भोजपुरी माटी मे पनपे लोक गीतों की परम्परा कहीं गुम होती जा रही है. प्रेम, विरह, रोजी रोटी के बदलते परिविशे में लोक-गीतों की दुनिया से रू-ब-रू करा रहे हैं अनूप नारायण सिंहBhikhari Thakur - Bidesiya

 

लोकगीत जीवन के सरल, सहज और छल कपट से दूर, विचार-भाव की अभिव्यंजना है। ये गीतें जहां एक ओर पर्व-त्योहार, विवाह, जन्मोत्सव के उल्लास को दोगुनी कर देते हैं वहीं दूसरी तरफ मेहनत व पसीनें के गुणगान कर जीवन में रस का संचार कर देते हैं।  अब भोजपुरी के ‘शेक्सपीयर‘ कहे जाने वाली सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व कवि भिखारी ठाकुर की ‘बिदेसिया‘ को उदाहरण स्वरूप देखें। रस में विरहनी नायिका के भोलापन और उसकी विरह- वेदना दोनों का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलते हैं। नायिका को डर है कि पूरब दिशा में यदि पति कमाने जाते हैं तो वहां की महिलाएं जो सुन्दर होती हैं, वे जादूगरनी भी होती हैं। हो सके नायिका के पति को ‘तोता‘ बना के पिंजड़ा में बंद कर दें और अपने वश में कर लें। परन्तु, विरहनी नायिका के पति अपनी पत्नी के लाख मना करने का बावजूद परदेस चला जाता है। अब विरहनी के मन में ऐसी टीस और हृदय में ऐसा हूक उठता है कि वह अनायास गीत बनकर निकल पड़ता है। जैसेः-

‘देसवा पुरूब जनि जाउ रे सजनवा।

पुरूब के पनिया खराब रे।।

उहवां के गोरी सभ हवे जादूगरनी।

जइए के मरिहे कटार रे।।

सुगना बनाई दिहे, पीजड़ा में राखि लिहें।

बान्ही लिहें अंचरा के खूंट रे।।

हम हाथ मलते रहब दिन राति।

के पतिआई हमार दुःख रे।।

इस किस्म के अनेकानेक संयोग, वियोग या विरह के बहुत भाव लोकगीतों में मौजूद हैं।

शादी-विवाह का अवसर

भोजपुरी भाषा के क्षेत्रों में शादी-विवाह के उपलक्ष्य पर औरतों द्वारा गीत गाने की परम्परा रही है। वे लोग घर में तो स्वांग, मनोरंजन, डोमकच आदि नृत्य व गीतों में मगन हो जाती हैं। उनके द्वारा गाये जाने वाले लोकगीतों में नायक के प्रेम में डूबी नायिका, नायक से मिलने का आमंत्रण, देती अपने प्रेमरोग के इलाज हेतु निवेदन करता हुआ गीत है-

‘रसिया तू हउअ के कर, हमरो पे तनिका ताक।

बहुते नजर फेरवल हमरो पे तनिका झांक।।

कलियन के सेज राख पत्ता से हवा कर द।

हम प्रेम रोगी बानीं, तनिका त दवा कर द।।

 

इस प्रकार का नेह-निमंत्रण लोकगीतों में विविधता की सबूत है।

इसकी एक बानगी देखें-

‘बोलेला मुंडरिया पर कागा

पिया के घर आवन होई।

अइहें बलम परदेसी

जिनिगिया सोहावन होई

सार्वजनिक रूप से गाये जाने वाले लोकगीतों में कजरी, होली, चइती आदि में गजब का मिठास होता है। फागुन के लोकगीतों में ‘जोगिरा‘ या ‘पहपट‘ ऐसे ही लोकगीत है-

‘आम मोजराई गइले

महुआ फुलाइल मन अगराई गइले ना—-।

देह नेहिया के रस में

रसाई गइले ना – —-।

होली की तरह, ‘कजरी‘ को भोजपुरी क्षेत्रों में एक लोकप्रिय लोकगीत माना गया है। वर्षाऋतु में प्रकृति की एक जादूई रूप सौन्दर्य में नहाई दिखती है।

