इसे हिन्दी की बिडंबना कहें या उद्योगवादी विकास मॉडल से प्रेरित सता की नीति से उपजी मानसिकता का दुष्परिणाम। कारण कुछ भी हो लेकिन सच यह है कि बिहार की राजधानी पटना स्थित फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी भवन के आंगन में अंग्रेजियत का माहौल पैदा हो चुका है।

रेणु
रेणु

अनंत

पूंजीवाद से प्रेरित मैनेजमेंट की शिक्षा प्राप्त कर रहे चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान के छात्रों से लेकर वरीय पदाधिकारी तक को ना तो हिन्दी से प्यार है और ना ही अमर कथाकार रेणु से। अंग्रेजीदां माहौल और अर्थ कमाने की शिक्षा बांटने वाली संस्था ने अमरकथाकार रेणु को अपने घर में बेगाना बना दिया है। फिर भी साहित्यकर्मी व संस्कृतिकर्मी के बीच कोई हलचल नहीं दिख रही है।

आखिर ऐसा माहौल रेणु की नगरी में क्यों है ? क्या पूंजीवाद ने मार्क्सवादी से लेकर समाजवादी तक को व्यक्तिवादी बना दिया है। लगता तो ऐसा ही है। शायद यही वजह है कि हिन्दी भवन में देशज माहौल पैदा करने का पहल सिविल सोसाइटी की ओर से नहीं की गयी। ऐसा होना लाजिमी भी है. दरअसल सूबे बिहार में साहित्य और संस्कृति की सेवा के नाम पर वैचारिक राजनीति और जातीय गोलबंदी का दबदबा दशकों से कायम रहा है।

साहित्य और संस्कृति के संरक्षक रहे रेणु के साथ हो रहे इस क्रूर मजाक के लिए जिम्मेवार वे लोग भी कम नहीं हैं , जिनकी बेहतरी के लिए रेणु ने मैला आंचल की रचना की थी. कंग्रेसी हुकूमत का खात्मा और समाजवाद की स्थापना के लिए साहित्य सृजन किया था और पद्मश्री का त्याग कर जयप्रकाश आंदोलन को नया मोड़ दिया था। इसी आंदोलन के उपज रहे लालू , नीतीश , रामविलास और मोदी सरीखे नेता आज सता पक्ष से लेकर विपक्ष में बैठे हैं। उन्हें समाजवाद के वैचारिक पक्षों से कोई सरोकार नहीं है। सामाजिक राजनैतिक कार्यकर्ता महेन्द्र सुमन कहते हैं कि कोई सरकार अपने साहित्य व संस्कृति को संरक्षित किए बिना समावेशी विकास का दावा कैसे कर सकता है ?

हिन्दी साहित्य और संस्कृति के लिए विशेष माहौल बनाने के उदेश्य से ही जाबिर हुसेन ने हिन्दी भवन के निर्माण की परिकलपना की। इसके लिए उन्होने अपने सरकारी बंगले को ही चुना। शहर के हदयस्थल पर स्थित इस भवन को हिन्दी साहित्य व संस्कृति को समर्पित करने का फैसला किया। इस महत्वांकांक्षी योजना के लिए उन्हांेने अपने विकास निधी से वर्ष 2004-2005 और 2005-2006 धनराशि उपलब्ध करवायी। भवन निर्माण का कार्य चल ही रहा था कि बिहार की राजनीति ने अपना मुकाम बदला और नीतिश कुमार सूबे के मुख्यमंत्री बन बैठे। वहीं लालू प्रसाद के शासन काल से ही रेणु का आदमकद प्रतिमा स्थापित करने की मांग करने वाली संस्था रेणु विचार मंच ने हिन्दी भवन का नाम अमरकथाकार रेणु को समर्पित करने की मांग कर डाली। दरअसल बिहार की सŸाा के सारथी बदले जाने के साथ ही रेणु विचार से जुड़े रेणु प्रेमियों के बीच आशा की किरण जगी थी कि अब रेणु के नाम पर कुछ कार्य अवश्य होगा।

