जेएनयू के छात्र संजीव वोट डालने बिहार में अपने गांव पहुंचे लेकिन उन्होंने वोटिंग का जो नजारा देखा तो देश के लोकतंत्र पर गर्व करने के बजाये शर्म से सिर झुकाये दिल्ली वापस पहुंच गये, आखिर क्यों?voting.nawada

संजीव कुमार अंतिम

नवादा शहर से 5 किमी पश्चिम में बसे सिसवां गाँव में 90% से अधिक आबादी भूमिहारो और ब्राह्मणों की है। इस गाँव की गिनती हमेशा से जिले के सबसे अधिक आबादी वाले संपन्न गांवो में होती रही है। यहाँ लगभग ढाई हजार से भी अधिक मतदाता नामांकित हैं।

तीन दशक पूर्व तक इस गाँव में कुछ मुसहर, कहांर जैसी दलित जातियों के लोग भी इस रहते थे। पर आज उनपर सुअर पालने, गन्दा रहने और गाँव को गन्दा करने का आरोप लगाकर गाँव से कुछ दूरी पर गाँव की नदी और नहर किनारे बसाया जा चूका है।

इस गाँव में बिजली, टेलीफोन, पुस्तकालय, स्वस्थ्य केंद्र, आदि सत्तर के दसक से ही उपलब्ध है पर वहीँ से दो सौ मीटर की दुरी पर मुसहरों की बस्ती में आज भी बिजली का एक बल्ब तक नहीं है। कहने को तो बहुत कुछ है इस गाँव के बारे में पर फ़िलहाल चुनाव का माहौल है, इसलिए चुनाव के बारे में बात हो तो बेहतर हो.

बोगस वोटिंग

10 अप्रैल को यहाँ नवादा में चुनाव होना था। 27 वर्ष का हो गया हूँ पर घर से बहार दिल्ली में पढाई करेने के कारण आज तक कभी मतदान नहीं किया था। पहली बार लगा कि अगर इस बार मतदान नहीं किया तो मुझसे मतदान का हक़ छीन लिया जान चाहिए। विद्यार्थी हूं और वो भी सेल्फ-फाय्नेंसड, हजार रूपये खर्च कर मतदान करना महंगा लग रहा था पर क्या करें मन जो नहीं मान रहा था। 10 अप्रैल को सुबह लगभग पांच बजे गाँव पहुंचा.फिर मतदान केंद्र जाने से पहले मैंने मुसहरो की उस बस्ती में जाना अधिक जरुरी समझा जहाँ के लोग मुझे कुछ वर्षो से आशा के नजर से देखा करते थे।

इधर मतदान केंद्र पर धड़ल्ले से मतदान हो रहा था। बहुत कम ही मतदाता दिख रहे थे। किसी प्रकार की कोई अशान्ति होने से पहले गाँव से बाहर रहने वाले अपने भाई, बहन या गाँव के किसी भी हम उम्र के बदले मतदान कर रहे थे। वैसे इसमें गाँव की औरतें, मर्दों से आगे थी या यूँ कहें कि उन्हें आगे करवाया जाता था ताकि मतदान अधिकारी ज्यादा विरोध नहीं कर पायें। एक-एक मतदाता अपनी पांचो उंगली स्याही से रंगाने के बाद भी दम नहीं ले रहे थे।

बेबस मतदान अधिकारी

ऐसे में मतदान अधिकारी भी क्या करें? एक तो वो अपने घर से सैकड़ो मिल दूर थे, खाना पानी के लिए स्थानीय ग्रामीणों पर ही निर्भर थे और ऊपर से सवर्णों का गाँव जो लड़ने झगड़ने में कभी पीछे नहीं रहते। ऐसे गाँव में मतदान अधिकारीयों को भी बल तभी मिल पता है जब गाँव के मतदाता बटे हुए हों या कम से कम कुछ लोग बोगस (दुसरे के नाम पे मतदान) मतदान का विरोध करने वालें हों। हालाँकि इस गाँव के मतदाता मुख्यतः दो उम्मीदवारों (जदयु और बीजेपी) में लगभग बराबर बटे हुए थे पर दोनों पक्ष ने आपसी समझौता कर लिया था और दोनों पक्ष ही अपने अपने उम्मीदवार को बोगस मतदान करने में धड़ल्ले से जूट थे।

