राजनाथ सिंह मौजूदा दौर के चर्चित नेताओं में से एक हैं.जद यू से अलग होने के बाद वरिष्ठ पत्रकार देशपाल सिंह पंवार ने उनसे कई बैठकों में बातचीत की.rajnath

पेश है उनके साक्षात्कार का पहला हिस्सा

0-राजनाथ जी आप, अटल जी और आडवाणी जी के बाद दूसरी बार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने वाले तीसरे नेता?

देखिए ये मेरे लिए खुशी की बात है कि मुझे पार्टी ने इस लायक समझा। पर मुझे इस बात पर गर्व है कि मुझे आदरणीय अटल जी और आडवाणी जी का प्यार भी मिला और मार्गदर्शन भी। मैंने सबसे सीखा, अभी भी सीखता हूं पर मेरे लिए ये दोनों सर्वोपरि हैं। किसी को भी ये नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी आज इन दोनों के कुशल नेतृत्व की वजह से ही देश की सबसे बड़ी पार्टियों में है। मुझे जो जिम्मेदारी मिली, निभाने की कोशिश की पर आदरणीय अटल जी और आडवाणी जी ने ही तो हमें इस लायक बनाया। उनका स्थान और वो सम्मान भाजपा में कोई नहीं ले सकता। मैं तो कम से कम कतई नहीं। वो कहने को दो-दो बार भले ही अध्यक्ष रहे हों लेकिन मार्गदर्शन तो हमेशा उनका ही रहा। इस आंकड़ेबाजी पर हम जैसे नेता खुश हो सकते हैं।

0- पर राजनीति में पद से कद और कद से पद का फार्मूला ही तो सुपर हिट रहता है?

इससे इंकार नहीं किया जा सकता। पर दूसरी पार्टियों और भारतीय जनता पार्टी में अंतर है। भाजपा में मेहनत और काबलियत से चेहरे आगे बढ़ते हैं और सीनियर काबलियत पहचानकर ही ऐसे चेहरों को आगे लाते हैं। बढ़ाते हैं। उचित पद देकर मौका देते हैं कि वो पार्टी को मजबूत करें। आप कांग्रेस समेत किसी भी दल को ले लीजिए , वहां ज्यादातर चेहरे तो विरासत की कमाई पर राजनीति कर रहे हैं। वहां खैरात में पद मिल जाने का ना जानें कितने वाक्ये हैं?

0- क्या भाजपा इस स्थिति में है कि वो दावे से कह सके कि उसे ये रोग नहीं लगा?

2-4 उदाहरण आप दे सकते हैं लेकिन ये नहीं कह सकते कि नातेदारों और रिश्तेदारों को छोड़ बाकी के लिए भाजपा में केवल 2-4 ही पद हैं। भाजपा का आम कार्यकर्ता भी पार्टी के लिए तथाकथित अपनों से ज्यादा अजीज है। अगर किसी का रिश्तेदार कोई राजनीति में आता भी है तो उसी रास्ते से आएगा यानी मेहनत, काबलियत और काम से। बाकी पार्टियों की तरह नहीं कि कल किसी नेता के बेटे की शादी हो और आने वाली बहू अगले दिन विधायक या सांसद। या फिर सीट उसी खानदान में रहे तो इसके लिए दागी बेटे की शादी कराकर बहू को विधायक बना दो( दो साल पहले नीतीश ने ऐसा किया था)। बेटे को राजनीति की एबीसीडी ना आए और वो सीधा विधायक और सांसद हो जाए ये दूसरे दलों में होता है, भाजपा में नहीं। देख लीजिए एक दल में तो खानदान और रिश्तेदार तो छोडि़ए पड़ोसी तक नहीं बचे। सब सीधे विधायक और सांसद।

0- राजनाथ जी दागी क्या आपकी पार्टी में नहीं हैं? विधायक व सांसद बनने के लिए वहां भी चुनाव तो लडऩा ही पड़ता है?

