आदिवासी लोगों के पलायन पर संवाद प्रायः इनके पैतृक भूमि से विस्थापन या बेदखली पर केंद्रित रहा है। लेकिन भारत में एकजुटता एवं असहमति की प्रकट होती राजनीति और पलायन के बीच एक संबंध है।
डा. अरुणा पांडेय
डा. अरुणा पांडेय
ये बातें भारत रूरल लाईवलीहुड फाउंडेशन, नई दिल्ली की शोध पदाधिकारी डॉ. अरुणा पांडेय ने कही। वह पटना के जगजीवन राम संसदीय अध्ययन एवं राजनीतिक शोध संस्थान और टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल सांयसेज द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित व्याख्यान ‘‘दावा, एकजुटता और असहमति: पलायन पर एक राजनीतिक पर्यावरणीय दृष्टिकोण’’ में अपना विचार व्यक्त कर रही थीं।
डॉ. अरुणा पांडेय ने अपनी बात को मणिपुर और ओड़िसा में दो क्षेत्रों की अर्थव्यवस्था पहल पर हुये अध्ययन के सहारे स्पष्ट किया। उन्होंने समुदायों, पूँजी और संसाधनों के जंगल में और जंगल से बाहर की गतिशीलता और इसकी शक्ति संबंधों को रूप देने, संस्थागत नेटवर्क एवं आजीविका में भूमिका का वर्णन किया।
उन्होंने आदिवासी पलायन का वनों और कृषि भूमि पर होने वाले प्रभाव का भी जिक्र किया।
इसके पहले नीरज ने अतिथियों का स्वागत करते हुये विषय पर प्रकाश डाला। कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. अभय कुमार ने की। सवाल-जवाब सत्र में संजय, मिथिलेश, प्रेम प्रकाश, गालिब और खुर्शीद के प्रश्नों का उत्तर डॉ. अरुणा पांडे ने दी।
धन्यवाद ज्ञापन करते हुये टाटा इंस्टीच्यूट ऑफ सोशल सांयसेज के प्रो. पुष्पेन्द्र ने बताया कि यह पलायन व्याख्यान श्रृंखला का आठवां व्याख्यान है। अब तक पलायन के विविध पहलूओं यथा-श्रम प्रक्रियायें, भूमंडलीकरण और उदारीकरण, विभाजन, जेंडर, भूमि और किराएदारी, शहरीकरण, राज्य की नीतियाँ, हिंसा, सामाजिक न्याय और लोक साहित्य पर व्याख्यान आयोजित किये जा चुके हैं।
इस अवसर पर संस्थान के निदेशक श्रीकांत, शिक्षाविद प्रो. विनय कंठ, इन्द्रा रमण उपाध्याय, शेखर, रंजीव, शशिभूषण, सुशील कुमार, प्रभात सरसिज, ममीत प्रकाश सहित कई पत्रकार, शिक्षक एवं साहित्यकार मौजूद थे।

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