पूरी पार्टी एक ‘व्यक्ति’ में बदल गयी है और व्यक्ति एक ‘चेहरे’ में बदल गया है. इस चेहरे को ‘विचार’ कहा जा रहा है. लगभग सवा अरब लोगों से बने राष्ट्र का ‘एकमात्र’ विचार. ऐसे में राष्ट्रभक्त होने का मतलब है किसी एक व्यक्ति का भक्त होना, उस व्यक्ति के नाम का लॉकेट अपने गले में धारण करना, क्योंकि हर विपदा के वक्त एक अकेला वही संकटमोचक है!modi

चंदन श्रीवास्तव।।
(एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस)

ये वाक्य बुझौवल की तरह लग सकते हैं, लेकिन आज की तारीख में, आंखोदेखी सच्चाई में बदल चुके हैं. इन वाक्यों को कुछ ऐसे भी लिखा जा सकता है कि भाजपा अब मोदी में बदल चुकी है. अब वह कमल-छाप कम और मोदी-छाप ज्यादा है. याद कीजिए, आपने इस बार के चुनाव-प्रचार में कितनी दफे ‘कमल’ शब्द सुना या देखा है और फिर तुलना कर लीजिए इस गिनती की मोदी-नाम की आवृतियों-पुनरावृति से. बात एकदम आईने की तरफ साफ हो जायेगी कि भाजपा सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के वक्त मोदी-ब्रांड हो चली है.

एक व्यक्ति-एक विचार

नरेंद्र भाई मोदी स्वयं एक पासपोर्ट साइज फोटो (चेहरे) में बदल चुके हैं. उनका यह फोटो आपको टेलीविजनी परदे पर भाजपा के चुनावी विज्ञापनों से भी ज्यादा समाचारों में दिखता है. इस फोटो का एक संदेश (विचार) है. इसे विकास कहा जा रहा है. एक व्यक्ति के चेहरे पर चस्पा कर दिये गये विकास के इस विचार को सवा अरब की आबादी वाले राष्ट्र का एकमात्र विचार कहा जा रहा है. ऐसे में भारत-भक्त होने का अनिवार्य अर्थ हो चला है मोदी-भक्त होना. मतदाता के रूप में अपना वोट देने का अर्थ है मोदी को चढ़ावा देना, क्योंकि मोदी राष्ट्रदेव हैं. यहां चाहे तो याद करें, हर हर महादेव की तर्ज पर मोदी के प्रचार में बना नारा और जारी नवरात्र के बीच बनारस में ‘या देवी सर्वभूतेषु’ की तर्ज पर ‘या मोदी सर्वभूतेषु राष्ट्ररूपेण संस्थित:’ का गढ़ा गया श्लोक.

यह देश ऐन वोट की घड़ी में एक विचित्र दृश्य देख रहा है. अब तक उसके पास विकल्प रहता आया है अपने निर्वाचन क्षेत्र में विविध पार्टियों के प्रत्याशियों के बीच किसी एक के पक्ष में वोट डालने का. लेकिन इस बार, वह किसी प्रत्याशी को वोट नहीं डालने जा रहा है, वह किसी पार्टी को भी वोट नहीं डालने जा रहा है. देश के चुनावी लोकतंत्र में पहली बार हुआ है, जब मतदाताओं को समझाया गया है कि अपने क्षेत्र के भीतर चलनेवाले सत्ता-विमर्श को भूल जाइए, किसी प्रत्याशी को देख-परख कर वोट मत कीजिए, इस बार सीधे प्रधानमंत्री को चुनिए. बात को बदल कर कहें तो सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए होनेवाला चुनाव जन-प्रतिनिधियों का चुनाव नहीं है, वह किसी एक राष्ट्र-प्रतिनिधि का चुनाव है. भाजपा ने अपनी तरफ से 543 जन-प्रतिनिधियों के चुनाव को बस एक राष्ट्र-प्रतिनिधि के चुनाव तक सीमित कर दिया है. कहने को भाजपा ने 400 से ज्यादा प्रत्याशी खड़े किये हैं. लेकिन, इसके साथ ही साथ उसने अपनी तरफ से घोषित राष्ट्र-प्रतिनिधि यानी प्रधानमंत्री पद के दावेदार मोदी की छवि का विस्तार कुछ इस व्यापकता से किया है कि उसके हर प्रत्याशी के गले में मोदी-छाप लॉकेट लटक गया लगता है. भाजपा का प्रत्याशी चुनावी जंग में उतरा तो है, लेकिन अपने नाम-गुण के आधार पर कम और मोदी-छाप लॉकेट के करिश्मे के बूते ज्यादा.