देखिए-पहले ये तय हो कि दागी कौन है? अगर हमारा कानून उन्हें चुनाव लडऩे की इजाजत देता है तो फिर ऐसे में 2-4 नेता ऐसे जरूर आ जाते हैं। वो आते इसलिए हैं क्योंकि जनता उन्हें जिताती है। ऐसा कानून बन जाए और जनता ऐसे चेहरों को ना जिताए तो सब ठीक हो जाए। सबसे पहले हम लागू करेंगे। वादा रहा। रहा सवाल खानदान को आगे बढ़ाने वाली पार्टियों का तो देख लीजिए कितने चुनाव लडक़र संसद या विधानपरिषद पहुंचे। 3 चुनाव लड़ेंगे और 13 संख्याबल से माननीय हो जाएंगे यही तो वहां होता है। फिर उनका रिकार्ड उठा लीजिए कितने चेहरों ने 5-10 साल जनता के बीच बिताए? जनसेवा की?

0-भाजपा तो पिछली बार बसपा से बाहर हुए और जेल काट रहे बाबू लाल कुशवाहा तक को अपने दल में ले आई थी?

वो गलती जितनी जल्दी भाजपा ने सुधारी क्या बाकी पार्टियों में ऐसा आपने देखा या सुना है? हमारे यहां आंतरिक लोकतंत्र जितना मजबूत है उतना शायद ही किसी दल में हो। यहां कोई एक चेहरा फैसले नहीं करता। सामूहिक फैसले ही पार्टी में लागू होते हैं। बाकी जगह एक की छींक से भी सबको जुखाम हो जाता है।

फोटो साभार एमएसएन डाट कॉम
फोटो साभार एमएसएन डाट कॉम

0-अगर आतंरिक लोकतंत्र मजबूत है राजनाथ जी और सामूहिक फैसले होते हैं तो फिर नरेंद्र मोदी का मसला इतना विवादित क्यों है?

आपके सवाल में ही जवाब छिपा है। आतंरिक लोकतंत्र मजबूत है तभी ये बातें हो रही हैं। दूसरी पार्टियों में ऐसा इसलिए नहीं होता क्योंकि वहां वन मैन शो या वन आर्मी शो चलता रहता है। हमारे यहां बोलने की आजादी है। कुछ चेहरे यदा-कदा थोड़ा ज्यादा बोल जाते हैं। भाजपा परिवार की तरह चलती है। घर की तरह चलती है। यही हमारे संस्कार हैं। अगर कोई भाई नाराज है, कोई साथी कुछ कहना चाहता है तो यहां सुना जाता हैं। हां ये उम्मीद जरुर लगाई जाती है कि उचित जगह पर ही उचित बात की जाए। मैनें पहले भी कहा कि जो लोकप्रिय है वही नेता है। नरेंद्र मोदी इस देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। वो जनता के चहेते हैं। पार्टी कार्यकर्ताओं के चहेते हैं। सबकी यही चाहत थी। इसी चाहत पर संसदीय बोर्ड ने अपनी मुहर लगाई। ये सर्वसम्मत फैसला था। अकेले राजनाथ सिंह का नहीं। समय तय कर देगा कि ये फैसला सही था।

0-आडवाणी जी भी तो सामूहिक नेतृत्व की ही बात कर रहे हैं?

पूरी तरह भाजपा में सामूहिक नेतृत्व ही है। भाजपा उससे ना तो डिगी है और ना ही कभी डिगेगी। गोवा में सामूहिक फैसला ही किया गया। जो बातें निकलकर आ रही हैं वो सही नहीं हैं।

0- पर इससे राजग में एक टूट तो हो गई?

देखिए जद यू के नेता भी जानते हैं कि उन्होंने जो किया जल्दबाजी में किया। एक शख्स की खुशी के लिए गलत फैसला किया। कुछ समय के बाद उनको एहसास हो जाएगा। केवल नरेंद्र मोदी के कारण उन्होंने ऐसा नहीं किया। अरसे से वो बहाना तलाश रहे थे छत में सांप बताकर निकलने के लिए । नीतीश कुमार अरसे से बोलते आ रहे थे कि जो हमें विशेष राज्य का दर्जा देगा उसे हमारा समर्थन। ये सब क्या था? कुछ बातें ऐसी होती हैं उन पर ना बोलना ही बेहतर। जब ये तय हो चुका था कि दिसंबर तक इस मसले पर कोई कदम नहीं उठाया जाएगा तो फिर इतनी जल्दबाजी क्यों? हमनें तो नरेंद्र भाई को केवल चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया है। वो भी भाजपा का तो इसमें गलत क्या किया? क्या अपने घर में हम कुछ भी नहीं कर सकते? क्या इस तरह गठजोड़ चलते हैं?

