एम.जे अकबर——
अरविंद केजरीवाल किचेन की गरमी बरदाश्त नहीं कर सके और बाहर निकल गये. आत्मरक्षा के तौर पर भले ही इसे उचित ठहराया जाये, लेकिन यह जरूरी नहीं कि ग्राहक के लिए जो सुविधानुकूल हो वह रसोइया के लिए भी हो. खुद जब आपने भोजन बनाने की जिम्मेवारी ली है, तो एक भूखे मतदाता को आपका गरमी लगना एक बहाने की तरह लगता है.kejriwalpic

सभी किचेन गरम होते हैं. भोजन को पकाने के लिए आग की जरूरत पड़ती है. जिस व्यक्ति को यह तथ्य समझ में आना चाहिए, वह केजरीवाल हैं. उन्होंने इस ताप को इतना सुलगाया कि शीला दीक्षित कैंप वाली कांग्रेसी किचेन पूरी तरह से जल उठी, लेकिन शीला दीक्षित के लिए ताप के इस स्तर तक पहुंचने में 15 साल का वक्त लग गया. परंतु इसी ताप से केजरीवाल मात्र 49 दिनों में झुलसा हुआ महसूस करने लगे.

किचेन के भी कुछ नियमकायदे होते हैं. भारतीय राजनीतिक आहार को संविधान द्वारा नियंत्रित किया जाता है. सभी उन प्रावधानों को पसंद नहीं करते, उनमें से कुछ तो अपारदर्शी और कुछ हठी कहे जा सकते हैं. लेकिन जब तक वे वहां होते हैं, हमें उनके साथ जीना पड़ता है. आप कानून को हमेशा संशोधित कर सकते हैं, लेकिन इसके लिए आपको इसकी पूरी प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है. चूंकि यह आपके अभियान में रोड़े अटका रहा है, इसलिए आप कानूनी प्रक्रिया से भाग नहीं सकते.
कुछ सुपरस्टार रसोइयों का अंदाज निराला होता है और लोग उनकी इस अदा को एक कला के तौर पर समझते हैं. लेकिन ड्रामेबाजी भोजन का विकल्प नहीं हो सकती. अराजकता कला नहीं है. इसे कला विहीन होना कहा जा सकता है.

नाटक का दूसरा भाग

‘इंडियन एक्सप्रेस’ की हेडलाइन केजरीवाल के इस्तीफे के बारे में सबकुछ बयां करती है – ‘उनके नाटक का पहला हिस्सा खत्म हो गया और दूसरे हिस्से का परदा उठ चुका है.’ आम तौर पर नाटक के दूसरे भाग को देखने पर दर्शक यह समझ जाते हैं कि वे कॉमेडी देख रहे हैं या ट्रेजडी, लेकिन इस नाटक को समझने के लिए हमें अभी और कुछ दृश्यों को देखना होगा.
केजरीवाल ने हाल ही में कहा था कि आगामी लोकसभा चुनाव लड़ने की उनकी कोई इच्छा नहीं है. अब स्पष्ट हो चुका है कि राष्ट्रीय परिदृश्य में जगह बनाने के मकसद से एक मंच तैयार करने के लिए ही वे दिल्ली में अस्थायी सरकार बनाना चाहते थे.

जन लोकपाल बिल तो इसके बहाने एक कारण के तौर पर तब्दील हो गया. कमोबेश, इस नाटकीय इस्तीफे को शीघ्रता से अंजाम नहीं दिया गया था, क्योंकि अगले ही पखवाड़े आम चुनावों के कार्यक्रम की घोषणा की जायेगी.

केजरीवाल की सर्वकालिक दुविधा

केजरीवाल की एक सर्वकालिक दुविधा यह है कि वे स्टेज पर स्टार बनना चाहते हैं और उसी समय आंदोलनकारी दर्शक की भूमिका में भी होते हैं. एक साथ इस दोहरी भूमिका के चलते उनके व्यक्तित्व और उनकी राजनीति के इर्द-गिर्द एक प्रकार की दोहरी मानसिकता सृजित हो रही है. केजरीवाल को दिल्ली में इसलिए सफलता मिल पायी, क्योंकि वे मतदाता को यह समझा पाये कि आम आदमी पार्टी का अपने दम पर सत्ता में आना संभव है. दिल्ली का फलक छोटा है. लोकसभा में यहां से केवल सात प्रतिनिधि हैं.

हालांकि, यह अलग पहलू है कि राष्ट्रीय स्तर पर मतदाताओं को यह समझा पायेंगे कि वे 272 सीटें हासिल कर सकते हैं. जबकि वे खुद इस पर विश्वास नहीं कर सकते. शायद, इसीलिए आम चुनाव प्रचार में वे खुद को समीकरण बिगाड़ने के तौर पर देख सकते हैं, जिसकी एकमात्र जिम्मेवारी संसद में दूसरों को ईमानदार बनाये रखना है. शुरुआती परिस्थितियों में इसकी अपनी विशेषताएं हैं. लेकिन यह कोई ऐसा मुद्दा नहीं, जिससे मौजूदा आम चुनाव का भाग्य निर्धारित होगा. मतदाता एक मजबूत सरकार चाहते हैं, न कि भ्रम की स्थिति. छोटी पार्टियों के लिए यह साल अच्छा नहीं होगा, खास कर जो अपने दम पर ताल ठोंक रहे हैं. महज कुछ ही मतदाता ऐसा प्रधानमंत्री चाहते होंगे जो राजनीतिक कुटिलता के साथ उदारता बरते.

इस वर्ष हमारा देश आर्थिक त्रसदी की चपेट में है. विज्ञापनों के माध्यम से दर्शायी गयी सांख्यिकी उतनी महत्ता नहीं रखती, जितनी कि इन विज्ञापनों को यूपीए ने जारी किया है और डीएवीपी चमकते होर्डिग्स के माध्यम से इन्हें प्रदर्शित कर रहा है (इन सभी का भुगतान आपकी ही रकम से किया जाता है और टैक्स के तौर पर आपसे ही वसूल किये जायेंगे). पिछले 10 वर्षो के दौरान नौकरी के अवसरों में महज दो फीसदी की दर से बढ़ोतरी हुई है और इस तरह की चीजें फ्रंट पेज पर एक ही दिन दिखती हैं, दूसरे दिन गायब रहती हैं. युवाओं के लिए आर्थिक त्रसदी कहे जाने का यही मतलब है.

भ्रष्टाचार का मु्द्दा

ये ऐसी समस्याएं हैं, जिनके समाधान की सख्त जरूरत है. वाकई में भ्रष्टाचार एक मुद्दा है और अत्यधिक महत्वपूर्ण भी है; लेकिन बहुत से ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जो भ्रष्टाचार के आरोपी नहीं हो सकते. मतदाता एक ऐसी संघीय सरकार का गठन चाहते हैं, जो अर्थव्यवस्था में तेजी ला सके. संभवत: केजरीवाल के लिए अब ज्यादा देर हो चुकी है कि वे मतदाता को समझा सकें कि उनके टेबल पर ज्यादा खाना है.
यदि आप सोचते हैं कि दिल्ली जैसे छोटे राज्य का किचेन गरम था, तो फिर केंद्र सरकार का तापमान जांच लीजिये. यहां तो आपको लगातार पसीने निकलेंगे. इतिहास में दिग्गजों की भरमार है, जो राष्ट्रीय फलक पर छाये और धीरे-धीरे गायब हो गये.

By Editor