वरिष्ठ पत्रकार अजित साही का यह विश्लेषण बिहार के चुनावी इतिहास, भूगोल और गणित पर आधारित है जो बताता है कि बिहार में नरेंद्र मोदी का सपना  क्यों तूट जायेगा. आप भी पढिएmodi_nitish_624

 

भारतीय जनता पार्टी बिहार में 20 या उससे अधिक सीटें जीतने की आशा रखती है. तमाम मतदाता सर्वेक्षण भी यही आकलन कर रहे हैं. लेकिन बिहार का चुनावी गणित, इतिहास और भूगोल इसके विपरीत इशारा करता है.

 

बिहार में इस बार भाजपा का एक नारा और एक रणनीति है. नारा है कि प्रधानमंत्री पद के लिए उसके उम्मीदवार नेता नरेंद्र मोदी देश में विकास लाएंगे, जैसा बक़ौल ख़ुद उन्होंने गुजरात में मुख्यमंत्री बन कर किया. और रणनीति है जात-बिरादरी की.

बिहार के मतदाताओं को चार भागों में बाँटा जा सकता है. ये हैं अगड़ी जातियाँ, पिछड़ी जातियां, दलित वर्ग और मुसलमान. मुख्यत: अगड़ी जातियां भाजपा की पारम्परिक मतदाता रही हैं.

क्योंकि जनगणना जाति के आधार पर नहीं की जाती है इसलिए कुल आबादी में इनकी हिस्सेदारी का अनुमान ही लगाया जाता है. अगड़ों में हैं ब्राह्मण, जो बिहार की जनसंख्या का लगभग छह प्रतिशत हैं; भूमिहार और राजपूत जो क़रीब पाँच-पाँच प्रतिशत हैं; और कायस्थ, जो बमुश्किल डेढ़ प्रतिशत बताए जाते हैं.

भाजपा को बनिया वर्ग का भी समर्थन मिलता है जो बिहार की आबादी का लगभग सात प्रतिशत है और वहाँ पिछड़ी जातियों में गिना जाता है. जोड़ा जाए तो ये सभी जातियाँ पच्चीस प्रतिशत से भी कम हैं. यानी चार में एक मतदाता.

जात ही पूछो वोटर की

देश भर के अगड़ों की तरह बिहार में भी अगड़े वर्ग द्वारा मतदान का औसत और जातियों के मुक़ाबले कम रहता है. इसकी वजह दूसरी जातियों के अपेक्षाकृत अगड़ों की अधिक सम्पन्नता है. समृद्ध लोग ग़रीबों के मुक़ाबले कम मतदान करते हैं. साथ ही दूसरी जातियों के मुक़ाबले वो अधिक संख्या में प्रवासी होते हैं और बाहर रहने की वजह से मतदान नहीं कर पाते हैं.

और ऐसा भी नहीं है कि हर अगड़ा भाजपा के नाम पर वोट देता है. पिछड़ों की राजनीति करने वाले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल के जो चार सांसद 2009 में चुने गए थे उनमें लालू को छोड़ तीनों अगड़ी जाति के हैं.

दरअसल 1980 में जन्म के बाद से ही भाजपा की पहचान अगड़ी जातियों की रही. अपने दम पर वो पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों का वोट नहीं खींच पाई. इसलिए भाजपा ने जब-जब बिहार में चुनाव अकेले लड़ा उसे मुँह की खानी पड़ी.

बिहार में पहले 54 लोकसभा सीटें थीं. जब साल 2000 में दक्षिण बिहार झारखंड बन गया तो 14 सीटें उसमें चली गईं. झारखंड वाली सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन उत्तर बिहार के (जो आज का समूचा बिहार है) मुक़ाबले शुरू से बेहतर रहा.

इसकी बड़ी वजह ये है कि भाजपा का पितृ संगठन, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, दशकों से झारखंड के जाति रहित आदिवासी लोगों में हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार करके अपनी पैठ बनाने में सफल रहा. लेकिन जाति-प्रधान बिहार में संघ को वो सफलता नहीं मिली.