पार्टी को मोदी-छाप बनानेवाली इस सोच का ही प्रमाण है कि भाजपा के भीतर चुनावी-रथ किसी का नहीं चल रहा, सिवाय मोदी के. लालकृष्ण आडवाणी अब पहले की तरह राम-रथ पर नहीं, बल्कि कोप-भवन में हैं. कभी सोनिया गांधी को टक्कर देनेवाली सुषमा स्वराज के चरचे कुछ इस कदर कम हैं कि मतदाताओं में शायद ही कोई जानता हो कि अबकी बार उनकी लड़ाई किससे है. अरुण जेटली अब गृह-त्यागी हैं. चुनावी-जंग के लिए दिल्ली छोड़ वे पंजाब-पलायन को प्राप्त हुए हैं. अकेले राजनाथ नजर आते हैं, लेकिन रथी के रूप में नहीं, ऐसे सारथि के रूप में जिसका ना रथ की गति पर नियंत्रण है, ना ही दिशा पर.
भाजपा की अखिल भारतीय मंच से कोई नहीं बोल रहा, सिवाय मोदी के. और, मोदी के बोल किसी नेता के बोल नहीं है, वे मोदीफेस्टो हैं. इस बार के चुनाव में एक अजूबा यह भी हुआ है. बीजेपी के मेनिफेस्टो की जगह मोदीफेस्टो ने हथिया ली है. टेलीविजन के पर्दे पर भाजपा के बलवीर पुंज ने पार्टी की तरफ से मेनिफेस्टो आने में हो रही देरी की व्याख्या में यह बताया कि ‘मोदी जी बोल तो रहे हैं, वे जो बोलें, वही मेनिफेस्टो है.’ काश, आपने उस इत्मीनान को देखा होता, जो एक लोकतांत्रिक देश में सार्वजनिक रूप से ‘मेनिफेस्टो’ को ‘मोदीफेस्टो’ में बदलते वक्त बलवीर पुंज के चेहरे पर विराजमान था.

मोदीफेस्टो

लोकतंत्र में मेनिफेस्टो बहस का दस्तावेज होता है, असहमतियों की गुंजाइश वाला एक दृष्टिपत्र. वह बाहर-भीतर बहुविकल्पी होता है, क्योंकि मेनिफेस्टो किसी एक पार्टी का नहीं होता, होड़ में अन्य पार्टियों के भी मेनिफेस्टो होते हैं. आप मतदाता के तौर पर उसमें से एक को चुन कर शेष को छांट सकते हैं. कोई एक मेनिफेस्टो भी स्वयं में एकार्थक नहीं होता. जरूरी नहीं कि किसी पार्टी का पूरा मेनिफेस्टो मतदाता के रूप में आपको एकदम माफिक जान पड़े. आप उसमें से कुछेक समाधान को मनमाफिक जान कर चुनते हैं. उसी आधार पर अपने प्रत्याशी का चयन करते हैं, फिर बननेवाली सरकार का मूल्यांकन. मेनिफेस्टो को मोदीफेस्टो में बदल कर भाजपा ने उसे एकार्थक बनाया. वह मेनिफेस्टो ना रहा, मोदी-मुख से निकला ब्रह्न्वाक्य हो गया. ना तुलना के लिए कुछ बचा, ना चुनने-छांटने को. क्या बलवीर पुंज के चेहरे का इत्मीनान बहुअर्थक मेनिफेस्टो को एकार्थक मोदी-वाक्य में बदलने यानी लोकतंत्र के चलन को उलटने का करिश्मा कर दिखाने की वजह से उपजा था?

मोदी को आगे बढ़ा कर चुनावों में लोकतंत्र का चलन भाजपा ने बुनियादी तौर पर बदलने की कोशिश की है. पहली बार इस देश के मतदाताओं के मन में बैठाया गया है कि वोट क्षेत्र के प्रतिनिधि को नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री पद के दावेदार को देना है. पहली बार प्रधानमंत्री पद के दावेदार के बोले हुए वाक्य को पार्टी के मेनीफेस्टो में बदला गया है. पहली बार हुआ है कि एक नेता मंचीय सज्जा की बदौलत सर्वशक्तिमान देवता के रूप में प्रतिष्ठित किया जा रहा है. राष्ट्र, पार्टी, प्रत्याशी, घोषणापत्र सब कुछ एक व्यक्ति में समाहित किया जा रहा है. सांख्य-दर्शन में इसे सृष्टि के प्रलयावस्था की संज्ञा दी गयी है- वह अवस्था जब नाम-रूप के भेद मिट जाते हैं और सब कुछ एक ही में लीन हो जाता है. आजाद भारत में इससे पहले सिर्फ एक दफे ऐसा हुआ था. तब ‘इंदिरा इज इंडिया’ कहा गया था और देश आपातकाल से गुजरा था. सोचिए, कहीं इस चुनाव के भीतर अधिनायकवाद की आहटें तो नहीं!

साभार प्रभात खबर

By Editor