकी से भी और सैनिकों की संख्या में भी.

इम्फाल और कोहिमा से आजाद हिंद फौज को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. जब यहां पर आजाद हिंद फौज की सेना अपने कदम पीछे खींचने लगी तो जापान की सेना ने नेताजी को भगाने का इंतजाम किया था. लेकिन नेताजी आसानी से पीछे हटने वाले नहीं थे.वे झांसी की रानी रेजीमेंट के साथ आगे बढ़ते रहे. इसी बीच दूसरे विश्वयुद्ध में जापान की करारी हार हो गई. जिसके कारण अब जापान का सहयोग मिलना मुश्किल हो गया था.

7 जुलाई 1944 को नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने अपने रेडियो से गांधीजी को संबोधित करते हुए उनका आशीर्वाद मांगा और गांधी जी को पहली बार सार्वजनिक तौर पर राष्ट्रपिता कहा.

विद्युत प्रकाश मौर्य दिल्ली हिंदुस्तान से जुड़े पत्रकार हैं. दाना पानी नाम से अपना ब्लॉग भी है उनका

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