वैसे गाँव के बाहर रहने वालों का अनुपात गाँव के दलितों और मुसहरों में सबसे अधिक था पर बोगस मतदान के मामले में उनका योगदान नगण्य था। गाँव के मुसहर और दलित बोगस तो छोडिये, वो तो अपने खुद के मताधिकार के प्रयोग से डरते थे। कल तक वो गाँव के सवर्णों से डरते थे तो आज पुलिस और रक्षाकर्मियों से डरते थे। आज तक ये लोग सवर्णों के अधिपत्य से स्वंतंत्र नहीं हो पायें है। आज इनके वोटों का कुछ भाग एक तीसरे यादव वर्ण के उम्मीदवार को जा भी रहा है तो वो सिर्फ इसलिए कि गाँव का ही एक स्वर्ण उस यादव उम्मीदवार से पैसे लेकर उन दलितों से उसे मतदान दिलवा रहा है। गाँव के आधे से अधिक दलित और मुसहर उस एक स्वर्ण की बात इस लिए मान रहे हैं क्यूंकि वो स्वर्ण उनके लिए महाजन है और गाँव का ज्यादातर दलितों और मुसहरो ने उससे कर्ज ले रखा है। हालाँकि कुछ ऐसे मुसहर थे जो स्वतंत्र रूप से भी राजद के उस यादव उम्मीदवार को ही अपना वोट देना चाहते थे।

बीजेपी विरोध और दलित

वैसे इस गाँव के मतदाताओं के झुकाव और समर्थन को मैं वर्गीकृत कर सकूँ तो एक वर्गीकरण साफ़ झलकता है जिसमे तीस वर्ष से कम उम्र के ज्यादातर मतदाता बीजेपी के समर्थक है जबकि जदयू के ज्यादातर समर्थक चालीस और पचास को पार किये हुए है। कुछ परिवार तो ऐसे दिखे जिसके पिता ने जद यू को मत दिया पर बेटे ने बीजेपी को। वैसे ये वर्गीकरण वहां दलितों पर लागु नहीं हो सकता है क्यूंकि इनके हर उम्र वर्ग के मतदाता बीजेपी विरोधी है।

पैसे लेकर आपस में बांटे गये वोट

लगभग तीन बज चुके थे और मतदाताओं की भीड़ लगभग नगण्य हो चुकी थी। उधर गाँव के पास ही दो अन्य स्वर्ण बहुल गाँव से बीजेपी के उम्मीदवार को थम्पीइंग मतदान की सूचना मतदान केंद्र के पास जमावड़ा लगाये लोगो के मोबाइलों पर आ रही थी। ज्यादातर लोग विचलित नजर आ रहे थे। आखिर गाँव की इज्जत का सवाल था। इज्जत? हाँ भाई, जिला का सबसे बड़ा स्वर्ण बहुल गाँव और मतदान के मामले में पीछ ! आखिर गाँव के दोनों खेमे (बीजेपी और जदयू) में वोटों का बटवारा कर थम्पीइंग मतदान करने का गुप्त समझौता हो गया। तीसरा उम्मीदवार का समर्थक? उसमे तो एक ही स्वर्ण था जिसने सौ से डेढ़ सौ वोट के लिए राजद उम्मीदवार से पैसे लिए थे और उसने वो टारगेट मुसहरो और दलितों के वोट के सहारे पूरा कर चूका था।

लेकिन एक और रोड़ा था ?

मेरे द्वारा नरेन्द्र मोदी के खिलाफ गुजरात के डेवलपमेंट मॉडल पर चलाये जा रहे जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन के विद्यार्थियों के समग्र अभियान की खबर गाँव वालों को पहले से थी। मतदान के दिन एकाएक मुझे देखकर मतदान केंद्र पर जमे बीजेपी के समर्थक सबसे अधिक आशंकित थे। लोग मुझसे पूछ रहे थे कि मैंने किसको मतदान किया, जिसपर मेरा एक ही जवाब था “उसको जो बीजेपी के उम्मीदवार को हराने के सबसे करीब हो”।

