दूसरे चरण के चुनाव के बाद भाजपा मनोवैज्ञानिक दबाव का शिकार होती जा रही है. हमारे सम्पादक इर्शादुल हक उन पांच कारणों को गिना रहे हैं जो भाजपा की परेशानी के कारण बनते जा रहे हैं.

फोटो कर्टसी इकोनॉमिक टाइम्स
फोटो कर्टसी इकोनॉमिक टाइम्स

 

प्रथम चरण के चुनाव के बाद ज्यादा तर विश्लेषक यह मान रहे थे कि भाजपा अपना खोता हुआ मनोबल वापस लायेगी और दूसरे चरण में उसका आत्मविश्वास जरूर लौटेगा. यह इसलिए भी कि मगध क्षेत्र, जहां दूसरे चरण के चुनाव 16 अक्टूबर को हुए, वह इलाका उसका गढ़ रहा है. पर चुनावी रुझान जो इशारे कर रहे हैं, वह एनडीए को इतना सुकून देने वाले नहीं लगते कि वह आत्मविश्वास से लबरेज हो सके. चुनाव खत्म होने की शाम और उसके कुछ दिन पहले से भाजपा मनोवैज्ञानिक दबाव में, जाने अनजाने में आती गयी. आइए यहां उन 5 बिंदुओं पर गौर करें जो भजपा गठबंधन को मनोवैज्ञानिक पराजय की तरफ खीच रहे हैं.

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1.मोदी की होर्डिंग्स रातों रात बदलना

16 अक्टूबर को दूसरे चरण के चुनाव की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं. लोग वोट के लिए तैयार थे. ठिक एक दिन पहले खबरें आयीं और इनने भाजपा खेमे के मनोबल को कटघरे में खड़ा कर दिया. पटना के मुख्य चौराहों पर अब तक भाजपा की होर्डिंग्स में वन मैन आर्मी की तरह चमकते मोदी की होर्डिंग्स को रात के अंधेरे में बदला जाने लगा. वनमैन आर्मी वाली मोदी की इन तस्वीरों में बिहार के स्थानीय भाजपा नेताओं की तस्वीरें लगायी जाने लगीं. बस क्या था यह खबर मेनस्ट्रीम मीडिया की दहलीज को लांघती हुई सोशल मीडिया पर गर्दिश करने लगी. तर्क दिये गये कि मोदी की संभावित हार से धुमिल होने वाली छवि को बचाने के लिए ऐसा किया जा रहा है. लेकिन ऐसे प्रश्नों के हमले पर करारा जवाब देने के लिए भाजपा नेताओं के पास माकूल जवाब नहीं था. सोशल मीडिया में कोहराम मच गया. दर असल बिहार चुनाव में सबसे पहले भाजपा ने जो चेहरा सामने रखा वह सिर्फ पीएम मोदी का था. इस पर लालू-नीतीश के आक्रमण के बाद भाजपा ने स्थानीय नेताओं के चेहरे सामने लाने के बजाये अमितशाह की तस्वीर जोड़ी. पर इसका असर और नकारात्मक हुआ.

 

2.बीफ विवाद और साहित्यकारों का हमला

दादरी में बीफ की अफवाह उड़ा कर जिस तरह से अखलाक नामक बुजुर्ग की  साम्प्रदायिक हत्या हुई उससे पूरा देश हिल गया. इस आरोप में भाजपा के कार्यकर्ता अरेस्ट हुए. इसे पार्टी ने चुनावी हथियार के रूप में उठाया लेकिन प्रथम चरण के चुनाव आते ही पार्टी को आभास हो गया कि इस मुद्दे से नुकसान हो रहा है. तब उसने इस विवाद को गलत बताया लेकिन तबत क काफी देर हो चुकी थी. साहित्यकार गुलबरगी की हत्या के बाद दादरी के दर्द ने 30 से अधिका साहित्यकारों को मजबूर किया कि उन्होंने मोदी सरकार से विरोध जताते हुए साहित्य अकादमी के सम्मान वापस करने लगे. साहित्यकारों के इस देशव्यापी कदम से भाजपा झुल्ला कर रह गयी. इतनी बड़ी संख्या में पुरस्कार लौटाने की घटना भारतीय इतिहास में शायद ही कहीं मिलती हो, जंगे आजादी के दौरान भी शायद ही इतने बड़े पैमाने पर बौद्धिक वर्ग ने ब्रिटिश हुकूमत का विरोध जता कर पुरस्कार नहीं लौटाये. इस घटनाक्रम ने भाजपा को देशव्यापी तौर पर रक्षात्मक और मनोवैज्ञानिक तौर पर पराजित महसूस करने को विविश कर दिया. इसका स्वाभाविक प्रभाव बिहार चुनाव प्रचार में मनोबल पर दिखा.

