यूपी चुनाव की तैयारियों में तमाम दल लग चुके हैं. सबकी नजर बड़े दलों पर है लेकिन छोटे दल भी करामात दिखा सकते हैं बशर्ते वे कुछ छोटी गलतियां न कर बैठें.peace.party

काशिफ यूनुस

उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर जहाँ बड़े दल अपनी राजनीतिक पारी बड़ी सावधानी से खेल रहे हैं वहीँ छोटे दल भी  फूक- फूक कर क़दम रख रहे हैं क्योंकि छोटे दलों के द्वारा की जाने वाली छोटी से ग़लती भी उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है.

 

पूर्व में नेशनल लोकतान्त्रिक पार्टी, मुस्लिम मजलिस जैसे दल अपनी राजनितिक ग़लतियों के कारण अपना वजूद ख़त्म कर चुकी हैं।

 

अगर सपा, बसपा, कांग्रेस और भाजपा को अलग कर दें तो बाक़ी सभी दलों को उत्तर प्रदेश के राजनैतिक परिदृश्य में छोटे दलों की तरह देखा जा सकता है।  हालांकि राष्ट्रीय लोक दल की एक ज़माने में बड़ी राजनैतीक हैसियत रही है लेकिन वर्तमान परिदृश्य में आर. एल. डी. के घटते राजनितिक रसूख को देखते हुए इस लेख में मैं लोक दल को छोटे दल के रूप में ही ले रहा हूँ।

लोक दल

लोक दल अपना राजनितिक पत्ता खोलने में ज़रूरत से ज़्यादा ही देरी कर रहा है।  आम जनमानस ऐसा करने वाले राजनितिक दलों को लालची, मतलबपरस्त और सिद्धान्तविहीन दल की तरह देखता है।  ऐसे दल चुनाव के आखिरी दिन तक दूसरे दलों से सौदाबाज़ी करते रहते हैं। उनके लिये राजनीति एक मंडी की तरह है, दल एक दुकान की तरह और चुनाव एक मेला की तरह.और इस मेले में वे अपनी दुकान का सामान मोल भाव करके मंहगे से मंहगे दाम में बेचना चाहते हैं।  ऐसा करने वाले दल आम जनता में अपनी पैठ खोते जाते हैं और फिर धीरे धीरे अपना अस्तित्व भी खो देते हैं। उत्तर प्रदेश की राजनीती में लोक दल और बिहार की राजनीति में लोक जनशक्ति पार्टी को ऐसे ही दल के रूप में देखा जाता है।

लोक दल कभी भाजपा तो कभी कांग्रेस तो कभी नितीश कुमार के जद (यु) से बात करता है लेकिन लालच इतना के फैसला कोई नहीं, बल्कि सारा समय मोल भाव में जा रहा है और चुनाव सर पर आ खड़ा हुआ है। वोटर और कार्यकर्ता बुरी तरह कंफ्यूज्ड है कि न जाने नेता जी कब क्या फैसला ले लें।  कार्यकर्ता पूरी तरह दिशाविहीन हैं , पता ही नहीं चलता कि आलोचना नरेंद्र मोदी की करनी है या राहुल गाँधी की। अगर लोक दाल को सपा या बसपा का सहारा नहीं मिलता है तो कांग्रेस या भाजपा के साथ मिलकर लोकदल कोई ख़ास अच्छा प्रदर्शन करने की हालत में नहीं है।  गठबंधन तये करने में जितनी देरी होगी , चुनाव में प्रदर्शन उतना ही ज़्यादा ख़राब हो सकता है।  बहुत देर से होने वाले गठबंधन  में राजनितिक दल अपना वोट  न तो गठबंधन के दूसरे दलों को ट्रांसफर करा पाते हैं और न ही उनका वोट खुद को ट्रांसफर करा पाते हैं।  ऐसे में गठबंधन का कोई मायने नहीं रह जाता है और दल की छवि अलग ख़राब होती है।  लोक दल के सामने भी यही खतरा बना हुआ है लेकिन इसके केंद्रीय नेतृत्व की आँखों पर लालच की ऐसी पट्टी बंधी है कि राजनितिक हालात इन्हें दिख ही नहीं रहे।

पीस पार्टी

पीस पार्टी एक अलग तरह की पार्टी है।  इसका केंद्रीय नेतृत्व लखनऊ और दिल्ली के राजनितिक गलियारे से बहुत दूर रहता है।  एक तरफ जहाँ केंद्रीय नेतृत्व के अंदर राजनीतिक परिपक्वता की कमी है तो दूसरी तरफ अस्पताल और कारोबार चलाने का झंझट पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अय्यूब को न सिर्फ लखनऊ से दूर रखता है बल्कि 8-10 साल राजनीती में बीत जाने के बावजूद उनके अंदर राजनितिक समझ की कमी स्पष्ट दिखती है।। वहीँ उत्तर प्रदेश में मीम (ओवैसी की पार्टी) के आ जाने के बाद पीस पार्टी का बेसिक वोट बैंक भी बुरी तरह खिसक गया है।

 

ऐसे में पार्टी को एग्रेसिव पोलिटिकल कैंपेन और मीडिया कैंपेन की ज़रूरत है लेकिन पार्टी हर जगह पिछड़ती दिखाई दे रही है। अगर पीस पार्टी 2017 के चुनाव में उत्तर प्रदेश विधनसभा के अंदर नहीं पहुँच पायी तो पार्टी के अस्तितिव को खतरा हो सकता है।

 

भारतीय समाज पार्टी

ओम प्रकाश राजभर की भारतीय समाज पार्टी को अगर भाजपा का वोटबैंक सही से ट्रांसफर हो पाता है तो पार्टी कई सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है। लेकिन भाजपा और भारतीय समाज पार्टी के कार्यकर्ताओं की विचारधारा और सोच अलग होने के कारण वोट बूथ के स्तर पर कितना ट्रांसफर हो पायेगा ये कहना अभी मुश्किल है।

महान दल

महान दल और पीस पार्टी गठबंधन में तो हैं लेकिन ना ही महान दल का वोट बैंक पीस पार्टी को ट्रांसफर होता हुआ दिख रहा है और ना ही पीस पार्टी का वोट बैंक महान दल को ट्रांसफर होता हुआ, ऐसे में महान दल का एक भी सीट निकाल पाना मुश्किल ही दिख रहा है।

लोक दल, पीस पार्टी, भारतीय समाज पार्टी और महान दल जैसे छोटे दलों के लिए ये चुनाव अपने राजनितिक अस्तित्व को बचाये रखने के ऐतबार से काफी महत्वपूर्ण साबित होने वाला है, ऐसे में एक छोटी सी ग़लती भी इन दलों को काफी मंहगी पड़ सकती है।

 

By Editor