अरुण कुमार मयंक आंकड़ों, दस्तावेजों और तथ्यों के आधार पर बताना चाह रहे हैं कि भारत के पसमांदा मुसलमानों की हकतलफी हिंदूवादी नेतृत्व नहीं, बल्कि खुद अशराफ मुसलमान करते रहे हैं.

मजहब के नाम पर देश का बंटवारा हुआ. पहले पाकिस्तान को आज़ादी मिली और फिर हिंदुस्तान को. देश में फिरंगियों के आने से पहले भी पसमांदा मुसलमानों को रजील (ज़लील) लिखा जाता था.ये रजील(ज़लील) मुग़लों के या अन्य आक्रमणकारी मुसलमानों के ग़ुलाम थे. फिरंगियों की हुकूमत के दौर में भी नवाब जागीरदार पसमांदा मुसलमानों के साथ ग़ुलामों का सा ही बरताव रखते थे.

यही वजह है कि इन जागीरदारों से पीछा छूटता जानकर पसमांदा मुसलमानों ने पाकिस्तान जाना गवारा नहीं किया और हिंदुस्तान में ही रहना अपने लिए फख्र समझा.

आजादी के आधी सदी से ज्यादा बीतने के बाद भी हिंदुस्तान के पसमांदा मुसलमानों के जेहन में आज भी एक सवाल कौंध रहा है कि पसमांदा मुसलमानों ने पाकिस्तान, जिन्ना व मुस्लिम लीग का विरोध किया तथा हिंदुस्तान को अपना मुल्क समझा. इसलिए पाकिस्तान में पसमांदा मुसलमानों को कयादत का मौका नहीं मिला, इसे एक हद तक जायज माना जा सकता है.

लेकिन हिंदुस्तानी जम्हूरियत में अब तक 14 राज्यपाल व 8 मुख्यमंत्री बने हैं, इनमे पसमांदा समाज को वंचित रखा गया है. क्या यह पसमांदा मुसलमानों के साथ सेक्युलर मुल्क का वाजिब इंसाफ है?
इसके विपरीत शुरू से लेकर आज तक पसमांदा मुसलमानों को तरह-तरह की मिसाल देकर सियासी और मज़हबी लीडरशिप से महरूम रखा जा रहा है तथा पीछे धकेलने का कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं दिया जाता हैं.

कलाम ने रोका कयूम को

फख्र-ए-कौम अब्दुल कयूम अंसारी ने 1938 में पटना सिटी से उपचुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस पार्टी में दरख्वास्त दी तो फॉरवर्ड मुसलमानों ने कहा कि अब तो जुलाहे भी एमएलए बनने का ख्वाब देखने लगे. इस पर अंसारी साहब दरख्वास्त लेकर फाड़ दी थी. सो अंसारी साहब ने 1946 में बिहार से अपने बूते चुनाव लड़ कर 6 सीटें जीतीं लेकिन अबुल कलाम आज़ाद ने मोमिन पार्टी के किसी विधायक को मंत्री नहीं बनाया. यहाँ पर खास तौर पर गौरतलब यह है कि सरदार पटेल ने हस्तक्षेप करके गांधीजी के मार्फ़त अबुल कलाम के रिश्तेदार शाह उमेरा का नाम कटवा कर अब्दुल कयूम अंसारी को मंत्री बनवाया.

देश की आज़ादी के बाद भारतीय संविधान सभा गठित की गई. इस की कई उप समितियों का भी गठन किया गया. इन्हीं में से एक का नाम था अकलियती तहफ्फुज़ कमिटी. इस कमिटी का कार्य अल्पसंख्यकों की बेहतरी के लिए संविधान सभा को अपनी राय देना था. इस सम्बन्ध में सरदार पटेल ने मशविरा दिया कि कुछ दलितों ने भी इस्लाम धर्म कबूल कर लिया है. इसलिए आरक्षण का लाभ मुस्लिम दलितों (पसमांदा मुसलमान) को भी मिलना चाहिए. अम्बेडकर भी यही चाहते थे. इसकी मुखालफत सिक्ख, बौद्ध, जैन, इसाई आदि मजहब के सदस्यों ने नहीं की, बल्कि इस कमिटी के मुस्लिम सदस्यों ने ही पसमांदा मुसलमानों के आरक्षण की मुखालफत की.

हद तो तब हो गई जब आन्ध्र प्रदेश विधान सभा में पसमांदा मुसलमानों के लिए 4 फीसदी आरक्षण हेतु लाये गए प्रस्ताव का विरोध मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलिमीन के विधायकों ने ही कर दिया और हैदराबाद के एक मुफ्ती ने यहाँ तक कह दिया कि पसमांदा मुसलमानों को दिया जाने वाला आरक्षण हराम है.

अब तक हुए 15 लोकसभा चुनावों में तक़रीबन 8000 सांसद चुने गए हैं. इनमे से यही कोई 700 सांसद मुसलमान हुए हैं, पर इनमे से सिर्फ 70 सांसद ही पसमांदा बिरादरी के रहे हैं. कई पसमांदा बिरादरी के नुमाइन्दे तो अभी तक लोकसभा, राज्य सभा, विधान सभा तथा विधान परिषद् का मुंह तक भी नहीं देख पाए हैं. पिछड़े समाज के हकूक के लिए लड़ने वाले पिछड़ों के नेता भी पसमांदा मुसलमानों को कयादत सौंपने को तैयार नहीं हैं. विभिन्न मसलकों के आलिम भी उंच-नीच की खाई को कायम रखने के लिए इस्लाम की दुहाई देकर पसमांदा मुसलमानों के खिलाफ नित्य नए फरमान जारी करके पसमांदा अकलियत को ज़लील करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं.

संक्षेप में, जो लोग पसमांदा मुसलमानों को गुमराह करके मजहबी सियासत करके जोश दिलाते हैं तथा कहते हैं कि इस्लाम खतरे में है एवं मुसलमान पिछड़ रहा है आदि-आदि, ये लोग सदियों से पसमांदा मुसलमानों को जेहनी तौर पर गुलाम बना कर रखा है और आगे भी बनाये रखना चाहते हैं. हिंदुस्तान में आज तक किसी मुस्लिम पार्टी, तंजीम व किसी भी राजनैतिक पार्टी के मुस्लिम नेता ने पसमांदा मुसलमानों की कोई फ़िक्र की है, बल्कि समूचे मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करने की ढोंग करते रहते हैं. और यह मांग भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण नियमों के सर्वथा प्रतिकूल है. इस प्रकार आज़ादी के 65 साल बाद भी देश के पसमांदा मुसलमान ज़िल्लत भरी ज़िंदगी जी रहे हैं या फिर जीने को विवश हैं.

लेखक स्वतंत्र पत्रकार व बिहार क्रिएटिव थिंकर्स के संस्थापक हैं

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