राजद प्रमुख लालू यादव और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में वैचारिक रूप से अनेक मतभेद हो सकते हैं। सत्ता की लड़ाई में एक-दूसरे को शिकस्त देने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन सामाजिक स्तर पर दोनों में जबदस्त समानता है। दोनों का जन्म स्वतंत्र भारत में हुआ। दोनों ने सामाजिक प्रताड़ना झेली है। नरेंद्र मोदी चाय बेचते थे तो लालू यादव दूध बेचते थे।

 वीरेंद्र यादव


दोनों का राजनीति ही धंधा-पानी है। वोटों के गणित और समाजशास्त्र में माहिर हैं। लालू मंडल की राजनीति करते हैं और मोदी कमंडल की। लालू यादव ‘भूराबाल’ साफ करने की बात करते थे और नरेंद्र मोदी ने भूराबाल ‘फूंक’ दिया। लालू यादव ने भूराबाल के पनपने की संभावना छोड़ दी थी, लेकिन नरेंद्र मोदी ने भूराबाल का ‘जड़’ ही मिटा दिया।
लालू यादव ने सवर्णों की सामाजिक सत्ता को चुनौती थी और उसकी जड़ को हिस्सा दिया था। राजनीतिक और सामाजिक संस्थाओं पर से सवर्णों का आधिपत्य उखड़ गया था। इसके खिलाफ सवर्ण गोलबंद होकर नया राजनीतिक विकल्प गढ़ रहे थे। यानी लालू की रणनी‍ति के बीच सवर्णों में संघर्ष की धुकधुकी बची हुई थी। लेकिन नरेंद्र मोदी की चाल से सवर्णों का स्वाभिमान ध्वस्त हो गया। कल तक झोला में प्रतिभा का ‘नगाड़ा’ लेकर घुमने वाला सवर्ण समाज अब झोले में जाति प्रमाण और आय प्रमाण पत्र का आवेदन लेकर घुम रहा है। सड़कों पर आरक्षण के खिलाफ ‘आत्मदाह’ करने वाला सवर्ण युवा आज सीओ कार्यालय में जाति प्रमाण पत्र के लिए लाइन में खड़ा है।
नरेंद्र मोदी ने तथाकथित गरीब सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण देकर सवर्णों के स्वाभिमान और श्रेष्ठता को ध्वस्त कर दिया है। श्रेष्ठता का दावा करने वाला सवर्ण समाज अब गरीब होने का दावा करने में उलझ गया है। लालू यादव सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में सामाजिक स्तर पर सवर्णों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाये थे। जबकि नरेंद्र मोदी ने सवर्णों को आरक्षण का ‘नया पतरा’ थमा कर उनका गरुर को मटिया‍मेट कर दिया। वजह साफ है कि लालू यादव सवर्णों के खिलाफ आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहे थे, जबकि नरेंद्र मोदी ने सवर्णों के अंदर से स्वाभिमान में दीमक लगा दिया है। सवर्ण आरक्षण के नाम पर जश्न मनाने वाला समाज आरक्षण के दीमक से घुन जाएगा। 50 प्रतिशत के लिए संघर्ष करने वाला समाज 10 प्रतिशत के लिए संघर्ष करेगा।
दरअसल नरेंद्र मोदी ने लालू यादव के सपने का साकार किया है। लोहिया, कर्पूरी ठाकुर और लालू यादव के दशकों के संघर्ष ने सामाजिक परिवर्तन जो काम नहीं कर सका, वह काम नरेंद्र मोदी के एक निर्णय ने कर दिया। इसका लाभ आ‍खिरकार ओबीसी समाज को ही मिलेगा। इससे ओबीसी समाज का सामाजिक उन्नयन के साथ उनका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। इसका दूरगामी प्रभाव होगा।

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