कलराज मिश्र ने जब नीतीश कुमार को ‘धूर्त’ कहा तो वह नाराज हो गये जो स्वाभाविक है पर नीतीश के प्रवक्ता सुशील मोदी को ‘नकलची बंदर’ और ‘मेंटल केस’ कहते हैं तो उन्हें कौन रोके?

pic curtsy; the Hindu
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इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन

पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री कलराज मिश्र ने नीतीश कुमार को धूर्त कहके संबोधित किया तो नीतीश ने सधे लहजे में अपनी नाराजगी जतायी और कहा कि ‘यह तेवर चाल, चरित्र और संस्कार वाली पार्टी के संस्कार को प्रदर्शित करता है. मुझे इस बारे में कुछ नहीं कहना है’. इससे पहले एक और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने सोनिया गांधी पर टिप्पणी की थी, जिसे अपमानजनक टिप्पणी माना गया. फिर बावाला मचा.

बयानबाजी का गिरता स्तर

ऐसा नहीं है कि निजी स्तर पर आ कर ऐसी टिप्पणिया सिर्फ भाजपा की तरफ से की जाती है. जनता दल यू के कम से कम दो प्रवक्ता- संजय सिंह और नीरज कुमार, तो लगता है कि ऐसी टिप्पणियां करने के लिए ही तैनात किये गये हैं. संजय की कुछ टिप्पणियों पर गौर करें जो वो अकसर भाजपा नेता सुशील मोदी के लिए प्रयोग करते हैं- ‘सुशील मोदी को पार्किन्सोोनिज्म की बीमारी है’. ‘मोदी नकलची बंदर हैं’. ‘मोदी कुंठित मानसिकता के शिकार हैं’. ‘मोदी मेंटल केस हो गये हैं’. इसी तरह जद यू के एक अन्य प्रवक्ता नीरज कुमार की बानगी देखिए- ‘56 इंच सीना वाले पीएम मोदी लीवर फाइवरोसिस [छाती सिकुड़न] की बीमारी से ग्रस्त हो गये हैं.

जद यू प्रवक्ताओं के ये बयान समय-समय पर अखबारों में आते रहे हैं. इन तमाम बयानों को फेसबुक पर भी पढ़ा जा सकता है. यहां याद रखने की बात है कि वे जद यू के प्रवक्ता हैं और ये उनके आधिकारिक बयान है. ऐसे में कलराज मिश्र द्वारा नीतीश कुमार को धूर्त कहने पर, उनकी नाराजगी को गंभीरता से लेना पक्षपात सा लगता है क्योंकि उनके प्रवक्ता के बयान भी ठीक वैसे ही हैं. दूसरी तरफ जनता दल यू के एक प्रवक्ता से जब यह पूछा गया कि सुशील मोदी के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले बयानों में वे निजी स्तर पर क्यों चले आते हैं, तो वे इसके कारण बताते हुए कहते हैं कि मोदी तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर बोलते हैं. ऐसे में यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि उनके लिए संतुलित शब्द का इस्तेमाल किया जाये. हालांकि जद यू के पूर्व प्रवक्ता नवल शर्मा की मान्यता है कि संयमित अंदाज में भी प्रभावशाली तरीके से बातें रखी जा सकती हैं.

राजनीति के आदर्श का मसला

सोशल मीडिया में पिछले कुछ वर्षों से आम लोगों की सक्रियता लगातार बढ़ी है. नतीजा यह सामने आने लगे हैं कि किसी नेता की ओर से तीखे या बयानों पर त्वरित प्रतिक्रिया भी आने लगती है. जाहिर है ऐसी प्रतिक्रियायें अमूमन शालीन नहीं होतीं. ऐसे में चिंता की बात यह है कि राजनीति में अपशब्दों का इस्तेमाल अगर नेता ही करने लगें तो आम लोगों से संयम की उम्मीद करना बहुत मुश्किल है. यहां यह भी याद रखने की बात है कि ऐसे बयानों के बढ़ते चलन के बीच, युवा पीढ़ी के जो लोग राजनीति में जगह बनाना चाहते हैं, उन्हें हम विरासत में कैसी भाषा दे रहे हैं.

इस प्रकार अगर ऐसे चलन को राजनीतिक पार्टियां खुद से नहीं रोकतीं तो निश्चित तौर पर हम स्वस्य्े बयानबाजी की उम्मीद नहीं कर सकते. इसमें दो राय नहीं कि ऐसे बयान स्वयं राजनीति में किसी लिहाज से सही नहीं ठहराये जा सकते. लेकिन चिंता की बात यह है कि बढ़ती चुनावी गहमागहमी के साथ बयानों में ऐसे तीखे अल्फाज का इस्तेमाल फिलहाल कम होने के आसार नहीं दिख रहे हैं. चुनाव की तारीख करीब आने के साथ सियासी रंजिशें और बढ़ने वाली हैं. राजनीति के इसी चरित्र ने नयी पीढ़ी के एक बड़े वर्ग को पहले ही सियासत से उदासीन कर रखा है. क्या ऐसी राजनीति हमरा आदर्श हो सकती है?

दैनिक भास्कर से साभार, पटना, 2 जून 2015,{सम्पादित अंश}

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