खबर है कि मोदी सरकार ने प्रशासनिक सेवा में कॉरपोरेट जगत के अनुभवी लोगों को जगह देने की योजना पर अमल करना शुरू कर दिया है. शुरुआत में दस लोगों को सचिव स्तर पर नियुक्त करने के लिए आवेदन मंगवाये गये हैं. हालांकि यह कोई बहुत नया विचार नहीं है.

 

PUSHYA MITRA

पिछले यूपीए सरकार में भी इंफोसिस के नंदन नीलेकणी को यूआईडी प्रोजेक्ट की कमान दी गयी थी. सोनिया गांधी के नेतृत्व में एक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन हुआ था, जिसमें एनजीओ और सोशल-डेवलपमेंटल फील्ड के बड़े दिग्गज थे, वे सरकार को सलाह दिया करते थे. उनकी सलाह पर कई कानून बने.

चार साल पहले पंचायतनामा में काम करते हुए मैंने देखा था कि झारखंड के सचिवालय के कई कमरों में मैनेजमेंट के एक्सपर्ट बैठे मिलते थे, जो यूनिसेफ, लाइवलीहुड मिशन और दूसरी संस्थाओं से जुड़े होते थे और सरकारी व्यवस्था के साथ मिलकर काम करते थे. अब तो बिहार में जिला स्तर पर दफ्तरों में सोशल सेक्टर के एक्सपर्ट बैठते हैं और अधिकारियों के साथ मिलकर विकासात्मक योजनाओं को लागू कराते हैं. प्रखंडों और पंचायतों तक के काम में इनका हस्तक्षेप रहता है. यह इसलिए है कि सरकार ने मान लिया है कि बाबुओं का उनका पुराना ढांचा बेकार हो चुका है. इनके भरोसे कोई ढंग का काम नहीं हो सकता. इसलिए हर विभाग में पच्चर की तरह किसी ने किसी मैनेजमेंट एक्सपर्ट या सोशल एक्सपर्ट को जोड़ दिया जा रहा है.

 

शिक्षा विभाग में सर्वशिक्षा अभियान, स्वास्थ्य विभाग में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, स्वच्छता मिशन, आजीविका मिशन जैसे दर्जनों मिशन हैं जो बस कहने को सरकारी संस्थान हैं, मगर इनका संचालन किसी एनजीओ के ढर्रे पर होता है. नियुक्तियां भी उसी तर्ज पर होती हैं. सरकारी योजनाओं को लागू कराने की जिम्मेदारी इन्हीं की होती है. बिहार में तो आपदा विभाग के भी मिशन हैं. गौर से देखिये तो हर विभाग में एक पैरलल किस्म का ढांचा खड़ा हो गया है, जो सरकारी नहीं है. उनमें सचिवों, आइएएस अफसरों, राज्य सेवा अधिकारियों का बहुत मामूली किस्म का हस्तक्षेप रहता है. वे बस सिग्नेटरी होते हैं.

अब सिग्नेटरी भर रह गये हैं नौकरशाह

 

हां, सचिव आईएएस ही बनता है. वह कोई मैनेजमेंट और डेवलपमेंट सेक्टर वाला नहीं बनता है. अब तक यही होता आया है. यह पहली बार हो रहा है कि कॉरपोरेट शैली में काम करने वालों के लिए सचिव बनने का रास्ता खोल दिया गया है. कल आईएएस और राज्य सिविल सेवा के पदों को कम कर वहां भी ऐसे लोगों को एंट्री मिले. सैद्धांतिक रूप से यह गलत नहीं है, क्योंकि हमारा सचिवालय का सिस्टम इस कदर जंग खा चुका है कि वहां बैठे बाबुओं और किरानियों में इतनी क्षमता नहीं है कि समयबद्ध तरीके से किसी बड़े काम या प्रोजेक्ट को अंजाम दे सकें. मैनेजमेंट वालों को सिखाया ही यही जाता है कि हर हाल में समय पर रिजल्ट देना है.

