अनिल सुलभ की यह कहानी लोकतंत्र के तीनों स्तंभ- कार्यपालिक, व्यवस्थापिका व न्यायपालिका के साथ चौथे स्तंभ पत्रकारित में पसरे भ्रष्टाचार को नये अंदाज में खंगालती है.

 

उसके सामने एक अखबार था। उसमें छपे किसी चित्र को देखते हुए वह लगातार कुछ बोले जा रहा था। एक बड़े हॉल में, जिसमें 20 से 22 लोग ठहराये जा सकते थे, उस समय वह अकेला ही था। जमीन पर बिछे बिछावन पर, दीवार की तरफ मुँह किए वह पेट के बल लेटा हुआ कुछ अपशब्द ही कहे जा रहा था। मैं कमरे के दरवाजे से उत्सुकतावश धीरे-धीरे उसके नजदीक पहुँचा, उसके ठीक पीछे। अब उसकी बातें साफ सुनी जा सकती थीं। उसके हाथ में पड़ा अखबार भी साफ दिख रहा था। मेरा कौतूहल और भी बढ़ गया। वह चित्र किसी नग्न-स्त्री अथवा अर्द्धनग्न युवती का नहीं था। वह था राज्य के अत्यंत लोकप्रिय मुखिया का । मेरा मन वितृष्णा से भर गया। उसने गालियों की बौछार कर रखी थी। बिहार और उत्तर प्रदेश के आस-पास बोली जानी वाली शायद ही कोई गाली उसने छोड़ी हो!

 

मैं काफी देर से उसके पीछे खड़ा था। पर उसे इसका भान भी नहीं था। उसका भीषण आक्रोश और घृणा पावस की झड़ी की भाँति थमने का नाम नहीं ले रही थी। उसके मुख से गालियाँ पर्वत से गिर रहे किसी झंझा-प्रपात की तरह अखंड झर रही थी।

 

‘‘विजय! यह क्या कर रहे हो?’’ मैंने कड़ी आवाज में उसे टोका। वह हत्प्रभ सा ठहर गया। जैसे किसी ने तेज बह रहे बरसाती नाले के सामने बड़ा पत्थर रख दिया हो। वह रुका। उसकी जिह्वा रुक चुकी थी। पर आँखें! लाल हो रही, आँसुओं से भरी उसकी आँखें अब भी बरस रही थीं। हम दोनों ही एक-दूसरे को अलग-अलग भावों के साथ देखते हुए चुप थे।

 

‘‘चचा प्रेमसागर! क्षमा कीजिएगा, आपको देखा नहीं।’’ उसी ने चुप्पी तोड़ी। एक बार फिर उसने अखबार में छपे उस चित्र को देखा। क्रोध् और घृणा की बाढ़ एक बार फिर बाँध तोड़ कर उमड़ चली।

 

‘‘……ने’’, एक और भद्दी गाली देते हुए उसने कहा ‘‘मेरा जीवन ही बर्बाद कर दिया। मुझे कहीं का नही छोड़ा। मेरी आँखों के सभी सपने इसने छीन लिए …..मुझे जीते जी मृत्यु की ओर ढकेल दिया। चचा! मैं इसे कभी माफ नहीं कर सकता।’’

 

उसने एक गहरी साँस ली। अब वह कुछ संयत हुआ। मैंने उसके सिर पर हाथ रखा। मेरी मूक सहानुभूति ने संभवतः उसे सांत्वना दी हो। किन्तु उसके दुखों को कम करने के लिए यह पर्याप्त नहीं था। मेरे पूछे बगैर ही उसने अपना दुःख फिर से कहना शुरू कर दिया- ‘‘यह जो चित्र आप देख रहे हैं न चचा! यह हमारे प्रदेश का मुखिया है। लोगों की नजर में तो यह बड़ा नेक इंसान और अच्छा शासन चलाने वाला नेता है। पर है अव्वल दर्जे का ….’’। उसने फिर एक भद्दी-सी गाली दी।