 

3.सोशल मीडिया पर आक्रमण

2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान मोदी की शख्सियत और उनके समर्थकों के आक्रमक तेवर ने भाजपाविरोधियों को सोशल मीडिया पर पहले से ही पछाड़ रखा था. मोदी विरोधी यह समझ भी नहीं पा रहे थे कि वे उनका फेसबुक पर कैसे और क्या जवाब दें. लेकिन 2015 के मौजूदा चुनावों के दौरान भाजपाविरोध की धारा के लोगों ने मोदी पर आक्रमण के हर मौके को खूब इस्तेमाल कर रहे हैं. कई बार तो लगने लगा है कि मोदी समर्थक सोशल मीडिया पर आक्रमण का जवाब दे भी नहीं पा रहे. प्रथम और दूसरे चरण के चुनावों के बाद सामाजिक न्याय की विचारधारा से जुड़े जनमानस के भाजपा और पीएम मोदी पर प्रहार ने भी मनोवैज्ञानिक रूप से भाजपा विरोधी माहौल बना दिया है.

 

4.पीएम मोदी की रैलिया रद होना

भाजपा के स्टार प्रचारक नरेंद्र मोदी की चालीस रैलियां तय थीं. किन्हीं कारणों से भाजपा ने उनकी रैलियों को रिशिड्यूल्ड करने और कुछ रैलियों को रद करने का फैसला लिया. विरोधियों ने इसे भी अपने चुनावी हमले के हथियार के रूप में ले लिया. इसे भाजपा के हताशा के रूप में खुद नीतीश ने भी प्रचारित किया. लेकिन यहां भी भाजपा के दिग्गज इसका माकूल जवाब खोजने के बजाये रक्षात्मक हो गये. मोदी की रैलियां स्थगित होना खुद भाजपा के लिए मनोवैज्ञानिक दबाव का कारण बन गयी.

5.लालू-नीतीश की प्रचार स्ट्रैटजी

लालू नीतीश पर, चुनाव प्रचार के दौरान व्यापक रूप से हमला करने वाले सिर्फ नरेंद्र मोदी ही रहे. अमित शाह के आक्रमण में वह आकर्षण नहीं रहा, जो मोदी में है. लेकिन पीएम मोदी ने चुनावी भाषणों में जिस तरह से शैतान, चोर, यदुवंशी और नीतीश के डीएनए जैसे मुद्दों को उछाला उसका जवाब उसी स्तर पर जा कर लालू प्रसाद ने देना शुरू किया. मोदी के मध्वर्गीय शब्दों का लालू ने गंवई अल्फाज में जवाब देना शुरू किया. मोदी के ‘शैतान’ के बदले ‘नरपिशाच’ जैसी शब्दावाली और मोहन भागवत के आरक्षण पर पुनर्विचार के बदले मां का दूध पिया है तो आरक्षण खत्म करके दिखाओ जैसे जुमलों ने भाजपा के रणनीतिकारों को परेशानी में डाल दिया. इधर लालू, मोदी को अपने अखाड़े में खीचते रहे तो दूसरी तरफ नीतीश ने तथ्य आधारित जवाबों से भाजपा को घेरने की कोशिश की. वहीं  लालू-नीतीश ने भाजपा के स्थानीय नेताओ के हमलों को नोटिस न लेने की रणनीति अपनायी और उनके जवाब के लिए अपने प्रवक्ताओं को लगाया.

 

अब बिहार चुनाव के तीन चरण और शेष हैं. यह चुनाव राजधानी पटना से लगे क्षेत्र, उत्तर बिहार, मिथिलांचल और सीमांचल के हिस्सों में होने हैं. भाजपा को अब इन क्षेत्रों में मजबूत रणनीति बनाने की जरूरत है. वह क्या रणनीति अपनाती है यह देखना है. फिलहाल चुनावी हंगामों से अलग राज्य पर्व की गहमागहमी लग चुका है. दशहरा मुहर्रम के बाद अब चुनाव होने हैं. बस इंतजार कीजिए.

By Editor

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