जनता दल यूनाइटेड का राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष का पद राजनीतिक रूप से काफी कुभाखर (अशुभ) है। इस पद तक पहुंचे हर व्‍यक्ति का राजनीतिक सूरज अस्‍त ही हुआ है। 2003 में समता पार्टी के जदयू में विलय के बाद पहले अध्‍यक्ष जार्ज फर्नांडीस बने थे। राजनीति में उन्‍होंने लंबी पारी खेली थी। समाजवाद की ‘अर्थी’ लंबे समय तक ढोया था, लेकिन खुद पार्टी के लिए बोझ बन गये। नीतीश कुमार पहले उन्‍हें लोकसभा के टिकट से बेदखल किया और बाद में राज्‍यसभा में भेज कर राजनीतिक विदाई दे दी। अब तो जार्ज फर्नांडीस की तलाश भी मुश्किल हो गयी है।

वीरेंद्र यादव

जार्ज के बाद शरद यादव को जदयू का राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष बनाया गया। वह भी लंबे समय तक भाजपा की पालकी में बैठकर समाजवाद का राग गाते रहे। अध्‍यक्ष बनने के बाद मधेपुरा से लोकसभा चुनाव हार गये। उनके ही नेतृत्‍व में जदयू लोकसभा में दो सीटों पर पहुंच गयी। उनकी ही पहल पर बिहार में महागठबंधन बना और महागठबंधन दो तिहाई बहुमत से सत्‍ता में आयी। नीतीश कुमार की फिर ताजपोशी हुई। लेकिन इस सफलता से ही शरद के बदहाली के दिन शुरू हुए। नीतीश कुमार ने पहले शरद यादव को पार्टी के राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष पद से इस्‍तीफा देने को विवश किया। इसके बाद हुए राज्‍यसभा चुनाव में उनकी ही दावेदारी पर सवाल उठने लगे। और आज अस्तित्‍व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

राष्‍ट्रीय अध्‍यक्ष पद पर आसीन होने के बाद नीतीश के भी ‘अच्‍छे दिन’ पर संकट छाने लगा है। कभी खुद को पीएम मैटेरियल के रूप में प्रमोट करवाने वाले नीतीश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा के समक्ष ‘घुटने’ टेक दिये हैं। भाजपा से दोस्‍ती के बाद उनकी अंतरात्‍मा जागी और उन्‍होंने कहा कि नरेंद्र मोदी को हराना किसी के वश में नहीं। राजनीति में हार स्‍वीकार कर लेने की परिणति राजनीति करने वाले ही अच्‍छी तरह बता सकते हैं और खुद नीतीश भी राजनीति के ‘दुकानदार’ हैं। जनता को बस इंतजार करना है।
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By Editor