 

‘‘विजय! राज्य के मुखिया को इस तरह गाली नहीं देते! … यह ठीक नहीं।’’ मैंने उसे समझाने की चेष्टा की।

 

-‘‘आप नहीं जानते चचा! यह आदमी कितना पाखण्डी है।’’ वह फिर से विफर पड़ा। -‘‘मैं जानता हूँ इसके क्षेत्र का हूँ न! …सब जानता हूँ . कंबल ओढ़कर घी पीने वाला, हर तरह का कुकर्म करने वाला पापी इंसान है यह! वर्षों पूर्व से, पूरे प्रदेश में गली-गली भट्ठियाँ खुलवाकर, ….शराब की नदियाँ बहाकर, उसमें सारे नौजवानों को डुबोकर आज यह नशा-बंदी का मसीहा बना फिरता है। आप ही बताएँ! जो नौजवान, या कोई भी नशे की लत पकड़ ले …..वह एक ही दिन में छोड़ देगा?’’

 

सब जानता हूँ . कंबल ओढ़कर घी पीने वाला, हर तरह का कुकर्म करने वाला पापी इंसान है यह! वर्षों पूर्व से, पूरे प्रदेश में गली-गली भट्ठियाँ खुलवाकर, ….शराब की नदियाँ बहाकर, उसमें सारे नौजवानों को डुबोकर आज यह नशा-बंदी का मसीहा बना फिरता है।

 

उसने मुझसे ही प्रश्न कर डाला था। मैं इसका भला क्या उत्तर दे सकता था! मुझे याद आया गालिब का वह मशहूर शेर- ‘‘छूटती नहीं है काफिर यह मुँह की लगी हुई।’’

 

मुझे मौन देखकर, उसके मन की खलबली फिर से बाहर निकलने लगी- ‘चचा! मैं सत्य कहता हूँ’ नशाबंदी का यह कानून, इसने कुछ अच्छा करने की नीयत से नहीं, बल्कि अपने राजनैतिक विरोधियो को दबोचने के लिए, एक आसान हथियार और औजार के रूप में अपनाया है। इसका लाभ समाज को कम, किन्तु इसके भ्रष्ट और रीढ़-हीन अधिकारियों को अधिक हो रहा है, जो बड़ी आसानी से रुपए ऐंठने तथा विरोध करने वालों को सबक सिखाने के लिए जब चाहे, जिसे चाहे, ध्रर-दबोच रहे हैं।’’

 

कुछ देर के लिए वह रुका। मुझे लगा कि उसके मन का भड़ास निकल गया है शायद। अब वह चुप हो जाएगा। किन्तु नहीं। चोट खाए नाग की तरह एक बार फिर वह फुफकारता हुआ विफर पड़ाः

 

‘‘मेरा दोष क्या था? … मुझे शराब रखने के नाम पर पकड़ कर यहाँ भेज दिया, जेल में! जिस व्यक्ति ने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया। गली-गली में, खोल दी गई शराब  की भट्ठियों को बंद कराने के लिए, पूर्ण नशा-बंदी हो, इस लिए धरना-प्रदर्शनों में भाग लिया …..उसे ….अर्थात् मुझे . इसके कारिन्दों ने शराब रखने के अपराध में ही गिरफ्तार किया।’’

 

मुझे शराब रखने के नाम पर पकड़ कर यहाँ भेज दिया, जेल में! जिस व्यक्ति ने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया। गली-गली में, खोल दी गई शराब  की भट्ठियों को बंद कराने के लिए, पूर्ण नशा-बंदी हो, इस लिए धरना-प्रदर्शनों में भाग लिया …..उसे ….अर्थात् मुझे . इसके कारिन्दों ने शराब रखने के अपराध में ही गिरफ्तार किया।’’

 