दलित मतदाता और भाजपा

मामला साफ़ था, मैं उस तीसरे उम्मीदवार का समर्थन कर रहा था जिसे दलितों का ही कुछ वोट मिला था। लोग मेरे ऊपर व्यंगात्मक रूप से समाज-विरोधी (वर्ण-विरोधी) होने का आरोप लगा रहे थे पर साथ ही साथ मेरे शिक्षा के स्तर का सम्मान भी कर रहे थे और मेरे द्वारा मोदी विरोधी अभियानों का भी सम्मान कर रहे थे। उन्हें ये भी पता चल गया था कि जब मैं सुबह दलितों की बस्ती में गया था तो वहां के दलितों ने मुझसे यह सलाह मांगी कि वो किस मतदान करें तो मैंने उन्हें सलाह देने से मना कर दिया था और उनसे कहा कि ये अधिकार उनका है और ये फैसला उनको ही लेना है। मैंने सिर्फ उनसे इतना ही कहा कि गुजरात में मोदी जी की सरकार दलितों और आदिवासियों के लिए ही सर्वाधिक घातक रही है।

खैर, इधर मतदान केंद्र पर बीजेपी और जद यू के समर्थक मुझसे राजनितिक बहस के बहाने या किसी कार्य के बहाने मुझे उलझाने की कोशिश में लगे थे। अब तक गाँव के लोगो ने गाँव के दो में से एक बूथ के सभी मतदान कर्मियों और शुराक्षकर्मियो से तालमेल बना ली थी। मैंने भी स्थति भांप ली थी और लगातार मतदान केंद्र का चक्कर लगा रहा था। उसी दौरान मैंने मतदान भवन की खिड़की से थम्पीइंग होते देख लिया। इस बार मैं बेधड़क मतदान केंद्र में घुस गया और शुरक्षाकर्मियों समेत मतदान कर्मियों पर बरस पड़ा। खतरा देख शुराक्षकर्मी मुझे मतदान केंद्र के अन्दर ही रहकर सब कुछ पर निगाह रखने को कहने लगे। पर बीजेपी और जद यू दोनों के समर्थक इससे होने वाले नुकसान को भांप गए। लेकिन गाँव वालों का साथ पाकर शुराक्षकर्मी मेरे पे हावी होने लगे और मुझे जबरदस्ती मतदान केंद्र से बहार करने लगे।

चुनाव आयोग को शिकायत

इस बिच ना जाने कहाँ से गाँव के कुछ लोग मेरे समर्थन में भी खड़े हो गए थे। मैंने इलेक्शन कमीशन के जिला कार्यालय में घटना की सूचना फ़ोन से दे दी और दस मिनट के अन्दर तीन गाड़ी शुरक्षाकर्मी और मतदान अधिकारी आ गए और मतदान खत्म होने के बाद ही वहां से गए। पर सवाल ये उठता है कि अगर मतदान केंद्र के अन्दर बैठ सभी मतदान कर्मी मिले हो तो कोई कितना रोक सकता है? मैं रात की ट्रेन पकड़ कर ही दिल्ली आ गया पर बाद में फ़ोन पर पता चला कि अतिरिक्त शुरक्षाकर्मियों के आने के बाद भी कुछ अनुचित मतदान हुए थे।

खिंच-तीर कर गाँव में लगभग 50% मतदान हुआ। पुरे गाँव में शर्मिंदगी की लहर है कि ढाई हजार से ऊपर मतदाता होने के वावजूद गाँव से सिर्फ 1226 वोट ही पड़ पाए जबकि पड़ोस के ही एक अन्य सवर्ण बहुल गाँव में कुल 1900 मतदाता में से पंद्रह सौ से भी अधिक मतदान हुआ। गाँव के लोग इस बात से शर्मिंदा हैं कि वो भूमिहार समाज को और अपने उम्मीदवार (गिरिराज सिंह) को क्या मुह दिखायेंगे पर मैं इस बात से शर्मिंदा हूँ कि क्या यही है हमारी दुनियां का सबसे बड़ा लोकतंत्र?

संजीव कुमार अंतिम सामाजिक कार्यकर्ता, थियेटर एक्टिविस्ट और जागृति नाट्य मंच के संस्थापकों में से एक हैं.
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