मगर यह सवाल मौजू है कि सचिवालय या भारतीय प्रशासनिक सेवा का हमारा सिस्टम क्यों सड़ गया और क्या मैनेजमेंट वाला सिस्टम फुल प्रूफ है? और यह भी कि क्या भारतीय प्रशासनिक सेवा का ढांचा अब दुरुस्त नहीं हो सकता और कॉरपोरेट से आने वाले अधिकारी भारतीय लोकतंत्र के प्रति अधिक जिम्मेदार होंगे या उन कॉरपोरेट के प्रति जहां से वे आ रहे हैं. क्योंकि आज की तारीख में उच्च पदों पर काम करने वाले लोगों के लिए कॉरपोरेट अधिक लाभ की जगह है. कई आईएएस अधिकारियों को जॉब छोड़कर मल्टीनेशनल कंपनियों को ज्वाइन करते देखा है, खास तौर पर उन्हें जिन्हें भ्रष्टाचार का चस्का नहीं लगा है. क्योंकि सैलरी के पैकेज वहां कई गुणा बेहतर हैं. इसे समझने के लिए एक कहानी को जानना जरूरी है.

नाथवाणी की कहानी

यह कहानी परिमल नाथवाणी की है. वे झारखंड से राज्यसभा सांसद हैं. सांसद के रूप में यह उनका दूसरा टर्म है. हालांकि वे मुंबई के रहने वाले हैं, मगर पैसों के दम पर झारखंड के उच्च सदन में जाते रहे हैं. असल में वे रिलायंस ग्रुप के बड़े अधिकारी हैं और धीरूभाई अंबानी के करीबी रहे हैं. अब समझिये कि नाथवाणी जैसे व्यक्ति के पैसों के दम पर राज्य सभा पहुंच जाने का मतलब क्या है? मतलब है उच्च सदन में रिलायंस ग्रुप के हितों के एक चिंतक का मौजूद होना. नाथवाणी सांसद के रूप में तमाम दूसरे सांसदों के करीब भी रहते होंगे और उन्हें आसानी से प्रभावित भी करते होंगे, इसमें संदेह नहीं होना चाहिए.

अब सोचिये कि अगर कोई परिमल नाथवाणी टाइप का अधिकारी भारत सरकार का वित्त सचिव बन जाये तो इसके क्या खतरे हो सकते हैं. उपलब्धियों और कार्यक्षमता के हिसाब से ऐसे व्यक्ति का इस पद पर चयनित होना बहुत सामान्य बात होगी. मगर नाथवाणी की निष्ठा हमेशा रिलायंस ग्रुप के प्रति ही होगी.

दूसरी बात, अगर भारतीय प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह ठप है तो अशोक खेमका जैसे अधिकारी से यह तंत्र लाभ क्यों नहीं लेता. काबिलियत और इमानदारी में अशोक खेमका में कोई कमी नहीं. मगर सरकार उन्हें सचिवालय में जगह देना तो दूर एक पद पर छह माह ठहरने तक नहीं देती. वजह क्या है. वजह है कि सरकार को कॉबिल अफसर नहीं चाहिए. अगर चाहिए होती तो वह ऐसे अफसरों को तलाशती. क्योंकि ऐसे लोग दर्जनों की संख्या में इस तंत्र की वजह से तबादला और डंपिंग का दंश झेल रहे हैं. सरकार को यस मैन चाहिए. जो काम भी करे और जैसा सरकार चाहे वैसा करे. उसे रघुराम राजन नहीं चाहिए, उसे परिमल नाथवाणी चाहिए, जिसकी निष्ठा प्रमाणित है. भले उससे बेइमानी ही क्यों न करा ली जाये, वह चुपचाप करेगा.

 

प्राइवेट सेक्टर की यह बड़ी खासियत है, यहां हमलोग बिना चू-चपड़ किये अपनी कंपनियों के पक्ष में आपराधिक कृत्य करते रहते हैं और इसी को अपनी ड्यूटी समझते हैं. जैसे मीडिया में काम करने वालों को मालूम है कि रोज न्यूज रूम में खबरें किस तरह कत्ल होती हैं. मगर वह चुपचाप अपनी ड्यूटी करता है और भजन-कीर्तन की रचना करता है. कमोबेस ऐसी स्थिति हर कॉरपोरेट सेक्टर में है. यहां वही काबिल और सफल है, जो चुपचाप अपनी ड्यूटी करे, काम को समय से अंजाम दे. काम सही है, या गलत यह न सोचे. मुझे नहीं लगता कि तमाम कामचोरी और भ्रष्टाचार के बावजूद आज भी सचिवालयों में इस तरह के यस मैंन होंगे. तो कहीं, इस लेटरल एंट्री के पीछे सरकार ऐसे यस मैन तो बहाल नहीं करना चाह रही?

By Editor