जो पटना में नीतीश कुमार ने किया क्या वो सही है?कल तक वो भाजपा जो साथ खड़ी रही उसके मंत्रियों को इस तरह बर्खास्त करना क्या नैतिकता के नजरिए से सही है? हम तो तब भी नीतीश कुमार के साथ थे जब वो पार्टी कुछ भी नहीं थी। 2002 में हमारे 67 विधायक थे और जद यू के 34 पर हम साथ थे। दरअसल वो ठान चुके थे कि अब अलग होना है। क्या शरद यादव की वहां चल पाई? ये जवाब तो नीतीश कुमार को देना ही पड़ेगा? कि जिस कांग्रेस के खिलाफ सारी राजनीति उन्होंने अब तक की अब उसका साथ लेकर क्या जनता को धोखा नहीं दिया गया? हो सकता है कि नीतीश कुमार को ये उतना कष्ट ना दे लेकिन शरद जी के स्वभाव से तो हम सब वाकिफ हैं वो कैसे ये बर्दाश्त कर सकते हैं कि अब वो कांग्रेस की बैसाखी पर चलें?

0- नीतीश जी तो मोदी जी को सांप्रदायिक मानते हैं?

अकेले नरेंद्र भाई सांप्रदायिक और बाकी सब सही। पार्टी भी सही। धर्मनिरपेक्षता की ठेकेदारी करने वाले सारे दलों और सब नेताओं तथा उनके खैरख्वाह ये सच जानते हैं। 17 साल तक नीतीश जी भाजपा से जुड़े रहे तो ये दल सांप्रदायिक नजर नहीं आया? हमारे साथ केंद्र से लेकर बिहार तक राज किया तब समझ में नहीं आया। नरेंद्र भाई पार्टी के सम्मानित नेता हैं। उनके बारे में किसी सहयोगी की ऐसी राय को हम किसी भी सूरत में स्वीकार नहीं कर सकते। दरअसल 2010 में 118 सीटें पाकर नीतीश कुमार को ये भ्रम पैदा हो गया था कि अब अगर वो नरेंद्र मोदी का विरोध करेंगे तो अकेले बिहार में सत्ता में बने रह सकते हैं लेकिन इसका अंदाजा उन्हें महाराजंगज के चुनाव से भी हो गया होगा और आगे भी हो जाएगा। रहा सवाल बाकी धर्मनिरपेक्षता का ढोल पीटने वालों का तो वो भाजपा से घबराते हैं। वो जानते हैं कि भाजपा ही अकेली ऐसी पार्टी है जो हर धर्म को बराबर तरजीह देती है। अगर वो हमारे बारे में ऐसी धारणा नहीं फैलाएंगे तो उनकी दुकान पर ताला नहीं लग जाएगा?

0- तो क्या माना जाए कि नरेंद्र मोदी पीएम पद के दावेदार भाजपा की तरफ से रहेंगे या नहीं?

मैं पहले भी कह चुका हूं कि सब आम सहमति से होगा। अभी इस मसले पर कुछ भी तय नहीं किया गया है। सामूहिक फैसले के बाद ही इस तरह के मसलों पर आगे बढ़ा जाता है। मैंने कभी नहीं कहा कि नरेंद्र भाई पीएम पद के दावेदार बना दिए गए हैं। मैं ये भी नहीं कहता कि वो प्रधानमंत्री बनने के लायक नहीं हैं। वो देश के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। गुजरात बेहतरीन तरीके से चला रहे हैं और देश भी चला सकते हैं। मुझे या पार्टी को उनकी काबलियत पर कोई संदेह नहीं। उनकी कुशलता को सब जानते हैं। इसी वजह से उनका विरोध हो रहा है। विरोध करने वाले उनकी ताकत को समझ चुके हैं। लिहाजा हल्ला काट रहे हैं। इससे उन्हें कौन रोक सकता है? लोकतंत्र है सबको अपनी आवाज बुलंद करने का हक है। लेकिन जनता की आवाज से ही तो सब तय होगा। वक्त आने पर सब तय हो जाएगा।