लालू ने बना दी जोड़ी

यही वजह है कि बिहार की 40 लोकसभा सीटों में, जो झारखंड बनने से पहले उत्तर बिहार की सीटें थी, भाजपा को एकमुश्त सर्वाधिक 12 सीटें ही मिल सकी हैं. ऐसा दो बार हुआ है: 1999 और 2009 में. दोनों बार जीत की वजह थी पिछड़ों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियों के साथ भाजपा का गठबंधन.

बनियों को छोड़ बिहार की आबादी में 47 प्रतिशत पिछड़ी जाति के लोग हैं. इनमें क़रीब 14 प्रतिशत यादव हैं, जिनका वोट मोटे तौर पर राजद को जाता है. बाक़ी 33 प्रतिशत पिछड़े वोटों के लिए राजद और जनता दल (यूनाइटेड) में रस्साकशी रहती है.

पिछले पच्चीस सालों का अनुभव ये बताता है कि बिहार में मतदाताओं के इन्हीं चार वर्गों के समीकरण ही जीत और हार तय करते हैं. जिसका ज़्यादा पक्का जातीय गठबंधन होता है वही जीत हासिल करता है.

जब-जब भाजपा और जदयू ने साथ चुनाव लड़ा है उनके गठबंधन को अगड़ों के वोट के साथ-साथ पिछड़ी जातियों का समर्थन मिलने की अधिक संभावना रही है. और जब-जब वे अलग लड़े हैं दोनों ही को हार का सामना करना पड़ा है.

दरअसल भाजपा-जदयू गठबंधन की अकेली वजह लालू यादव ही थे. 1989 में जिस नवनिर्मित जनता दल ने केंद्र सरकार बनाई थी लालू यादव उस पार्टी की बिहार शाखा में दूसरी श्रेणी के नेता थे. जब 1990 में जनता दल ने बिहार विधानसभा चुनाव जीता तो दो और नेताओं के मुख्यमंत्री बनने की चर्चा थी. लेकिन आख़िरी वक़्त पर लालू की क़िस्मत चमकी और वह मुख्यमंत्री बन गए.

तब तक लालू को बिहार के बाहर कम लोग जानते थे. कुछ महीनों बाद जब भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने अयोध्या के लिए रथयात्रा निकाली तो लालू ने उनको बिहार में गिरफ़्तार कर लिया और दुनिया भर में मशहूर हो गए.

यहीं से लालू और भाजपा का हमेशा का बैर शुरू हो गया. यहीं से लालू मुसलमानों के और धर्मनिरपेक्षता के चैम्पियन बन गए. जैसे-जैसे जनता दल में लालू का दबदबा बढ़ता गया बिहार में पार्टी के दूसरे नेताओं का क़द छोटा होता गया. इनमें प्रमुख थे जॉर्ज फ़र्नांडिस और नीतीश कुमार जो आज बिहार के मुख्यमंत्री हैं. दोनों ने 1994 में अलग होकर समता पार्टी बना ली.

1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में जनता दल, कांग्रेस, समता और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा. कांग्रेस ने मुसलमान और दलित वोट की आशा की. जॉर्ज और नीतीश ने यादवों के अलावा बाक़ी सभी पिछड़ी जातियों के वोट की. भाजपा ने सोचा 1992 में अयोध्या में हुए बाबरी मस्जिद के विध्वंस के चलते अगड़े उसका साथ देंगे. लेकिन लालू ने यादवों और मुसलमानों का नया समीकरण खड़ा कर के भारी जीत हासिल की. परिस्थिति भांपते ही भाजपा और समता पार्टी ने हाथ मिला लिया.

लालू की इस जीत से जनता दल में शरद यादव का भी सूरज ढलने लगा था. 1997 में जब चारे की सरकारी ख़रीद में लालू पर भ्रष्टाचार का आरोप आया तो पार्टी अध्यक्ष शरद यादव ने लालू को बाहर कर दिया. इस पर लालू ने राजद क़ायम कर ली.

साल भर बाद शरद यादव ने भाजपा की अगुआई में आई केंद्रीय सरकार को समर्थन दे दिया. इस पर जनता दल टूटी और उनके गुट का आगे चल कर नाम हुआ जदयू. जल्द ही जॉर्ज और नीतीश ने समता भी इसमें शामिल कर दी.

