हुर्रियत नेता मुसर्रत आलम की रिहाई को लेकर गृह मंत्री जो भी बयान दें, या प्रधनमंत्री मोदी लाख अपने दामन को बचाने की कोशिश करें, लेकिन इस चुप्पी के पीछे भी कैद और ‘रिहाइयों’ का एक लम्बा इतिहास रहा है। मोदी उस अतीत से भी परिचित हैं और ‘रिहाइयों’ के उस किस्से से भी, मीडिया जिससे दामन बचा कर गुजर गया।

मसर्रत आलम
मसर्रत आलम

-तबस्सुम फातिमा

मुसर्रत का अपराध माफी-योग्य नहीं है.  उसे जेल की सलाखों में ही रहना चाहिए. मीडिया और कुछ संगठन का यही विचार है. पर जितनी चर्चा मुसर्रत पर हो रही है ऐसी चर्चा, दंगाइयों, हत्यारों और जनसंहार से जुड़े लोगों पर क्यों नहीं होती.  अतीत के पन्नों से गोधरा के उस दाग़ को देखें जिसके  कई मौसम और बरसातों के गुज़रने के बाद आज भी धुल नहीं सके। तहलका के 2007 में किये गये स्टिंग ऑप्रेशन को मानें तो आराम से कहा जा सकता है कि गोधरा हादसा में किसी षड्यंत्रा का हाथ नहीं था।

 जो सत्य है

द ट्रूथ अबाउट गुजरात 2002 से यह बात सामने आई थी कि भाजपा के 9 कार्यकर्ता जिन्हें हादसे के चश्मदीद गवाह के तौर पर पेश किया गया था, उन्होंने झूठी गवाहियां दी थीं। वे मौक-ए-वारदात पर मौजूद नहीं थे। गोधरा हादसा और उसके बाद होने वाले समझौता एक्सप्रेस या अजमेर में होने वाले आतंकवादी हमलों के पीछे भी मुसलमान नहीं थे। हेमन्त करकरे द्वारा की गई जांच और स्वामी असीमानंद के इकबालिया बयान के बाद भी हकीकतें खुल कर सामने आई थीं, जिन पर लीपा-पोती का काम ही किया गया।  उस हादसे के बाद गुजरात जल उठा। भारतीय इतिहास में विभाजन के बाद यह दूसरी बड़ी त्रासदी थी जब मासूम और बेगुनाह मुसलमानों को चुनचुन कर मारा गया या जलाया गया। सरकारी आंकड़े के तौर पर 298 दरगाहों और 205 मस्जिदों को नष्ट कर दिया गया और 6100 से अध्कि मुसलमान बेघर हो गये। 950 मुसलमानों के मारे जाने की बात स्वीकारी गई। जबकि यह आंकड़ा वास्तविकता में कहीं ज्यादा था।

 

गुजरात नरसंहार के 13 वर्ष बाद विशेष अदालतों द्वारा एक एक करके अपराध्यिों को बरी करना न्याय और नैतिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाने के लिए कापफी हैं। केवल नरोदा पटिया में 97 मुसलमानों की बेरहम हत्या के लिए विशेष अदालत ने सभी 31 दोषियों को उम्र कैद की सजा सुना दी। भाजपा की महिला मंत्री माया कोडनानी को 28 बरस कैद और विश्व हिन्दू परिषद के बाबू बजरंगी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई।

इशरत जहां के हत्यारे
इस घटना के ठीक देा साल बाद इशरत जहां का फर्जी इन्काउंटर सामने आया। यह कहानी गोधरा या गुजरात दंगों से जुड़ी नहीं थी, लेकिन उन साम्प्रदायिक कडि़यों से जरूर जुड़ी थी, जिसने आम मुसलमानों को भी आतंकवादी बताने और डीजी वंजारा जैसे लोगों को मासूम बेगुनाहों के कत्ल का काम सौंप दिया था। जांच एजेंसियों ने इशरत जहां को बेकसूर पाया और विवादास्पद आईपीएस अध्किारी बन्जारा और सहयोगी पीपी पांड्या पर विशेष अदालत में मुकदमा चलने की कार्रवाई आरम्भ हुई। लेकिन इतिहास गवाह है कि हर युग में तानाशाही और सत्ता बल के आगे इंसाफ की पराजय हुई है।

यह पहले से ही मान कर चला जा रहा था कि देश के अच्छे दिन आये तो इंसापफ के बुरे दिन जरूर आयेंगे। इश्रत जहां इंकाउंटर मामले में विशेष अदालत ने पूर्व डीजी पीपी पांडे और बंजारा की जमानत मंजूर कर ली और बाहर निकालते ही दोनों ने देशभक्ति का राग भी छोड़ दिया।
नरोदा पटिया में मोदी की करीबी माया कोडनानी और बाबू बंजारा ने कई हिंसात्मक जुलूसों का प्रतिनिध्त्व किया था और इसके सबूत और चश्मदीद गवाह होते हुए भी आज इन दोनों को जमानत मिल चुकी है। न्याय और न्याय प्रव्रिफया भी उसी के नाम है। न्याय और न्याय पालिकाओं में आस्था रखने के बावजूद यह भी इस देश का सच है कि बड़ा से बड़ा अपराधी भी आराम से सत्ता के जोर पर बाहर निकल आता है और कमजोर बेगुनाहों पर जेल की सलाखें तंग हो जाती हैं। गवाह और सबूतों के बावजूद वन्जारा और कोडनानी जैसों  रिहाई मिल जाती है.

रिहाई दर रिहाई
यह तो रही मुसलमानों की बात, लेकिन गुजरात हत्याकांड और इंकाउंटर्स में जिनकी जमानत और रिहाइयां हुई हैं, उनके साथ भी काले अध्याय की तरह मुसलमानों का नाम जुड़ा हुआ है। मोदी के सत्ता संभालते ही गुजरात में न्याय का रंग फीका हुआ, लेकिन क्या इस फीके रंग से वह दाग और धुल सकेंगे, जो विश्व राजनीति की आंख में भी आज तक चुभ रहे हैं। कुछ दिन पहले एक टीवी चैनल्स से एक पत्राकार ने यही प्रश्न दुहराया था कि एक झटके से गुजरात के दोषियों को जेल से मुक्ति मिल गई तो मीडिया इस मामले पर चुप क्यों है? यह सवाल मेरा भी है। न्याय में आस्था रखने के बावजूद आम आदमी का विश्वास न्याय से उठता क्यों जा रहा है इस पर भी देशभक्ति की दुहाइयां देने वालों को सोचने की जरूरत है।

By Editor