ऐसा होना लाजिमी भी था। क्योंकि लालू प्रसाद की सता पर रेणु को सम्मान देने की जगह रेणु की अपमानित करने का आरोप साबित हो चुका था। बताते चलें कि छात्र आंदोलन की उपज लालू प्रसाद जब 1990 में सता में आये तो 4 मार्च 1992 को रवीन्द्र भवन में रेणु की आदमकद प्रतिमा बनाने की घोषणा की. रेणु के राजेन्द्र नगर आवास के पास स्थित गोलंबर पर रेणु की आदमकद प्रतिमा लगाने के लिये स्थल का चयन किया गया। इसके बाद रेणु विचार मंच द्वारा रेणु का शिलापट लगाकर रेणु की जयंती और पुण्य तिथी का आयोजन उस स्थल पर किया जाने लगा। हिन्दी दिवस के अवसर लालू प्रसाद ने पुनः घोषण की कि रेणु की प्रतिमा उसी स्थल पर स्थापित की जायेगी। लेकिन वर्ष 1995 में रातों-रात सी0पी0आई के कामरेडों ने उक्त स्थल पर पटना के पूर्व सांसद रहे कामरेड रामावतार शास्त्री की प्रतिमा जबरन लगा दिया। स्वयं को बुद्धिमान समझने वाले कामरेड भी यह भूल गये कि ये वही रेणु हैं जिन्होंने पूर्णिया के राजा पी0 सी0 लाल से लड़ाईयां लड़ी थी। जमींनदारी जुल्म, सामंती शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद किया था। किसान आन्दोलन समाजवादी आंदोलन, नेपाल-का्रति से लेकर आजादी की लड़ाई तक में उनकी अहम भूमिका रही थी।fanishwarnath-renu

प्रख्यात समाजवादी चिंतक मस्तराम कपूर ने विशेष साक्षात्कार में कहा था कि:- आजादी के बाद नेहरू ने गांधीवाद को दरकिनार कर देश की राजनीति को पश्चिमी राजनीति से जोड़ दिया। वहीं प्रगतिशील या वामपंथी लेखकों ने कांग्रेस की मदद से साहित्य पर कब्जा लिया। जो मार्क्सवादी नहीं होता था उसे लेखक नहीं समझा जाता था। जैनेन्द्र और यशपाल समेत कई लेखक इस राजनीति के शिकार हुये। लोहिया इस समझ को खरिज करने में सफल रहे। परिणामस्वरूप बेनीपुरी, रेणु ,रघुवीर सहाय समेत कई लेखक सामने आये जरूर लेकिन इनका सम्मान ये लोग दिल से नहीं करना चाहते है। मस्तराम कपूर के शब्दों में काफी दम भी है। क्योंकि रेणु ने भी लिखा है कि मार्क्सवादियों ने काफी परीक्षा ली है। दरअसल रेणु जब तक जीये मार्क्सवादियों को परीक्षा देते रहे और दिवंगत होने के बाद मार्क्सवादियों के गुस्सा के शिकार भी हुये। साहित्यिक राजनीति के शिकार रहे सियासत के शिकार दिवंगत होने के बाद भी हाते रहे। सियासत भी वक्त के साथ मुकाम बदलता रहा। इसी दौर में बदलाव और विकास की राजनीति करने में जुटे नीतिश कुमार रेल मंत्री के पद पर आसीन थे। रेल मंत्री के पद पर रहते हुए नीतिश ने पटना जंक्शन पर रेणु पुस्तकालय स्थापित किया था और रेणु साहित्य का खरीद भी करवाया था।

मुख्यमत्री के पद पर काबिज होने के नीतीश कुमार ने स्वयं को रेणु प्रेमी साबित करने के लिए हिन्दी भवन को देशज अस्मिता के पहले कलमकार फणीश्वरनाथ रेणु के नाम समर्पित कर दिया। इसके साथ ही साथ इस भवन को चंद्रगुप्त प्रबंधन संस्थान के हवाले कर दिया। यह पिछले छह सात वर्षो से निर्बाद्ध रूप से चल रहा है। साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियो का आयोजन कभी नहीं किया गया। रेणु जयंती के अवसर पर भी यहां कोई कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया जाता है। वरिशष्ठ साहित्यकार खगेनद्र ठाकुर कहते हैं कि सूबे में स्थापित भाषाई अकादमियों के पास भी अपना भवन नहीं है। सरकार को चाहिए कि किराये पर चल रहे भाषाई अकादमियों का दफतर हिन्दी भवन में शिफट करे।

साहित्यकार सह राजनेता प्रेम कुमार मणी की दिली ख्वाहिश है कि इस भवन को साहित्यिक-सांस्कृतिक समागम स्थल के रूप में परिणत किया जाए। इन साहित्यकारों की मंशा और राय कुछ भी हो। लेकन वे इस स्थल को खाली करवाने के लिए कोई कारगर कदम उठाने की बात नहीं करते हैं। क्या सच है कि बुद्धिजीवी उस वक्त चुप्पी साधे रहेगें ? जब तक चन्द्रगुप्त प्रबंधन संस्थान का भवन निर्माण कार्य पुरा न हो जाए ?

परिचय:- लेखक स्वतंत्र पत्रकार सह शोधार्थी हैं तथा पटना विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में एम0 ए0 की शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं.

By Editor