दो और दो पाँच

इतिहास के इस छोटे सबक़ को दोहराने से पता चलता है कि जब-जब भाजपा ने गठबंधन नहीं किया वो कमज़ोर रही है. 1989 और 1991 के आम चुनाव बिहार में अकेले लड़ने पर भाजपा को क्रमश: तीन और शून्य लोकसभा सीटें हासिल हुई थीं.

1996 के आम चुनाव में लालू-शरद के जनता दल के ख़िलाफ़ भाजपा-समता लड़े तो भाजपा को छह सीटें मिली थीं. 1998 के आम चुनाव में लालू-शरद विच्छेद हुआ तो भाजपा-समता, राजद, शरद के त्रिकोणीय संघर्ष में भाजपा को आठ सीटें मिली थीं.

और जब 1999 का आम चुनाव भाजपा और जदयू ने मिल कर लड़ा तो सीटों की बाढ़ आ गई. भाजपा ने पहली बार बिहार की 40 लोकसभा सीटों में 12 जीतीं. जदयू की ज़बरदस्त 17 सीटें आईं. राजद सिकुड़ कर छह सीटों तक सीमित रह गई.

 

जॉर्ज, नीतीश, शरद और दलित नेता रामविलास पासवान भी जदयू की ओर से जीतकर भाजपा कि अगुआई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की केंद्रीय सरकार में मंत्री बने. लेकिन अगले ही साल इनमें फिर झगड़ा हो गया और राजग में रहते हुए भी जॉर्ज ने फिर समता पार्टी खड़ी कर ली. इसके चलते साल 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में समता और जदयू ने कई सीटों पर एक दूसरे के ख़िलाफ़ उम्मीदवार खड़े किए. इसका फ़ायदा लालू को मिला और राजद एक बार फिर जीत गई.

हालाँकि दक्षिण बिहार में बुरी हार होने से राजद को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. इस वजह से लालू उस इलाक़े को झारखंड राज्य में परिवर्तित करवाने के लिए तैयार हो गए और नवम्बर 2000 में झारखंड बन गया. बचे हुए बिहार में राजद सशक्त हो गई.

गठबंधन

साल 2002 में गुजरात के दंगों में मुसलमानों की हत्या का हवाला देते हुए पासवान राजग से अलग हो गए. 2004 के आम चुनाव के पहले जॉर्ज, नीतीश और शरद यादव फिर जदयू में आ गए लेकिन उनके विरोध में लालू-कांग्रेस-पासवान मिल गए.

लिहाज़ा 2004 में राजद ने 22, पासवान की पार्टी ने चार और कांग्रेस ने तीन लोकसभा सीटें बटोरीं. भाजपा को पाँच सीटें मिलीं और जदयू को छह. कांग्रेस की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की केंद्रीय सरकार में लालू और पासवान मंत्री बने.

लेकिन आठ महीने बाद ही लालू-पासवान का गठबंधन टूट गया. 2005 फ़रवरी में होने वाला बिहार विधानसभा चुनाव दोनों ने भाजपा-जदयू के सामने अलग-अलग लड़ा. नतीजे त्रिशंकु आए. भाजपा-जदयू की पहली बार सबसे ज़्यादा सीटें रहीं. राजद दूसरे और पासवान की लोकतांत्रिक जनशक्ति पार्टी तीसरे नम्बर पर रही.

पासवान अड़ गए की वह मुख्यमंत्री बनेंगे. ना भाजपा-जदयू ने और न राजद ने उनकी मानी. 2005 अक्तूबर में फिर विधानसभा चुनाव करवाए गए. इस बार जदयू-भाजपा भारी जीत के साथ सत्ता में आई. नीतीश मुख्यमंत्री बने. गठबंधन बुलंदी छूने लगा.

