सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह मानते हैं कि सीबीआई केंद्र सरकार से जुड़ी है संस्था है इससे यह जाहिर होता है कि यह एक ‘स्वतंत्र’ संस्था नहीं है. हालांकि, यह उम्मीद जरूर की जाती है कि सीबीआई निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ स्वतंत्र काम करे.

जोगिंदर सिंह सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं
जोगिंदर सिंह सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं

फिर भी यह देश में मौजूद कुछ विश्वसनीय संस्थानों में से यह अग्रणी है.

आज के वक्त में सीबीआई के पास जांच के लिए ढेर सारे मामले हैं. इसमें आपराधिक मामलों से लेकर धोखाधड़ी, आय संपत्ति में गड़बड़ी, घपले-घोटाले, केंद्र और राज्य सरकार के कर्मचारियों से संबंधित शिकायतें आदि शामिल हैं. देश में इसे लेकर इतनी विश्वसनीयता तो जरूर है कि हर छोटे-मोटे केस को भी सीबीआई के हवाले करने की बात जब-तब होती रहती है. यह इस संस्था का मजबूत और महत्वपूर्ण पक्ष है.

नहीं है स्वतंत्र

लेकिन जैसा कि मैंने बताया कि यह एक ‘स्वतंत्र’ संस्था नहीं है, इसलिए इसे कार्य-शक्ति, फंडिंग, इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा अन्य सुविधाओं के लिए सरकार पर निर्भर रहना पड़ता है. यही वह ‘लूपहोल’ है, जो इस संस्था को कमजोर बनाता है.बीते कुछ वर्षो में यह धारणा प्रबल होती गई है कि केंद्रीय जांच ब्यूरो, यानी सीबीआई ‘राजनीतिक मामलों’ को छोड़कर हर मामले में निष्पक्ष है. यानी जिन मामलों में मंत्री फंसे हैं, उनमें तो सीबीआई वैसा ही करेगी, जैसा सरकार कहेगी.

ऐसा ही कोलगेट मामले में हुआ है. कोलगेट कांड में सरकार व सीबीआई की तब काफी फजीहत हुई, जब उच्चतम अदालत ने सीबीआई निदेशक के हलफनामे की बातें बेहद परेशान करने वाली बताईं. दरअसल, कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट सीबीआई ने कानून मंत्री, प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों को दिखाई. इस पर उच्चतम अदालत ने माना है कि इससे पूरी जांच-प्रक्रिया की नींव हिल गई. इसमें कोई दो राय नहीं कि यह एक गंभीर मसला है और इस पर संसद में एक विस्तृत बहस होनी चाहिए, ताकि सीबीआई जैसी संस्था की विश्वसनीयता बरकरार रहे और इसकी जांच-प्रक्रिया राजनीतिक रूप से प्रभावित न हों.

सुप्रीम कोर्ट ने तीन मुख्य प्रश्न उठाए हैं- पहला, क्या सीबीआई का मैनुअल इसकी अनुमति देता है कि स्टेटस रिपोर्ट कानून मंत्री के साथ साझा किए जाएं? दूसरा, क्या कानून मंत्री को इस तरह का कोई अधिकार है? तीसरा, क्या रिपोर्ट के मसौदे में बदलाव किए गए?

जहां तक मेरी जानकारी है, ऐसा कोई भी कानून नहीं है. कोई सामान्य स्टेटस रिपोर्ट भी इस तरह साझा नहीं की जाती. लेकिन सीबीआई के प्रतिनिधि मंत्रियों व संबंधित अफसरों से मिलते-जुलते हैं. ऐसे में, कानून मंत्री से सीबीआई निदेशक की मुलाकात गलत नहीं है. पर इस मामले में कानून मंत्री ही ‘स्कैनर’ की भूमिका में नहीं थे, बल्कि कई और अधिकारी भी थे. यह जानना जरूरी है कि एक जांचकर्ता को उस विभाग के अधिकारी या मंत्री से लाइव केस डिस्कस नहीं करना चाहिए, जिस विभाग या मंत्री पर घपले के आरोप हों. और सीबीआई निदेशक ने 26 अप्रैल को दिए अपने हलफनामे में माना कि मांगे जाने पर रिपोर्ट कानून मंत्री, प्रधानमंत्री कार्यालय के अलावा कोयला मंत्रालय के ज्वाइंट सेक्रेटरी को भी दिखाई गई थी. साफ है, कोयला मंत्रालय भी ‘स्कैनर’ की भू्मिका में है.

जब मैं सीबीआई निदेशक था, तब यदि कभी ऊपरी दबाव पड़ता कि जांच-प्रक्रिया धीमी करो, तो मैं कह देता कि मुझे ही हटा दो. एक बार एक मंत्री का मेरे पास फोन आया. उन्होंने कहा कि मैं आपसे केस पर बातचीत करना चाहता हूं. मैं सीधे प्रधानमंत्री के पास पहुंचा और उन्हें बताया. मैंने प्रधानमंत्री को कहा कि अगर उन मंत्री को मुझसे बात करनी है, तो वह मेरे घर आएं, मैं उनके घर नहीं जाऊंगा और वह मेरे घर आते भी हैं, तो वह चाय ही पिएंगे, उनसे केस पर मैं कोई बात नहीं करूंगा. अभिप्राय यह कि एक जिम्मेदार अधिकारी को अपनी ईमानदारी हर वक्त दिखानी पड़ती है. यह कहना कि ‘उन्होंने’ मुझे बुलाया और मैं अपने विनम्र स्वभाव के कारण चला गया एकदम गलत है.

राजनीतिक हस्तक्षेप

मौजूदा प्रकरण देश और व्यवस्था के लिए एक बड़ा सबक है. यह इस बात का प्रमाण है कि सीबीआई राजनीतिक हस्तक्षेप की शिकार संस्था है. जैसा कि इस मामले की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय के खंडपीठ ने कहा कि हमारी पहली प्राथमिकता सीबीआई को राजनीतिक हस्तक्षेप से मुक्त करना है, इस पर पक्ष-विपक्ष, दोनों को गंभीरता से विचार करना होगा. अगर यह संस्था पूरी तरह से स्वतंत्र होगी, तो इसमें इस देश का ही भला ह. इन दिनों एक भ्रष्टाचार मुक्त देश बनाने की मांग जोर पकड़ रही है.

अदर्स वॉयस के तहत हम अन्य मीडिया की खबरें/लेख प्रकाशित करते हैं. यह लेख हमने कुछ एडिट करके हिंदुस्तान से साभार लिया है.

By Editor