आत्मविश्वास और  इच्छा शक्ति से लबरेज महिलायें  पत्रकारिता में  कदम तो रखती हैं पर पुरषों की सनक की शिकार होकर हाशिये पर  चली जाती हैं या फिर उनकी कलम की धार कुंद कर दी जाती है.women.journalism

अनिता गौतम

 

मीडिया में महिलाओं की भूमिका उनकी स्थिति और स्थान आज चौतरफा बहस का मुद्दा बना हुआ है। हर क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी को अनमने मन से भले स्वीकार किया जा रहा है पर उनकी वास्तविक स्थिति आज भी समाज में कमतर आंकी जाती है।

 

मीडिया संस्थानों में महिला पत्रकारों की स्थिति दोयम दर्जे की है इस कड़वे सच से इनकार नहीं किया जा सकता है। नारी विभेद की तस्वीर बिल्कुल साफ देखी जा सकती है।महिलाओं की स्थिति की समीक्षा जब कभी करने की कोशिश होती है तो वहां उसी क्षेत्र के पुरुषों कीकार्यशैली से की जाती है। फिर आकड़ों को ही आधार बनाया जाये तो पत्रकारिता में आज महिला कहां खड़ी हैं, खासकर पुरुषों की तुलना में तो उनकी असमान्य उपस्थिति को समझना मुश्किल नहीं होगा।दूसरे कार्यक्षेत्रों की तरह मीडिया में भी नारी विभेद का मतलब उनकी क्षमता को कम कर के आंकना,पुरुषवादी सोच और महिलाओं की दीन-हीन दशा का प्रस्तुतिकरण ही आधार बनता है।

महिला पत्रकार का मतलब महिलाओं की समस्या को समझने की कोशिश और उसी आधार पर लेखन की उम्मीद, व्यवहारिक समस्याओं के समाधान की पहल, समाज में स्त्री पर बर्बरता की कहानियों के आधार पर महिला पत्रकारों की लेखनी का बांधा जाना मीडिया में महिलाओं के लिये सर्वमान्य है

 

सबसे ज्यादा हैरानी इस बात पर होती कि स्त्री के आधुनिकीकरण और उनके, बराबरी के अधिकारों को भी मनोविज्ञान की कसौटी पर तराशा जाता है। नारी विभेद और मनोवैज्ञानिक आधार उन्हें संरक्षण की श्रेणी में लाता है पर खुल कर लिखने की आजादी से वंचित कर देता है।

महिला पत्रकार का मतलब महिलाओं की समस्या को समझने की कोशिश और उसी आधार पर लेखन की उम्मीद, व्यवहारिक समस्याओं के समाधान की पहल, समाज में स्त्री पर बर्बरता की कहानियों के आधार पर महिला पत्रकारों की लेखनी का बांधा जाना मीडिया में महिलाओं के लिये सर्वमान्य है।देश की राजधानी की बात अगर छोड़ दें तो छोटे-छोटे राज्यों और गांव कस्बों में महिला पत्रकार अपनी मूलभूत सुविधाओं तक से भी वंचित हैं।

 

यूं तो पत्रकार को किसी जेंडर में नहीं बांधा जा सकता है पर बात जब लेखनी और उसकी स्वतंत्रता की हो तो इस अलगाव को बड़ी सहजता से समझा जा सकता है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय के साथ साथ मीडिया घराने भी महिलाओं के साथ पत्रकारिता में बराबरी की अवहेलना करता आया है।आत्मविश्वास और दृढ़ इच्छा शक्ति से भरी महिलायें बड़ी संख्या में पत्रकारिता में अपने कदम रखती हैं परन्तु पुरषों की सनक भरी पत्रकारिता की शिकार होकर हाशिये पर ढकेल दी जाती हैं या फिर उनकी कलम की धार को कांट-छांट और संपादन के नाम पर कुंद कर दिया जाता है।

समय समय मीडिया में महिला की स्थिति की जो तस्वीर निकल कर आती है उस से पूरी पत्रकारिता शर्मशार होती है।बहरहाल मीडिया में महिलाओं की भागीदारी को जिस तरह से सम्मान मिलने की संभावनाओं पर विचार करने की जरुरत है उसमें उन्हें सुरक्षा, सहयोग, संकोच और विशेष सुविधाओं से बाहर लाना होगा। व्यवहारिक स्तर पर मानसिकता की बराबरी को तवज्जो देनी होगी।

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