यहां यह स्पष्ट हो कि कन्हैया किसी व्यक्ति का नाम नहीं है. कन्हैया एक प्रतीक है. प्रतीक तानाशाही के खिलाफ उभरे स्वर का. प्रतीक अधिनायकवादी प्रवृत्ति के खिलाफ उठ खड़े होने का. धर्मांधता और साम्प्रदायिकता के लिबास में लिपटे छद्म राष्ट्रवाद के खिलाफ आवाज लगाने का प्रतीकKanhaiya-Kumar

इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम

यह प्रतीक पहली बार तब सामने आया जब हैदराबाद की सेंट्रल युनिवर्सिटी में रोहित वेमुला को सुसाइड करने पर बेबस किया गया. और यह प्रतीक उछल कर तब और सतह पर आ गया जब मीडियायी षडयंत्र का इस्तेमाल करते हुए जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष और कुछ अन्य छात्र नेताओं के खिलाफ आधारहीन आरोपों की बुनियाद पर देशद्रोह का केस ठोका गया. और यह प्रतीक तब और उबालें मारते हुए देशव्यापी रूप तब अख्तियार कर गया जब लंपट वकीलों के अंधभक्त गिरोह ने जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष को पुलिस की मौन स्वीकृति के दौरान पीट-पीट कर बुरा हाल किया गया. और तब इन षडयंत्रकारियों ने सिर्फ इतना ही नहीं किया कुछ दिनों बाद दिल्ली हाईकोर्ट का अवमानना करते हुए उसे फिर कूटा गया, ठोका गया. इतनी ठुकाई की गयी ( खुद पीटने वाले वकीलों के मुताबिक) छात्र संघ अध्यक्ष के पतलून में पखाना हो गया.

उम्मीद

तो कन्हैया एक प्रतीक है. और जब जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष के रूप में वही कन्हैया विश्व विद्यालय से सत्ता शीर्ष पर बैठे पीएम मोदी को ललकारा तो पूरा देश ही नहीं बाकी दुनिया ने  इस कन्हैया से उम्मीदें बांध लीं. उम्मीदें दलितों ने पालीं. पिछड़ों ने पाली. शोषितों ने पाली. इसलिए कि लाल रंग यानी वामपंथ का प्रतिनिधित्व करने वाले कन्हैया ने जय भीम का नारा लगाया और नीले (दलित) व लाल रंग ( सर्वहरा) की कटोरी को साथ मिल कर चलने की बात की.

सवाल

पर कुछ सवाल है. सवाल है कि कन्हैया जिस वामपंथी विचारों की छतरी के नीचे हैं उसके इतिहास को देखिए. इसके लिए हमें पश्चिम बंगाल के कम्युनिस्ट हुकूमत के दौर को देखने की जरूरत है. यह याद रखते हुए कि सैद्धांतिक रूप से वामपंथी विचार शोषितों की आवाज रहा है. फिर भी पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु की सरकार ने पहला रिकार्ड बनाया, जहां मंत्रिमंडल में तमाम सवर्ण थे. दलितों का नाम निशान न था. जो मुस्लिम थे वो भी सवर्ण ही थे. इसी तरह दोनों प्रमुख वामपंथी पार्टियों- सीपीआईएम व सीपाई की टॉप निर्णायक समिति में दलितों, पिछड़ों व शोषितों की नगण्य संख्या रही है. इन पिछले तीन दशकों में दलितों की सामाजिक आइडेंटिटी अपने चरम पर पहुंच गयी. उन्हें महज सर्वहरा, शोषित के तौर पर देखने की कम्युनिस्ट परिपाटी नहीं बदली. जबकि दलित अपनी सामाजिक पहचान के साथ तेजी से सामने आ चुका है. ऐसे में कन्हिया का जय भीम का नारा लगाना और बाबा साहब भीम राव अम्बेडकर की राजनीतिक विरासत की आवाज में आवाज लगाना, दलितों को सुहा तो गया. पर सवाल यह है कि क्या वामपंथ राजनीति के प्रणेता दलितों को उनकी पहचान का लिहाज करते हुए उनकी नुमाइंदगी को स्वीकार करेंगे?

संशय

रोहित वेमुला मामले से ले कर, कन्हैया, उमर खालिद और दीगर छात्रों के लिए अब तक समाजवादी धर्मनिरपेक्ष शक्तियों ने जिस तरह कांधे से कांधा मिला कर आवाज उठायी है, भविष्य में भी ऐसे हालात रहेंगे क्या. पश्चिम बंगाल से ले कर बिहार और उत्तर प्रदेश तक पिछले दो दशकों में क्षेत्रीय दलों के रूप में नवसमाजवादी राजनीतिक शक्तियों का उदय हुआ है. साथ ही दलित चिंतन पर आधारित नयी सवतंत्र राजनीतिक शक्ति हमारे सामने आ चुकी है. उत्तर प्रदेश हो, बिहार हो या फिर पश्चिम बंगाल ही क्यों न हो, इन तमाम राज्यों में धर्मनिरपेक्ष समाजवादी शक्तियों का उदय बहुत हद तक वामपंथ की कीमत पर ही हुआ है. और इन तीनों राज्यों में ( हालांकि उदाहरण दूसरे राज्य भी हैं) क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियां मजबूत हुई हैं वहां-वहां वामपंथ कमजोर से कमजोरतर होता गया है. ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि क्या ये शक्तियां वामपंथ को पांव पसारने के लिए स्पेस देना चाहेंगी? यह असंभव नहीं है. एक हद तक सैद्धांतिक स्तर पर ये शक्तियां वामपंथ को स्पेस देंगी. पर क्या वे अपने वजूद  की कीमत पर ऐसा करेंगी यह एक गंभीर संशय पैदा करता है. कार्पोरेटवादी, अधिनायकवादी और छद्म राष्ट्रवादी राजनीति पर लगाम लगाने के लिए समाजवादी, दलितवादी और सेक्युलरवादी योद्धाओं का एक साथ आना जरूरी तो है, पर इस व्यापक शक्ति के इमरजेंस के लिए वामपंथ को बाकी पार्टियां कितना स्पेस देंगी यही संशय का विषय है.

By Editor