तूफानी संकट में घिरने के बाद तहलका का पहला अंक आ चुका है. यहां पढिए तहलका हिंदी का विशेष सम्पादकीय जिसमें उसने सेक्स कांड पर अपना पक्ष पेश किया है.

संजय दुबे:कार्यकारी सम्पादक तहलका हिंदी
संजय दुबे:कार्यकारी सम्पादक तहलका हिंदी

तहलका के पूर्व संपादक तरुण तेजपाल अब अपने खिलाफ लगे आरोपों का कानूनी तरीके से सामना कर रहे हैं. शोमा चौधरी, जिन पर तरुण को बचाने की कोशिशों के आरोप हैं अब तहलका की अंग्रेजी पत्रिका छोड़ चुकी हैं. तो क्या तहलका को छोड़कर जाने का अब भी कोई औचित्य है, जैसा कि कई लोग हमें करने को कह रहे हैं. कुछ उकसा भी रहे हैं.

लेकिन हमने तहलका तब भी तो नहीं छोड़ा जब तरुण के खिलाफ कानूनी मामला चलना शुरू नहीं हुआ था और शोमा भी तहलका में थीं.

इसकी वजह थी कि तहलका की हिंदी पत्रिका का बाकी तहलका, शोमा, यहां तक कि तरुण से भी नाममात्र से भी कम का लेना-देना था. तरुण ने कुछ नितांत गैर-अनुभवी लोगों के भरोसे, उनकी जिद पर इसे शुरू करने का फैसला लेने के बाद न तो इसमें कभी हस्तक्षेप किया, न ही इसके लिए ज्यादा कुछ किया. जब हिंदी पत्रिका इसमें काम करने वालों के अनथक प्रयासों की वजह से शुरू हुई, उन सबके असीमित उद्यम से यहां तक पहुंची तो उसे किसी एक या दो व्यक्तियों के कथित निजी कृत्यों की भेंट क्यों चढ़ा दिया जाना चाहिए?

जिस पत्रिका के लिए हमने दिन-रात, शनिवार-इतवार, घर-बार और बाहर से लगातार मिलते रहे प्रलोभनों को नहीं देखा, उसे इतना गैर-महत्वपूर्ण कैसे मान लें कि जैसे ही मुसीबत का पहला बादल मंडराए हम उसे अपने दिलों से निकालकर अलग कर दें?

एक व्यक्ति की गलती

लेकिन तहलका से गलती भी तो हुई थी. उसकी गलती वह नहीं थी जिसके आरोप तरुण तेजपाल पर लग रहे हैं. वह एक व्यक्ति की गलती हो सकती है. तहलका की गलती थी कि तरुण पर लगे आरोपों के बाद उसकी आधिकारिक प्रतिक्रिया वैसी नहीं थी जैसी होनी चाहिए थी – न तो उचित-अनुचित के पैमाने पर, और न ही विचारों की ऐसी परिपक्वता के हिसाब से जिसकी तहलका जैसी पत्रिका से उम्मीद की जाती है.

तहलका की अंग्रेजी पत्रिका की पीड़ित पत्रकार ने अपनी संपादक से दो मांगें की थीं: एक विशाखा दिशानिर्देशों के मुताबिक कमेटी बनाकर मामले की जांच की जाए और दूसरी, तरुण ऑफिस के सभी लोगों की जानकारी में उनसे माफी मांगें. यदि ये मांगे नहीं की जातीं तब भी होना यह चाहिए था कि तुरंत एक कमेटी का गठन किया जाता और तरुण को तहलका से पूरी तरह से हटने को कहा जाता. इसके अलावा पीड़ित पत्रकार से पूछकर या खुद ही, मामले को पुलिस के हवाले भी किया जा सकता था. लेकिन शायद तब कमेटी का कोई मतलब नहीं रह जाता. जांच और माफी एक साथ तार्किक नहीं कहे जा सकते थे.
क्योंकि न तो माफी इतने बड़े अपराध की पर्याप्त सजा हो सकती है और न ही जांच से पहले ही किसी व्यक्ति पर माफी मांगकर अपना अपराध कबूल करने का दबाव डाला जा सकता है.

हमने भी किया विरोध

इस दौरान हमने सामूहिक इस्तीफे तक पर विचार करने के बाद इस प्रकरण से संबंधित जो भी गलत था, है, उसका हर उपलब्ध माध्यम से विरोध करने और दुनिया के सामने लाने का फैसला किया. हमने तहलका की हिंदी पत्रिका में बहुमूल्य योगदान देने वाले लेखकों से अनुरोध किया कि वे पत्रकारीय मर्यादा के मुताबिक जैसा चाहें तहलका, तरुण, शोमा, हम पर या हमसे जुड़ी चीजों पर लिखें. हमने जो तहलका में गलत हुआ था, उसे पुरजोर तरीके से शोमा चौधरी और अंग्रेजी पत्रिका के वरिष्ठ लोगों के सामने रखा. इस प्रकरण की जांच के लिए जो कमेटी तहलका द्वारा बनाई गई है उसका एक सदस्य मैं भी हूं.

हमने कितनी भी कोशिश क्यों न की हो तहलका की सभी शाखाएं – जिसमें तहलका हिंदी भी शामिल है – आज अपने अस्तित्व के सबसे बड़े संकट में हैं. यह संकट और गहराए या कम हो, एक बात बिल्कुल साफ है कि इसके लिए हम अपने पत्रकारीय और अन्य मूल्यों से समझौता नहीं करेंगे.

अगर कभी ऐसा करने की मजबूरी आन पड़े या हमें लगे कि हमारे पाठक अब हमारी नीयत और पत्रकारिता पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं तो हम समझ जाएंगे कि कम से कम हमारे लिए तहलका हिंदी का वक्त पूरा हो गया है.

संजय दुबे
कार्यकारी संपादक
तहलका, हिंदी

By Editor

Comments are closed.