0- तो क्या ये मान लिया जाए कि पार्टी फिर हिंदुत्व की राह पर जा रही है? यूपी में अमित शाह की तैनाती। फिर मोदी की ताजपोशी और अब संघ का ये कहना कि वो अब हिंदुत्व से नहीं डिगेगी?

सर्व धर्म सदभाव ही हमारी नीति रही है। एक और बात बता दूं कि ये देश धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि पंथनिरपेक्ष है। जहां-जहां हमारी सरकार रही है उठाकर देख लीजिए शायद ही कभी दंगे हुए हों। गुजरात में अगर हिंदुओं ने तरक्की की है तो मुस्लिम भाइयों को भी आगे बढऩे का उतना ही मौका मिला है। अल्पसंख्यक राजनीति करने वालों के राज में ही दंगे होते हैं। दोषारोपण हमारी तरफ कर दिया जाता है। रहा हिंदुत्व का सवाल तो क्या बहुसंख्यक समाज के बारे में कुछ भी बोलना, कुछ भी सोचना और कुछ भी करना क्या गुनाह है? हिंदुओं की बात करो तो सांप्रदायिक और बाकी की बात करो तो धर्मनिरपेक्ष। हम बाकी ढोंगी धर्मनिरपेक्षता का नारा लगाने वालों से ज्यादा धर्मनिरपेक्ष हैं। ये हमने पहले भी केंद्र में दो बार सरकार बनाकर साबित किया है। मैं अल्पसंख्यक समाज से वादा करता हूं कि वो एक बार हम पर भरोसा करके देखे, भाजपा पूरी तरह खरा उतरेगी। सच वो नहीं है जो उसे दिखाने की कोशिश हो रही है। सच वो है जो हम जनादेश मिलने के बाद करके दिखाएंगे। रहा अमित शाह को यूपी में लाने का तो पार्टी बड़ी है। नेताओं को दायित्व दिए जाते हैं।

यूपी बड़ा राज्य है। वहां संगठन में पारंगत नेताओं को ही तो बैठाया जाएगा। हर दल दिल्ली की तैयारी में जुटा है। उनके बारे में कोई कुछ नहीं बोलता। हम कुछ भी करें तो वो गलत। हिंदुत्व एक विचारधारा है। उससे पूरी तरह अलग होकर राजनीति करना संभव कहां? बाकी दल जात-पात के समीकरण लगाते हैं। हिंदू वोटों पर ही ध्यान लगाते हैं। उन्हें कोई हिंदुवादी धारा को बहाने का आरोप नहीं लगाता? कोई दलितों के सहारे राजनीति करता है तो कोई यादवों और ब्राह्मणों के सहारे। ये जातियां क्या हिंदू नहीं हैं? फिर अकेले आरोप भाजपा पर ही क्यों? हम हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाएं कि लो सारा मैदान तुम्हारा। जो बच जाए तो हमें दे देना । ऐसे राजनीति होती है। हम देश चलाने के लिए राजनीति कर रहे हैं। सरकार बनाने के लिए नहीं। यही अंतर है हममें और बाकी दलों में। वो सरकार बनाने के लिए राजनीति करते हैं और उससे भी ज्यादा जनता में भाजपा का डर बैठाने की कोशिश करके वोट बटोरने की योजना बनाते रहते हैं। संघ अगर कोई बात कह रहा है तो वो संघ की नीति है। इससे पहले की आप सवाल करें तो मैं बता दूं कि संघ किसी भी तरह का हस्तक्षेप भाजपा के मामलों में नहीं करता। हां जब हमें जरूरत होती है तो संघ की तरफ से मार्गदर्शन मिलता है। नरेंद्र भाई को बनवाने और बाद के सारे विवादों में भी संघ ने कोई दखल नहीं दिया।

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