-विकास धूत-

कहना न होगा कि पिछले एक दशक में सरकार के काम करने के तरीके में आये बदलाव से काफी साकारात्मक चीजें सामने आई हैं और काम की संस्कृति के मामले में राजनीतिक नेतृत्व जागृत हुआ है लेकिन अभी तक नौकरशाही अपने पुराने ढ़रर्रे पर है और बिल्कुल लकवाग्रस्त है.

हाल के दिनों में देश की अर्थव्यवस्था में नई जान फूकने की कोशिश हुई, मंत्रिमंडल को नये सिरे से गठित किया गया, रिज़र्व बैंक ने भी कमर कस ली लेकिन अब जो सबसे महत्वपूर्ण काम बचा है वह है नौकरशाही के चेहरे को सुधार देना क्योंकि आज भी यह फाइलों को दबाये रखने की अपनी पुरानी आदतों से बाज नहीं आयी है.

परियोजनायें इसलिए पूरी नहीं हो पा रही हैं क्योंकि अधिकारी खुद को परिणाम पर केंद्रित करने के बजाये कदम पीछे रखने में यकीन रखते हैं. निजी क्षेत्र की कम्पनी रिलायंस इंडस्ट्रीज ने भी पिछले दिनों यह बात कही थी कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में कोई सुधार नहीं हुआ है जिसके कारण कारोबार पर नाकारात्मक प्रभाव पड़ता है.

पूर्व दूरसंचार मंत्री ए राजा और कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के जेल जाने के बाद से अधिकारी जरूरत से ज्यादा सावधानी बरतने लगे हैं. हालांकि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अप्रैल में सिविल सवर्सि दिवस पर अधिकारियों से कहा था कि अपने निर्णयों में पारदर्शिता रखें लेकिन ठीक उसी समय जब अच्छे काम काम करने वाले अधिकारियों, जैसे भारत भूषण और अशोक खेमका का तबादला हो जाता है तो असुरक्षा की भावना बढ़ती है.

अपनी पहचान जाहिर न करने की शर्त पर अतिरिक्त सचिव स्तर के एक अधिकारी कहते हैं कि अच्छे काम करने वाले और ईमानदार प्रकृति के अधिकारियों के तबादले से अन्य ईमानदार अधिकारियों का मनोबल भी तूटता है.

आज की स्थिति में तो अधिकारियों के अंदर यह भाव भर गया है कि आप कुछ करें ही नहीं तब ही आपकी सलामती है.

कुछ न करने की संस्कृति

इसका नतीजा यह है कि काम न करने संस्कृति का विकास होता है. अब तो हालत यह हो गई है कि प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों द्वारा भी अगर किसी काम को समय पर और समुचित तरीके से जल्द से जल्द निपटाने की बात भी होती है तो दूसरे मंत्रालय के अधिकारी इसे गंभीरता से नहीं लेते. कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं-

1. तमाम प्रयासों के बावजूद थर्मल पावर और कोल इंडिया के बीच प्रस्तावित समझौते पर अभी तक दस्तखत नहीं हुए जबकि 31 मार्च की समय सीमा कब की खत्म हो गई.
2. स्पेशल इकॉनोमिक ज़ोन के मुद्दे पर वाणिज्य और वित्तमंत्रालय के बीच 2012 के मध्य तक सारे गतिरोध दूर कर लिये जाने थे. पर दोनों मंत्रालयों के बीच आपसी विवाद के कारण अब तक यह मुद्दा लटका पड़ा है.

3. पिछले कुछ महीनों में निर्यात घटने के बाद कुछ नई पालिसियां बना ली जानी चाहिए थी, जिसकी घोषणा जून महीने में ही की जा चुकी थी, पर अभी तक ये पालिसी घोषित भी नहीं की जा सकी है.

इन सब बातों के मद्देनजर कंफेड्रेशन ऑफ इंडियन इंडस्ट्री के अध्यक्ष आदि गोदरेज कहते हैं, निर्ण लेने की प्रक्रिया काफी धीमी है वहीं पीएमओ के प्रधान सचिव पोलक चटर्जी यह स्वीकार करते हैं कि विभिन्न मंत्रालयों के नौकरशाहों के बीच आपसी विवाद उतना ही नुकसानदेह है जितना की भ्रष्टाचार. चटर्जी तो यहां तक कहते हैं, हालिया दिनों के घटनाक्रम ने हमें इतना डरा दिया है कि हम नये आइडिया को आगे बढ़ाने में भी डरने लगे हैं.

नौकरशाही तंत्र में फैले इस एहसास पर बातचीत करते हुए पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमणियम कहते हैं, “तमाम सचिवों के मन में अब यह बात बैठ गई है कि अगर आप किसी नये आइडिया ले कर आगे आयें या कुछ करने का जज्बा दिखायें तो आप को जल्द ही शंट कर दिया जायेगा”.

ऐसे में नौकरशाहों में यह बात घर कर गई है कि आप फाइलों पर नोटिंग देते रहिए पर निर्णय लेने में पहलकदमी मत करिए.

प्रशासनिक सुधार

हाल ही में मंजूर की गई 12 वीं पंचवर्षीय योजना में विकास के तीन नुक्ते दिखाये गये हैं और इसमें पांच प्रतिशत विकास की बात कही गई है.यह एक बड़ी चुनौती है. हालांकि हम इस लक्ष्य को पूरा कर सकते हैं पर इसके लिए यह अनिवार्य शर्त इस आयोग की सिफारिशों में 15 महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की गई है. हालांकि सरकार ने इन 15 में से 12 सिफारिशों को स्वीकृति तो देदी है पर अभी तक इसमें से मात्र 10 प्रतिशत सिफारिशों पर ही अमल किया जा सका है.

फिक्की के अध्यक्ष इस मुद्दे पर बात करते हुए कहते हैं जब तक नितिगत स्तर पर प्रशासनिक सुधार नहीं किया जाता तब तक अपेक्षित परिणाम की उम्मीद करना बे मानी है.

(इकॉनोमिक टाइम्स)

By Editor


Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (0) in /home/naukarshahi/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427