दो निर्दोष लोगों को आर्म्स एक्ट के झूटे मामले में फंसा कर दो महीने तक जेल में रखने वाले पुलिस अधिकारियों की जान अब सांसत में है.बिहार राज्य मानवाधिकार आयोग ने वर्दी की दहशत फैलाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का निर्देश दिया है.

साथ ही आयोग ने निर्दोषों को तीस-तीस हजार रुपये का मुआवजा देने का निर्देष दिया है और यह भी सुनिश्चित करने को कहा है कि दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ विभागीय कार्रवाई को कोई प्रभावित न कर सके.

बिहार के सुपौल के पिपर थाना के रहने वाले मोहन मंडल और रवींद्र राम ने राज्य मानवाधिकार आयोग से शिकायत की कि उन्हें आर्म्स एक्ट के झूठे मामले में फंसाकर जेल में बंद रखा गया. जबकि सुपौल के एसपी की जांच रिपोर्ट में पाया गया कि जेल भेजे गए दोनों लोग बेकसूर हैं.

इस मामले में पीपरा थाना में तैनात तत्कालीन एसआइ सह थानाध्यक्ष आरती कुमारी जायसवाल, शंभू कुमार एवं एएसआइ ब्रज किशोर सिंह को दोषी पाया गया है.

राज्य मानवाधिकार आयोग की पहल के बाद तीनों दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ भ्रष्टाचार निरोध अधिनियम के तहत पीपरा थाना में प्राथमिकी दर्ज की गई है. इनके खिलाफ विभागीय कार्यवाही भी चल रही है और तीनों का तबादला कर दिया गया है.

लगभग दो महीने तक बिना किसी जुर्म के जेल की सलाखों में बंद रहने वाले मोहन और रवींद्र जब अपनी आपबीती सुनाते हैं तो वर्दी की एक भयावह तस्वीर सामने आती है. वह बताते हैं कि उनके साथ पुलिस का रवैया एक तानाशाह की तरह था. उन्हें कोई तर्क, कोई प्रमाण स्वीकार नहीं थे. बस पुलिस अधिकारियों ने तय कर लिया था कि जेल में डालना है. जबकि उनका रिकार्ड भी आपराधिक नहीं था.

मानवाधिकार आयोग के सदस्य एवं राज्य के पूर्व डीजीपी नीलमणि खुद इस मामले को मॉनिटर कर रहे हैं. नीलमणि का कहना है कि उन्होंने डीजीपी से कहा कि पुलिस प्रशासन यह सुनिश्चित करे कि दोषी पुलिसकर्मी जांच की प्रक्रिया को प्रभावित न करें.

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