शादियों के इस मौसम में चारों तरफ ‘चलो रे डोली उठाओ कहार..’ सुनने को मिल रहा है. डोलियां तो अब भी उठती हैं पर डोली और कहार की परम्परा विलुप्त सी हो गयी है.

pic nishad media blog
pic nishad media blog
मुकेश कुमार, पूर्वी बिहार ब्यूरो
इस गीत की प्रासंगिकता इतिहास के पन्नों में कैद हो कर रह गई है। अब न तो डोली दिखती है और नही कहार ही।
रामायण काल में मां जानकी की शादी की बात हो या फिर महाभारत काल में। डोली कहार का इतिहास देश की संस्कृति के इतिहास के समान है। भारत में कहार नामक एक खास जाति है, जिनका मुख्य पेशा ही डोली उठाकर कन्या को उसके पिया के घर पहुंचाना रहा है।
लेकिन परंपरा पर हावी होती आधुनिकता व लगातार बढ़ रहे पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव डोली प्रथा का बंटाधार कर दिया है। हाईटेक युग में डोली की जगह बेशकीमती लग्जरी कारों ने ले ली है। दुल्हा अब हाथी घोड़ा व पालकी की बजाए बेशकीमती लग्जरी कार पर शादी रचाने जाते हैं।
मांगलिक कार्यों पर गूंजती शहनाई की सुमधुर धुन व सधे हुए हाथों से बजती नौबत आज भी शहनाई के कद्रदानों के कानों में मिश्री सी मिठास घोलती नजर आती है।
महज कुछ दशक पहले तक शादी-ब्याह में शहनाई बजती थी। वहीं समय के साथ शहनाई की रस घोलती मिठास बैंड-बाजों के साथ डीजे के धुन में दब गई। आज इसके कलाकार बेरोजगार होकर दर-दर के ठोकरें खा रहे हैं। इसके साथ ही कुछ कद्रदान इनकी तलाश करते भी हैं तो इनका अता-पता नहीं है।

By Editor