भारतीय जनता पार्टी में साबिर अली के शामिल होने का विरोध दर असल मुस्लिम मनुवाद का प्रकटीकरण है. आज तक भारतीय जनता पार्टी में जो मुस्लिम चेहरे पहले से मौजूद हैं उनमें एक भी पसमांदा मुसलमान नहीं है. पार्टी ने हाल ही में एम जे अकबर को स्वीकार करके गर्वान्वित महसूस किया क्यों कि अकबर मुसलमानों के उच्चवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं.sabir

इर्शादुल हक

मुख्तार अब्बास नकवी द्वारा साबिर की इंट्री का जोरदार विरोध एक आपराधिक छवि वाले मुसलमान का विरोध नहीं है. क्योंकि साबिर अली के ऊपर मुख्तार नकवी ने आतंकवादियों से सांठ गांठ और आपराधिक चरित्र का जो आरोप लगाया है दर असल सच्चाई से उसका कोई लेना देना नहीं है.न तो साबिर पर आतंकवाद से जुड़े होने का कोई मामला है और न ही उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामले दर्ज है.

हो सकता है कि साबिर दाऊद इब्राहिम के रिश्तेदार हों, जैसा कि मुख्तार कह रहे हैं पर क्या दाऊद की रिश्तेदार से साबिर की शादी हो जाने मात्र से वह आतंकी हो जाते हैं?

ऐसे में साबिर का विरोध दर असल वही कर रहे हैं जो मुस्लिम मनुवादी सोच रखते हैं और जिनको इस बात का खतरा है कि भाजपा में हिंदू पिछड़ों के उभार से अगड़ी जाति के नेतृत्व को जो चुनौती मिली है, ठीक वैसी ही चुनौती मुख्तार अब्बास नकवी और सैयद शहनवाज हुसैन जैसे सैयदवादी नेताओं को मिल सकती है.

इस बात को समझने के लिए भारतीय जनता पार्टी के भीतर पिछले कुछ सालों में घटी घटनाओं के समाज शास्त्र को समझने की जरूरत है. याद कीजिए कि एक समय में इसी भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ी जाति से संबंध रखने वाले कल्याण सिंह और उमा भारती को कैसे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेक दिया था. वर्षों तक कल्याण और उमा को बनवास झेलना पड़ा. हालांकि इसका खामयाजा भारतीय जनता पार्टी को पिछ़ों में अपना जनाधार खोने के रूप में भुगता पड़ा. और यह बात भाजपा को तब समझ आयी जब काफी देर हो चुकी थी.

पसमांदा का विरोध

अगर भाजपा, मुख्तार नकवी के दबाव को स्वीकार करते हुए साबिर को पार्टीसे बाहर करती है तो मुसलमानों को साथ लेने का उसका सपना फिर नाकाम रहेगा.भारतीय जनता पार्टी के तीन दशक के इतिहास में यह पहली बार हुआ है के उच्च नेतृत्व के स्तर पर किसी पसमांदा मुसलमान को जगह मिली. लेकिन इसका सबसे पहला विरोध अगर किसी ने किया तो वह कोई और नहीं बल्कि मुख्तार अब्बास नकवी ने किया.

हालांकि यह बहस का एक अलग मुद्दा है कि किसी मौकापरस्त मुस्लिम नेता के भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने से आम मुसलमानों पर कोई खास असर नहीं पड़ने वाला लेकिन अगर बात प्रतीकों की जाये तो साबिर अली पसमांदा मुसलमानों के नेतृत्व के प्रतीक तो हैं ही. लेकिन मुख्तार अब्बास नकवी ने साबिर को दाऊद इब्रहिम और यासीन भटकल से जोड़ कर जिस तरह से विरोध शुरू किया है इसका नतीजा तुरत सामने आया और आरएसएस तक ने खुद को इस विरोध के साथ जोड़ लिया.

अगर भारतीय जनता पार्टी चाहती है कि वह मुसलमानों में स्वीकार्य हो, तो यह जरूरी है कि उसे सैयद घरानों के मुसलमानों से आगे सोचना होगा क्योंकि ऊंची जाति के मुसलमानों की आबादी 15 प्रतिशत से भी कम है जबकि सामाजिक रूप से पिछड़े या पसमांदा समाज के लोगों की आबादी ही मतदाताओं का बड़ा हिस्सा है.

साबिर की स्यासी मौत

जहां तक साबिर की बात है तो लोग जानते हैं कि साबिर अली नवधनाढ्य वर्ग से आने वाले एक ऐसे पसमांदा मुस्लिम का नाम है जिनने अपनी स्यासी महत्वकांक्षा के लिए हर वैचारिक धारा का अपनी दौलत के बल पर उपयोग किया है. साबिर अपने करियर की शुरूआत राष्ट्रीय जनता दल से करते हैं. जनाधार के नाम पर जमीन से कोसों दूर इस नेता को मतदाताओं ने जब रिजेक्ट कर दिया तो उन्होंने फिर वही खेल लोकजनशक्ति पार्टी के साथ खेलना शुरू किया. दौलत के बल पर वह लोजपा से राज्यसभा पहुंचे. और फिर 2009 के लोकसभा चुनाव और 2010 के विधानसभा चुनाव में कंगाल हो चुकी लोजपा के आशियाने को साबिर ने इसलिए तबाह कर के जदयू का दामन थामा कि उन्हें सत्ता चाहिए थी. सत्ता का सौदा करके जब साबिर जद यू पहुंचे तो उन्हें भरोसा था कि जद यू फिर राज्यभा भेजेगा. लेकिन जद यू ने साबिर की अवकात बताते हुए उन्हें राज्यसभा में रिपीट नहीं किया. इधर इस हवाई नेता को जद यू ने शिवहर से टिकट तो दिया पर साबिर को इस बात का बखूबी एहसास था कि लोकसभा की सीट जीत पाना उनके बूते की बात नहीं. ऐसे में साबिर ने फिर अपनी दौलत के बल पर भाजपा के बिहार नेतृत्व को प्रभावित करने की कोशिश की. बिहार नेतृत्व ने केंद्रीय नेतृत्व को साबिर को पार्टी में शामिल करने की सिफारिश कर दी. और केंद्रीय नेतृत्व ने इस सिफारिश को स्वीकार करते हुए उन्हें पार्टी में शामिल कर लिया.

लेकिन जिस तरह से भाजपा के अंदर साबिर का विरोध शुरू हो गया है उससे लगने लगा है कि साबिर अली असमय स्यासी मौत का शिकार होने वाले हैं. क्योंकि अब तक साबिर ने जिस तरह से एक पार्टी के नेता को धोखा देकर दूसरे में शामिल होते रहे हैं उससे यह लगभग तय हो चुका है कि उन्होंने खुद को इस लायक छोड़ा भी नहीं है कि उन पार्टियों का दरवाजा वह फिर से खटखटा सकें जिन्हें वह छोड़ चुके हैं. ऐसे में साबिर के लिए स्यासी मौत को गले लगाने के अलावा शायद ही दूसरा कोई विकल्प बचा है.

By Editor