‘‘किन्तु अखबार में छपी खबरों के अनुसार, तुम्हारे घर से शराब की कई बोतलें बरामद हुई थीं।’’ -मैंने उसे टोकते हुए पूछा।

 

– ‘‘वह खबर किसके कहने पर छपी?’’ उसने मुझसे ही प्रश्न किया। इसका उत्तर भी तो उसी के पास था। उसने कहा- ‘‘यह खबर लिखने वाले संवाददाता ने, अपनी खोज-खबर कर नहीं, बल्कि थानेदार की सूचना पर ही तो लिखी थी। पकड़ने वाला भी वही …बताने वाला भी वही। क्या किसी ने मुझसे पूछा? …सच जानने की कोशिश की? …पर मेरे कहने पर भरोसा भी किसे होता चचा! थाने में – हाजत में था …..और सामने टेबुल पर पड़ी थी, वो बोतलें, जिनका लेबुल भी मैं नहीं देख सकता था ।

 

उसने मेरा हाथ पकड़कर अपने पास खींच लिया। इस उत्तेजना भरे प्रसंग में मैं अबतक खड़ा था और वह सोते से बैठ चुका था। न तो मुझे इसका भान रहा था, न उसे। अंत में उसे ही मेरा लगातार खड़े रहना अच्छा न लगा हो।

 

‘‘सच्ची बात अब बताता हूँ। मेरी गिरफ्तारी की वजह कुछ और नहीं, बल्कि हमारे प्रखंड, जो राज्य के मुखिया का भी प्रखण्ड है, का उनके ही दल का अध्यक्ष सरोज प्रसाद है। एक नम्बर का भ्रष्ट और लम्पट। पैसा और औरत के लिए कुछ भी करने वाला। एक दिन मैंने उसे एक महिला को छेड़ते हुए देखा और रोका, यही मेरे जी का जंजाल हो गया। तभी से हमारे पीछे पड़ा था….. खुद शराब का अवैध् व्यपार करता है। मजाल नहीं कि कोई भी उस की तरफ मुँह भी करे। उसी के इशारे पर ….उसी की शराब की बोतलें मेरे घर में रखवाकर ….पूरे परिवार के साथ मुझे गिरफ्तार कर लिया, यहाँ की भ्रष्ट पुलिस ने!’’

 

इस बार उसने फिर एक गहरी साँस ली। किन्तु इससे भी उसे कोई राहत नहीं मिली थी। मुझे ही साक्षी रखकर उसने आगे कहा।

 

‘‘आपने अगले दिन का अखबार देखा न! ….क्या छपा था? शराब माफिया …..भारी मात्रा में शराब के साथ गिरफ्तार। ….इसमें लिप्त उसके परिवार के सात सदस्य रंगे-हाथ पकड़े गए! …जैसे अखबार वालों ने स्वयं सबकुछ घटित होते हुए देखा हो! यह है आपका अखबार! लोकतंत्रा का चौथा स्तम्भ! पुलिस अधिकारियों का ब्रीफिंग छापने वाला! ….अच्छे-अच्छों को नरक का राजा बना देने वाला!’’ उसने वितृष्णा से मेरी ओर देखा।

 

आपने अगले दिन का अखबार देखा न! ….क्या छपा था? शराब माफिया …..भारी मात्रा में शराब के साथ गिरफ्तार। ….इसमें लिप्त उसके परिवार के सात सदस्य रंगे-हाथ पकड़े गए! …जैसे अखबार वालों ने स्वयं सबकुछ घटित होते हुए देखा हो! यह है आपका अखबार! लोकतंत्रा का चौथा स्तम्भ! पुलिस अधिकारियों का ब्रीफिंग छापने वाला

 

‘‘चचा! आपके देश का लोकतंत्रा इंग्लैंड में गिरवी रखा जा चुका है! क्या विधायिका, क्या कार्यपालिका, क्या न्यायपालिका और यह चौथा स्तम्भ पत्राकारिता! सबमें भ्रष्टाचार का दीमक गहराई तक पहुँच चुका है। किसी भी एक स्तम्भ में लोकतंत्र और सुशासन को अक्षुण्ण रखने की शक्ति शेष नहीं है। हर तरफ अन्याय ही अन्याय है। सत्ता-पोषित डाकुओं और अधिकारियों के सात खून माफ! मुँह खोलने वालों की जिन्दगी बर्बाद!’’

