दैनिक भासकर में छपा यह लेख पढ़िए जो जीतन राम मांझी एपिसोड के बाद बिहार की आगामी राजनीति की संभावनाओं आकलन करता हैMANJHI.NITISH.LALU

इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन

राजनीती, फिल्म और क्रिकेट भारतीय मानस को खूब प्रभावित करते हैं. लोग इन तीनों से भावनात्मक रूप से जुड़े महसूस करते हैं तो इन से मनोरंजन भी करते हैं. यही कारण है कि क्रिकेट, फिल्म और राजनीति; नुक्कड़ों और चौपालों की बहस के सबसे पसंदीदा मुद्दे हुआ करते हैं. लेकिन पिछले दिनों जीतन राम मांझी को जिस तरह खुद उनके पार्टी नेतृत्व ने उन्हें किनारा करना शुरू किया तो दलितों के एक वर्ग ने इसे मनोरंजन के बजाये अपनी भावनाओं से जोड़ लिया. नतीजा हुआ की जदयू दफ्तर में मौजूद अनेक नेताओ पर हमला बोल दिया गया. कई नेताओं की पिटाई हुई. इस घटना को कुछ लोगों ने आम घटना मान कर भूल जाने की कोशिश की.

पिछड़ों के खिलाफ दलित 

लेकिन यह साधारण घटना कत्तई नहीं थी. यह घटना पिछड़ों के खिलाफ दलित अतिवाद का प्रतीक थी जो बताती है कि आगामी वर्षों में बिहार किधर जा सकता है. इसे समझने के लिए 80-90 के दशक के पिछड़ावाद के उत्थान से जोड़ कर देखने की जरूरत है. जब पिछड़े वर्ग में जातीय चेतना के सहारे सत्ता शीर्ष पर काबिज होने की प्रवृत्ति बढ़ी. पिछड़ी जातियों ने अगड़ों के लिए चुनौती देनी शुरू की. इसके लिए अगड़ा- पिछड़ा संघर्ष हिंसक भी हुआ. जदयू दफ्तर पर दलितों के एक समूह द्वारा किया गया हमला इसी संघर्ष के सामाजिक विस्तार का रूप लगता है. 80-90 के दशक में पिछड़े वर्गों ने दलितों को साथ लेकर अगड़ों से शीर्ष सत्ता छीनी लेकिन दलितों को लगा कि उसका शेयर अनुपातिक रूप में उन्हें नहीं मिला. 1990 से 2014 के 24 वर्षों में पिछड़ों के खिलाफ दलितों में यह चेतना उग्र होती गयी. और जब मई 2014 में नीतीश कुमार द्वारा मांझी को मुख्यमंत्री बना कर महज आठ महीने में सत्ता वापस लेने की कोशिश हुई तो दलितों के एक वर्ग ने अपना हिंसक विरोध दर्ज करा दिया. विरो के इस तरीके ने यह संकेत तो दे ही दिया कि सत्ता के संघर्ष का विस्तार अब अगड़ा बनाम पिछड़ा से आगे निकल कर पिछड़ा बनाम दलित वर्ग की तरफ बढ़ने को है.

अतिपिछड़ोंं की सियासत

इस संघर्ष के बीचोबीच संघर्ष की एक दूसरी महत्वपूर्ण कड़ी भी है.इस कड़ी को भी मीडिया ने बहुत गंभीरता से नहीं लिया. लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों ने बखूबी महसूस किया. यह मौन संघर्ष है; पिछड़ा बनाम अतिपिछड़ा का. उद्योग मंत्री भीम सिंह का नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोलना इसी सत्ता संघर्ष का प्रतीक है. भीम सिंह अतिपिछड़ी जाती से हैं. भीम सिंह ने कहा भी कि ‘नीतीश को सत्ता में लाने वालों में सबसे बड़ी भूमिका अतिपिछड़ों ने अदा की, इसलिए अब बिहार का मुख्यमंत्री अतिपिछड़ा को बनाया जाना चाहिए’. यह याद रखने की बात है कि बिहार में अतिपिछड़ों की आबादी 32 प्रतिशत के करीब मानी जाती है. यानी दलितों के 15 प्रतिशत से लगभग दोगुणी. यह भी गौर करने की बात है कि पंचायत निकायों में अतिपिछड़ों को मिले आरक्षण और नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनवाने में मुख्य भूमिका निभाने के बाद अतिपिछड़ों में सामाजिक गोलबंदी के प्रयास काफी तेज हुए हैं. ऐसे में जीतन राम मांझी की आहट में छिपी भीम सिंह की बगावत की आहट भले ही बेआवाज लगे पर अतिपिछड़ी जातियों की राजनीतिक चेतना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.

मांझी-नीतीश प्रकरण की तात्कालिक परिणति भले ही जो हो पर इन घटनाओं, जिनका जिक्र ऊपर किया गया है, ये निश्चित तौर पर अब तय करेंगी कि बिहार किर जाने वाला है. संभव है कि 2015 के चुनाव में इसकी झांकी मिले, न मिले पर आने वाले वर्षों में बिहार किधर जायेगा, यह तो समझा ही जा सकता है. ऐसे में बिहार के शीर्ष समाजवादी नेताओं को राम मनोहर लोहिया को याद करना चाहिए जिन्होंने ऐसी संभावनाओं को पहले ही भांप लिया था.

दैनिक भास्कर से साभार

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