प्रथम चरण के चुनाव पर पत्रकारों की रिपोर्टिंग तो आपने देखी-सुनी-पढ़ी पर यहां यह दिलचस्प रिपोर्ट एक मजिस्ट्रेट की जुबानी सुनिये जो  मुंगेर के चुनाव बूथों पर घूमते हुए आपके लिए लिखी है.munger

विद्या कुमार चौधरी

 

आज दिन भर सोया रहा। दो दिन और दो रातें लोकतन्त्र के सबसे बड़े उत्सव(बिहार चुनाव) पर न्योछाबर कर आया हूँ। चुनाव आयोग के निर्देशानुसार नक्सल प्रभावित धरहरा प्रखंड के आधा दर्जन बूथों की निगरानी का जिम्मा मेरी टीम को मिला था। अनुभव काफी मिश्रित रहा। लोकतंत्र का जश्न देखने की मंशा से गया था , लोकतंत्र के ‘सामाजिक पेंचों’ में उलझकर लौटा हूँ।
दिनभर घूमता रहा , एक बूथ से दूसरा बूथ…एक गाँव से दूसरा गाँव।इस इलाके पर प्रकृति की अदभूत कृपा हैं। ऊँचे पहाड़, हरे वन, उपजाऊ मैदान,पर्याप्त पानी और मेहनती लोग। लेकिन विकास से कोसों दूर……..। परिणाम….नक्सलवाद की प्रयोगशाला बनकर रह गया हैं यह इलाका।
सवेरे सात बजे से ही दातून चबाते पुरुष, बच्चे दुलारती महिलाये और मोबाइल चिपकाये युवा बूथों पर पहुचने लगे थे। जी हाँ…. मोबाइल अगर विकास का पैमाना होता तो यह इलाका तकनीकी रूप से विकसित कहलाएगा। हालाँकि लौटते वक्त CRPF के कमांडेंट ने बताया क़ि इलाके के ज्यादातर युवा मोबाइल का इस्तेमाल गाना सुनने के लिए करते है…नेटवर्क और कॉल ड्राप की समस्या से बिलकुल बेखबर।

जवानों की किलाबंदी
बूथों पर सीआरपीएफ के जवानों ने एक दिन पहले से मोर्चा संभाल रखा था। बूथों की सुरक्षात्मक किलाबंदी और जवानों के चौकन्नेपन से यह बताना मुश्किल था क़ि वे मतदाताओं के स्वागत के लिए थे या नक्सलियों से मुकाबले के लिए ?…..हर आने वाले को कड़ी सुरक्षा से गुजरकर साबित करना होता था क़ि वो नक्सली नहीं हैं। लोग दूर से ही अपना वोटर पहचान पत्र या मतदाता पर्ची लहराते हुएआते थे।
हर गाँव और हर बूथ सामाजिक रूप से स्तरित और बिखड़ा हुआ नज़र आया।स्थानीय बीएलओ पता नहीं क्यों हमे पहले ही बताना जरूरी समझता था क़ि फलाँ बूथ या गाँव किस जाति के बहुमत या दबदबे वाला हैं। शायद जाति और चुनाव के लोकतान्त्रिक अंकगणित को वह बेहतर समझता था।
चुनाव शांतिपूर्वक संपन्न हुआ। अशांति के कुछ छिटपुट प्रयास उम्मीदवारों के ‘डकार’ मारते तथाकथित कार्यकर्ताओं ने किया जरूर, लेकिन सीआरपीएफ के कोबरा बटालियन के सामने वे बौने साबित हुए। ज्यादातर बूथों पर मतदान का प्रतिशत 50 से नीचे रहा, लेकिन इसका कारण नक्सली खौफ नहीं बल्कि रोजगार की तलाश में युवाओं का पलायन था।
शाम में मुंगेर लौटते वक़्त जहाँ मेरे अंदर का ‘अस्थायी मजिस्ट्रेट’ शांतिपूर्ण मतदान संपन्न करवाकर काफी खुश था…..मेरे अंदर का स्थायी प्रोफेसर लोकतंत्र के सामाजिक गाठों में बुरी तरह उलझा हुआ था। 68 वर्षों में हम अपने ‘स्तरित समाज’ और ‘अभिजन राजनीति’ को कितना लोकतांत्रिक बना पाये इसका आकलन तो मुश्किल हैं लेकिन आधुनिक लोकतंत्र को मध्यकालीन, बर्बर, सामंती और हिंसात्मक बनाने में हम काफी हद तक सफल रहे हैं।

लेखक टीएनबीयू भागलपुर में एसोसियेट प्रोफेसर हैं

 

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