  1. ‘आइल सावन सोहावन सखिया

वन में नाचे मोर हे—–

बादर गरजे, बिजुरी चमके

पवन मचावे शोर हे—-।‘

  1. ‘कइसे खेले जाइबू सावन में कजरिया

बदरिया घीरी आइल ननदी

दादुर मोर पपीहा बोले

पीऊ पीऊ सुनि के मनवा डोले

भींजी पनिए में पीअरी चुनरिया

बदरिया घीरी आइल ननदी।‘

लोकगीतों में गाथा गीतों का अनुपम स्थान है। लोकगाथाओं में आल्हा, लोरिकायन, सोरठी-वृजाभार की कथा, बिहुआ की कथा (विहुला बलाखेन्द्र) आदि अत्यन्त प्रसिद्ध है। एक से बढ़कर एक बिरहाए और पूरबी की तो बात ही निराली है। ‘पूरबी‘ का लोकगीतों में बड़ा मोल-महत्व है। भोजपुरी भाषा में पूरबी के बादशाह ‘महेन्दर मिसिर‘ का लिखे ‘पूरबी‘ का कोई जोड़ नहीं। कमाल की ‘पूरबी‘ लिखी है महेन्दर मिसिर ने जो अन्यत्र दुर्लभ है-

‘अंगुरी में डंसले बिया नगीनीया रे

ए ननदी पिया के बोला द

दीयरा जरा द तनी, पिया के बोला द—।‘

पूर्वांचल में लोक आस्था का महापर्व ‘छठ पूजा‘हैं। इसके प्रति असीम आस्था की बानगी लोकगीतों में दिखती है। छठ पूजा के प्रत्येक विधान में लोकगीत जुड़ा हुआ है।

कोपी कोपी बोलेली छठिय माता, सुनू ए महादेव

मेरा घाटे दुनिया उपजी गइलें, मकरी बिआई गइले,

हॅंसी हॅंसी बोलेले महादेव, सुनी ए छठीअ मइया

रउआ घाटे दूभिया छिलाई देबो, मकरी उजारी देबो।

गोबरे लिपाई देबो, चनन छिडि़कि देवो, दूधवे अरग देबो।

घीउए हुमाद देबो, नरियर फरग देवो, फलवे अरग देबो

सेनुरे भरन देबो, पीअरी पेन्हन देबो, बतीए रोसनी देबो।

इस लोकगीत में छठी मईया के क्रोध के शिवजी को दिखाया गया है और शिवजी उन्हें मनाने की बात कर रहे हैं दोनों चीजें मिलके जहाॅं भक्ति रस का संचार करते हैं ‘वही‘ प्रेम से सब कुछ संभव हो सकता है‘ इसका का संदेश दिया गया है। छठ पूजा के अवसर पर ‘कोसी‘ भरने की परम्परा है उसका एक दृश्य इस लोकगीत में देखेंः-

‘राति छठिय मइया रहलीं रउआ कहॅंवां

जोड़ा कोसिय भरन भइले तहॅंवा

केरा ठेकुआ चढ़न भइले जहवाॅं।।‘

लोकगीत में विविधता के भाव का अभाव नहीं। बेटी की विदाई गीत से कौन सा इंसान नहीं होगा जो नहीं हिल जाता है। एक ‘निरगुन‘ देखिएः-

‘जेहि दिन पूरा करार हो गाई

ओहि दिन सुगना फरार हो जाई।

माई बाबू धइले रहिहें, धइले रहिहें माई

आई जे बोलावा तब रोके ना रोकाई

महल दुआरी कुल्ह उजार होइ जाई।‘

लोकगीत में बेटी के विदाई वाला हृदय को मानो आंसुओं के सैलाब में उतारने जैसा है। जब बेटी के विदाई के समय गाया जाता है-

‘बेटी भोरे भोरे जब ससुराल जइहे

सबका अंखियां में अंसुआ उतार जइहे

भोर गइया के खिआई, सांझे सझवत के देखाई

एने बाबू रोअत होइहें, ओने रोअत बाड़ी माई

सबका अंखिया के भोर भिनसार जइहें।‘

बेटी भोरे भोरे – ————।

By Editor