 

उसके भीतर की जुगुप्सा-नदी, बरसाती बाढ की भांति, सभी बाँधें और किनारों को दरकाती बह चली थी। अपने मन की हर एक बात और भावनाओं को व्यक्त करने के बाद ही वह रुकना चाहता था। मैंने भी यह सोचकर कि चलो मन की सभी गाँठें खोल देने से जी हल्का हो जाता है, उसकी सारी बातें सुनने लगा।

 

‘‘दो महीने होने को हैं। इस केन्द्रीय कारा के वार्ड-संख्या पाँच बटा तीन में बंदी हूँ… सभी रिश्तेदार अपने सारे काम छोड़कर हमे इस नरक से निकालने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। निचली अदालतों ने हमारी एक न सुनी। हमारे वकील लाख कहते रहे कि यह नौजवान एक निहायत शरीफ और मेधावी छात्र है। इसने आजतक किसी का बुरा नहीं किया। यह केस झूठा है। चचा! न्यायकर्ता ने भी अन्यायकर्ताओं का ही साथ दिया। मुझे न्याय तो क्या, राहत तक नहीं मिली।’’

लगातार बोलते-बोलते वह अब थक-सा गया था। अबकी बार ली गई गहरी साँस के साथ, हताशा का एक उच्छ्वास भी शामिल था। कुछ देर उदास-सी एक बोझिल चुप्पी के बाद उसने फर अपना मुँह खोला। जीवन के प्रति उदासीनता और हताशा का गहरा भाव था उसमें।

‘‘अब तो न्यायपालिका पर भी भरोसा नहीं रहा। अपने ही वार्ड का गुलशन कह रहा था। रुपए खर्च किए बिना अब जमानत नहीं मिलती। प्रतिहर्ष, जो इसी नशा-बंदी कानून में गिरफ्तार किया गया था, लाखों रुपए दिए तो उसे जमानत मिली। भगवान भरोसे किसी ऐसे ही जज के पास जमानत की अर्जी पहुँच जाए, जो निष्ठावान हो, तभी कोई उम्मीद! वर्ना सेटिंग करो, तभी कुछ मुमकिन है।’’

एक बार फिर उसने मेरी तरफ देखा- ‘‘आप ही बताएँ कौन करेगा ‘सेटिंग’? लाखों रुपए हम कहाँ से लाएँगे? घर के सारे लोग इसी जेल में पड़े हैं। आज रिश्तेदार, किसके कितने काम आते हैं?’’

अंगारे बरसाने वाली उसकी आँखें अब आँसू बरसाने लगी थीं। मेरा मन भी खिन्न हो उठा। उसकी कोई भी मदद मैं कर सकने की स्थिति में नहीं था। मेरी भी स्थिति क्या थी? क्या उससे ही मिलती-जुलती नहीं थी? मैं स्वयं अपने विचारों में खोने लगा था। जैसे मेरे विचारों के तंतु उसके हाथ लग गए थे, वह पिफर बोल उठा- ‘‘चचा! आप अपनी ही देखिए न! क्या आपके जैसे व्यक्ति को जेल में होना चाहिए! इस राज्य का मुखिया नहीं जानता हो शायद, किन्तु राज्य का कौन सा प्रबुद्ध व्यक्ति है, जो आपको नहीं जानता! साहित्य का संसार ही नहीं, समाज, शिक्षा, कला, संगीत! सबको अपनी सेवा देने वाले पीड़ितों की सेवा में अपना सब कुछ न्योछावर करने वाले, गिनती के कुछ लोगों में आपका नाम आता है। हिन्दी और उर्दू साहित्य के लिए आपने जो काम किया है, वैसा कितने करने वाले हैं? स्वतंत्राता से पूर्व स्थापित हिन्दी की गौरवशाली संस्था हिन्दी परिषद को जो बलिदान देकर आपने सत्ता-पोषित गुंडों से बचाया, क्या वह कोई दूसरा कर सकता था? …‘‘चचा! जिस इंसान को समाज अपने दिलों में रखता है, उसे इस सरकार के कारिन्दों ने किस जगह ला पटका है? सरकार के मुखिया को क्या यह नहीं पता है कि इसमें भी उन्हीं गंदे लोगों का हाथ है। प्रशासन का इससे बड़ा दुरुपयोग और क्या हो सकता है?’’

