SP-BSP Alliance की घोषणा के बाद कुछ विश्लेषक उत्तर प्रदेश के वोटरों के मिजाज की परवाह किये बिना नतीजे निकालने में लगे हैं. जबकि पिछले ती लोकसभा चुनाव परिणामों के रुझानों को देखें तो साफ होता है कि कांग्रेस को कम आंकने वाले मुगालते में हैं.

अमित कुमार का विश्लेषण

2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सपा से गठबंधन करना चाहती थी, सपा के तत्कालीन प्रमुख उसे अधिक मज़बूर समझ बैठे। वह कांग्रेस को बमुश्किल 16-17 सीटें देने को राजी थे। तब कांग्रेस मात्र 30 सीट मांग रही थी। चुनाव परिणाम आया तो सपा को 23, कांग्रेस को 21 सीटें, और कांग्रेस की गठबंधन सहयोगी आरएलडी को 5 सीटें। बसपा को 20। बीजेपी दस पर सिमट गई थी। मतलब कांग्रेस गठबंधन 26 सीटें लेकर सबसे बड़ा दल बन गया था।

 

तब अखिलेश यादव दो सीटों से लड़े थे, लिहाज़ा, उन्होंने अपनी एक सीट फिरोजाबाद छोड़ दी। उपचुनाव हुआ, मुलायम सिंह यादव ने अपनी पुत्रवधू डिंपल यादव को उम्मीदवार बनाया था। कांग्रेस के राजब्बर चुनाव लड़े थे, डिंपल हार गई थी। और इस तरह कांग्रेस और सपा की सीटें 22-22 बराबर हो गयी थी।

SP-BSP Alliance पर सस्ता विश्लेषण

मेरी समझ है कि कोई कतई सस्ता विश्लेषण न करें थोड़ा तथ्यात्मक रहें। 2009, 2014 के चुनाव परिणाम के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश के मतदाता राष्ट्रीय रुझान के अनुरूप देश में जो पार्टी सरकार बनाने की स्थिति में होती है, उसका ही समर्थन करते हैं। 2009 से पूर्व कांग्रेस का यूपी में बुरा हाल था, तब भी वह लोकसभा सीटों के लिहाज से वहां की सबसे बड़ी पार्टी बनी थी।

 

वहीं 2014 से पहले यूपी में बीजेपी की दुर्गति थी, तब भी उसने सबको पूरी तरह मटियामेट कर, प्रचंड जनादेश उत्तर प्रदेश में हासिल किया था।

 

एक तथ्य और गौतलब है कि बसपा लोकसभा चुनाव में कभी बड़ी ताकत नहीं रही है। 1999 से आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो अंदाज़ा हो जाएगा। 1999 में यूपी से 14, 2004 में 19, 2009 में 20 और 2014 में शून्य। एक और तथ्य काबिलेजिक्र है कि 2009 का लोकसभा चुनाव तब हुआ था जब यूपी में दशकों बाद एक दल की पूर्ण बहुमत की सरकार बनी थी।

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मायावती बीजेपी के सहयोग के बिना अपने दम पर पहली बार मुख्यमंत्री बनी थी।कानून-व्यवस्था में सुधार का श्रेय भी उनकी सरकार को दिया जा रहा था। उस समय 2009 के लोकसभा चुनाव में बसपा अपनी अध्यक्ष बहन कुमारी मायावती को देश का प्रधानमंत्री बनाने के मकसद से पूरे दम-खम के साथ चुनावी जोर-आज़माइश कर रही थी। बसपा का नारा था — ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, बटन दबेगा हाथी पर।’ हश्र वही हुआ जो अमूमन लोकसभा चुनाव में बसपा का होता रहा है। 80 लोकसभा सीटों में महज़ बीस सीटें मिली थी। ऐसे में आज उनका प्रधानमंत्री बनना दूर की कौड़ी नज़र आती है।

 आंकड़ों में  कांग्रेस 

वहीं कांग्रेस 2014 को छोड़ दें तो बुरे-से-बुरे दौर में भी लगभग दस सीटें हासिल करती रही है। 2004 में नौ सीटें थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का बुरा हाल उसके भाड़े के हवा-हवाई चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की वजह से हुआ। कांग्रेस को प्रायः दोयम दर्जे की सीटें दी गयी, जिसमें से अधिकांश पर हार चुनाव से पहले ही तय थी। इसके लिए एक तथ्य पर गौर करें कि कांग्रेस का आंकड़ा विधानसभा में कब दस से कम आया है? सिर्फ 2017 में यह स्थिति पैदा हुई। अन्यथा, अमूमन 25 सीटें अवश्य जीतती थी।

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इन तथ्यों के आईने में देखें तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की संभावनाओं और उसकी हैसियत के मूल्यांकन में प्रायः विश्लेषक पूर्वाग्रह ग्रसित नज़र आते है। देखने वाली बात है कि सिर्फ 2014 के आधार पर किसी भी गठबंधन में सीटें नहीं बांटी जा सकती है। तब सबका बुरा हाल था। 2009 के चुनाव पर निगाहें देते तो अधिक तथ्यात्मक विश्लेषण होता। तब कांग्रेस बसपा से अधिक सीटें और सपा से मात्र एक कम सीटें जीती थी।

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वर्त्तमान विधानसभा में हैसियत के अनुसार विश्लेषण करें तो फिर 19 विधानसभा सीटों वाली बसपा को 38 सीटें देना भी कहां की समझदारी है? थोड़ा उससे भी आगे चलें तो 2014 से पूर्व के दो चुनावों पर गौर करें तो बीजेपी 2004 और 2009 में बमुश्किल दहाई के आंकड़े को पार कर रही थी।लेकिन 2014 में वह सबका सूपड़ा साफ कर देती है।

BSP की हकीकत

बसपा विगत दो लोकसभा चुनावों में मिली सीटों के आधार पर तीसरे और चौथे-पांचवें नम्बर की पार्टी रही है। इसलिए अगर विश्लेषणकर्ता अपनी राजनीतिक विचारधारा के प्रभाव से थोड़ा मुक्त होकर विश्लेषण करें तो शायद बेहतर विश्लेषण कर सकेंगे।

By Editor