2009 के आम चुनाव में भाजपा-जदयू ने 1999 की कहानी लगभग दोहराते हुए क्रमश: 12 और 20 लोकसभा सीटें जीतीं. जब 2010 में बिहार का विधानसभा चुनाव हुआ तो इस गठबंधन को पहले के मुक़ाबले और भी ज़बरदस्त कामयाबी हासिल हुई. लालू की राजद, पासवान की लोजपा और कांग्रेस पार्टी को अपने-अपने राजनैतिक जीवन की सबसे करारी हार मिली.

सुंदर सपना टूट गया

2005 और 2010 के बिहार विधानसभा चुनावों में और 2009 के आम चुनाव में बिहार में जदयू-भाजपा को मिली भारी जीत का सबसे बड़ा कारण ये था कि उसका गठबंधन एक सफल जातीय समीकरण पर अमल कर पाया था.

बतौर मुख्यमंत्री नीतीश ने यादवों के अलावा पिछड़ी जातियों को अतिपिछड़ा का, पासवानों के अलावा दलितों को महादलित का, और सम्पन्न मुसलमानों के अलावा बाक़ी मुसलमानों को पसमंदा का दर्ज़ा देकर सरकारी सहायता देनी शुरू कर दी थी. इसके चलते 2010 में इस गठबंधन को अगड़ों के अलावा कई पिछड़ों और दलितों और कुछ मुसलमानों का भी वोट मिला.

लेकिन पिछले साल जून में जब भाजपा ने मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया तो यह गठबंधन टूट गया. मोदी की मुसलमान-विरोधी छवि का हवाला देते हुए नीतीश ने भाजपा से सत्रह साल पुराना नाता तोड़ लिया. लिहाज़ा सत्रह सालों में ये पहली बार है कि भाजपा बग़ैर किसी पिछड़ी जाति वाली पार्टी से गठबंधन के बग़ैर उतरी है.

यह सही है कि भाजपा ने रामविलास पासवान के साथ गठबंधन किया है. लेकिन हमने देखा कि पिछले दो विधानसभा चुनावों में और एक लोकसभा चुनाव में लोजपा का सूर्य अस्त हो चुका है. महादलित का दर्ज़ा मिलने के बाद से दलितों की ग़ैर-पासवान उपजातियों में रामविलास पासवान के प्रति दिलचस्पी कम हुई है.

ध्यान देने की बात ये है कि 1996 और 1998 के आम चुनावों में भाजपा बिहार में सिर्फ़ 18 सीटों पर लड़ी थी. 1999 में पंद्रह सीटों पर, 2004 में सोलह सीटों पर और 2009 में फिर सिर्फ़ पंद्रह सीटों पर लड़ी थी.

लालू का फ़ायदा

लेकिन इस बार भाजपा बिहार की 30 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही है. इनमें दस-एक सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा 1991 के बाद से लड़ी ही नहीं है. ज़ाहिर है उन सभी सीटों पर भाजपा का संगठन भी बेहद कमज़ोर है. और जो उन सीटों पर भाजपा का पुराना हमदम था, यानी जदयू, वह आज वहाँ उसका प्रतिद्वंद्वी बन कर खड़ा है. और कांग्रेस और राजद फिर मिल गए हैं.

अगर हम बिहार की तमाम सीटों पर साल 2009 के आम चुनाव के नतीजों पर नज़र डालें तो कांग्रेस और राजद का वोट प्रतिशत मिलाकर कई सीटों पर जदयू-भाजपा के संयुक्त वोट प्रतिशत से या आगे, या बराबर या थोड़ा ही पीछे रहा था.

और अगर इतिहास की मानें तो पिछली बार भाजपा-जदयू को जो वोट मिले थे वो इस बार ज़रूर ही बँट कर कम होंगे.

वैसे भी नीतीश सरकार के प्रति मतदाता की निराशा का फ़ायदा लालू को अधिक और भाजपा को कम मिलेगा. क्योंकि भाजपा पिछले साल तक नीतीश सरकार का हिस्सा रही थी जबकि लालू पिछले नौ साल से राज्य में और पाँच साल से केंद्र में सत्ता से बाहर हैं.

अदर्स वॉयस कॉलम में हम अन्य मीडिया की खबरें प्रकाशित करते हैं. यह विश्लेषण बीबीसी से साभार

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