 

उसने अनजाने ही मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। जिस तरह गहरे जख्म को कुरेद देने से पीड़ा फिर घनीभूत हो उठती है, उसी तरह उसने अनजाने ही मेरे घाव की गाँठ खोल दी। वे सारी घटनाएँ चलचित्र की भांति मेरे मन के सामने घूमने लग गईं, जो मेरे जीवन में एक अकल्पित मोड़ ले आयी थीं।

 

उस दिन …हाँ उसी दिन …सहजभाव से कार्यालय में बैठा था। एक मित्र मिलने आए थे, उनसे वार्ता हो रही थी। तभी तोड़-फोड़ की आवाजें और शोर सुनाई दिया। मैं अपने कक्ष से बाहर निकलने को खड़ा हुआ, तभी कुछ कर्मीगण क्षोभ और चिंता के मिले-जुले भाव के साथ मेरे कक्ष में आ गए।

 

‘‘सर! कुछ शरारती तत्वों ने हंगामा खड़ा कर दिया है। वे तोड़-फोड़ कर रहे हैं। वे सभी बहुत आक्रामक हैं। हमने प्रशासनिक भवन को भीतर से बंद कर लिया है और थाना को भी सूचना दे दी है। पुलिस आती होगी। जबतक वह न आए, आप कृपया बाहर नहीं निकलें!’’ उसने विनम्रतापूर्वक मुझे सावधन किया।

 

कभी हमारे परिसर में भी यह स्थिति आएगी, हमने सोचा भी न था। जो व्यक्ति तीन दशकों से अधिक से साहित्य, शिक्षा, कला, संगीत और पीड़ित मानवता की निःस्वार्थ सेवा करता रहा हो, लोग उसके विरुद्ध भी हो सकते हैं? मेरे दग्ध मन में ऐसे अनेक प्रश्न उठने लगे। उधर सभी कर्मीगण इस घटना से हतप्रभ तथा चिंतित थे। तोड़-फोड़ जारी थी। आध घंटा से अधिक हो चुका था, पुलिस अबतक नहीं आयी थी। क्या उसे भी प्रतीक्षा थी कि पूरा परिसर नष्ट कर दिया जाए, उसके बाद ही घटना-स्थल पर पहुँचेंगे …निरीक्षण करने के लिए कि क्या-क्या तोड़ा-फोड़ा और लूटा गया है?

…. जारी

[author image=”http://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2017/05/anil.jpg” ]बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ की यह कहानी उनके शीघ्र प्रकाशित होने वाले कथा- संग्रह ‘प्रियवंदा’ से ली गयी है.डा. सुलभ कथाकार और कवि होने के साथ अनेक सांस्कृतिक व सामाजिक संगठनों से भी जुड़े हैं तथा संस्कृति-पुरुष की लोक उपाधि के रूप में चर्चित हैं. उन्हें राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा दिनकर साहित्य रत्न सम्मान 2012 से भी नवाजा गया है. उनसे anilsulabh6@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है  [/author]

 

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