योग दिवस पर आयोजित विशेष योग शिविर में सूर्य नमस्कार पर छिड़े विवाद के  अपने-अपने निहतार्थ हैं. आखिर क्या है इस विवाद के पीछे का असल मामला?YOGA

तबस्सुम फातिमा 

सूर्य नमस्कार के बाद योगदिवस पर वाद—विवादों के लम्बे सिलसिले की शुरूआत हो चुकी है।  केन्द्र सरकार योग के निर्धारित कार्यक्रम से सूर्य नमस्कार को हटा कर मुसलमानों को भरोसे में लेना चाहती है कि इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। योग की पैरवी करने वाले योगी आदित्यनाथ पर सपा नेता आजम खान का बयान भी इन दिनों विवादों में है कि योगी नमाज पढ़ें, इससे सेहत बनी रहेगी। विदेश मंत्री सुष्मा स्वराज का तर्क है कि योग में श्लोक की जगह पर मुसलमान अल्लाह का उच्चारण कर सकते हैं। देश के 68 वर्ष के इतिहास में पहली बार योग को गौरव का विषय बनाया गया, और ऐसे गौरव—कार्य करने वाले योग गुरू स्वामी राम देव और आरएसएस चीफ मोहन भागवत को केन्द्र सरकार पहले ही जेड सेक्यूरिटी का उपहार दे चुकी है।

हिंदुत्व थोपने की पहल

मुस्लिम संगठनों के विरोध जताने पर उन्हें मानवता का दुश्मन’ ठहराने के उत्तेजक बयान राजनीति षड्यंत्रों का आभास दे रहे हैं, इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता। क्या यह हिन्दुत्व को थोपने और मुसलमानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने की पहली चेतावनी है? जो सरकार की ओर से पूरी मजबूती के साथ दी जा रही है? जमीअत उलेमा ए हिन्द और दूसरे मुस्लिम संगठन भले इस तर्क को पेश करें कि नमाज में योग है, लेकिन नमाज योग नहीं, इस तर्क की हैसियत तब नहीं रह जाती जब सोचे—समझे मंसूबे के साथ केन्द्र सरकार और आयूष मंत्रालय मुसलमानों को भी योग दिवस मनाने पर मजबूर कर रही हो। क्या पांव पसारते हिन्दुत्व अभियान तक यह आवाज पहुंचेगी कि एक दिन में पांच बार नमाज अदा करने वाले मुसलमानों को योग की कोई जरूरत नहीं है? इसीलिए सेहत के बहाने धर्म पर सेंघ लगाने की यह केन्द्र सरकार की पहली मजबूत पहल लगती है। और यदि दबाव में यह तीर चल गया तो भविष्य में सूर्य नमस्कार से लेकर शिव पूजन तक मुसलमानों को घेरने की कार्रवाई में आरएसएस बनाम केन्द्र सरकार को कोई बाधा नहीं आयेगी।

दबाव में अल्पसंख्यक

पिछले एक वर्ष में भाजपा, शिव सेना, आरएसएस सरीखे नेताओं के इस्लाम विरोधी उत्तेजक बयानों ने विश्व का भी ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। इसमें शक नहीं कि पहली बार मुसलमानों को इस एक वर्ष की अवधि में आभास हुआ कि मेक इन इंडिया की जगह केन्द्रीय सरकार हिन्दुत्व के विकास के फार्मूले पर काम करती हुई अल्पसंख्यकों पर भारी दबाव बनाने का काम कर रही है। चर्च पर हमले से लेकर मस्जिदों पर हमले की कार्रवाई सुनियोजित मंसूबों की कड़ी है और इस कड़ी में लगातार अपराधी छवि वाले अधिकारियों को क्लीन चिट मिलती जा रही है।

साथ ही ऐसे लोगों की बड़े ओहदों पर बहाली भी सामने आ रही है। इसके विपरीत हाशिमपुरा प्रभावितों पर हुए अन्याय के साथ लगातार मुसलमानों पर शिकंजा कसता जा रहा है। ताजा घटना में देखें तो आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार लोगों का मुकदमा लड़ रहे महमूद पराचा को कार्टरूम से बाहर जान से मारने की धमकी दी जाती है और कहा जाता है कि दहशतगर्दों के वकील भी दहशतगर्द होते हैं।

अभी हाल में आतंकवाद के फर्जीवाड़े से मुक्त हुए एक मुफ्ती अब्दुल क़य्यूम अहमद हुसैन ने भी ‘ग्यारह साल सलाखों के पीछे’ शीर्षक से किताब लिख कर अपना दुख व्यक्त किया कि मैं एक मुफ्ती हूं, दहशतगर्द नहीं हूं। कुछ वर्ष पूर्व अभिनेता शाहरूख खान ने अपनी फिल्म ‘माई नेम इज़ खान’ में भी इसी दुख को दर्शाया था.

एक वर्ष के भीतर भय के इस मनोविज्ञान का शिकंजा लगातार आम मुसलमानों पर कसता जा रहा है। शिवसेना के संजय रावत ने कहा, मुसलमानों से वोट देने का अधिकार छीन लो। इमरजेंसी लगाकर मुसलमानों की नसबंदी करो, घर वापसी, बहु लाओ बेटी बचाओ, जैसे उत्तेजक बयान के पीछे भी मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने का खतरा मौजूद है।

 

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