डॉ.अनिल सुलभ की कहानी ‘गंगा खंड पाँच बटा तीन’ की प्रथम किस्त में अभी तक आपने पढ़ा कि  विजय नशाबंदी कानून के तहत झूठे आरोप में फंसा दिया गया. वह जेल में कथा के नायक को आपबीती सुनाता है और व्यस्था में फैले भ्रष्टाचार पर प्रहार करता है. अब आगे पढ़िये.

 

……कुछ देर बाद किसी बड़े पुलिस अधिकारी के आने की सूचना मिली। अधिकाररी महोदय, बाहर ही शरारती तत्वों से वार्ता करते रहे। न जाने क्या-क्या बातें कीं?  एक बड़ी प्रतीक्षा के बाद वे मेरे कक्ष में आए। उनका तेवर पहलेसे ही बदला हुआ था। मैं उनसे तोड़-फोड़ के बारे में क्या बताता! वे मुझे ही दोषी बताते हुए, हमारे सामने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। मानों उनके सामने बैठा व्यक्ति कोई बहुत बड़ा अपराधकर्मी और घपलेबाज हो!

कहानी की पहली किस्त पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

 

‘‘कागज सब दिखाइए! अपने प्रमाण-पत्रा दिखाइए! …मैं सब जानता हूँ. आप सबने शिक्षा को व्यापार बना लिया है!  लूट मचा रखी है, आप सबने! …सारा कुछ दिखाइए! मेरे पास समय नहीं है।’’

 

कागज सब दिखाइए! अपने प्रमाण-पत्रा दिखाइए! …मैं सब जानता हूँ. आप सबने शिक्षा को व्यापार बना लिया है!  लूट मचा रखी है, आप सबने! …सारा कुछ दिखाइए! मेरे पास समय नहीं है।’’

 

उनके चेहरे पर एक अजीब-सा रौब और उत्साह देखा जा सकता था। मानों वे अपने वरीय अधिकारियों और सरकार को प्रसन्न कर देने वाला एक बड़ा काम करने जा रहे हों, जो उन्हें प्रोन्नति और पदक दिला सकता है!

 

वे हमारे सारे कागजात खंगालने लगे। भारतीय पुलिस सेवा का एक अधिकारी जो उतावलेपन के साथ मेरे कक्ष में आया था, घंटों मेरे कार्यालय में जमा रहा। कभी तोडफोड़ करने वाले लोगों से बात करते हुए, कभी मोबाइल फोन पर न जाने किससे निर्देश लेते हुए, तो कभी अपने कनीय अधिकारियों को निर्देश देते हुए उन्होंने चार घंटे से अधिक समय दिए।

 

‘‘चलिए! …थाने चलिए!’’ उनका काम पूरा हो चुका था। इतनी देर में उन्होंने गिरफ्तारी के लिए क्या आधर बनाए थे, वे ही जानें। स्थानीय थाना के प्रभारी ने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा- चलिए सर! मैं मजबूर हूँ. जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है ….पर क्या करूँ!’’

 

अगले दो दिनों तक मैं यह समझ नहीं पा रहा था कि यह सब क्या हुआ है? मेरे जीवन में घटी यह सत्य घटना है या कोई दुःस्वप्न! कब और किस प्रकार मुझे कोर्ट लाया गया और आदर्श केन्द्रीय कारा पहुँचा दिया गया। पहले दिन ‘आमद वार्ड’ में …अगले दिन …कारा में महीनों से अवस्थित एक बहुचर्चित बाहुबली विधयक की इच्छा से इस वार्ड संख्या पाँच बटा तीन में आ गया …इसका बोध भी न था।

 

उस वार्ड के लोगों ने मेरा ख्याल न रखा होता तो संभवतः कितने दिनों तक मेरी यह अवस्था रहती कह नहीं सकता। सबने सहानुभूति जताई! किसी ने कहा- ‘‘अरे! हम में से तो कइयों ने कुछ न कुछ पाप किया है…. बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से पाएँ? इस लिए जेल काट रहे हैं। किन्तु ये प्रेमजी ….प्रेमसागर जी ….इतने नामचीन व्यक्ति! इन्होंने क्या कर दिया?’’

 

उस सज्जन ने मेरी तरफ मुखातिब होकर फिर से ढाँढस बँधया- ‘‘फिक्र नहीं कीजिये किसी-किसी की कुंडली में ‘जेल-यात्रा’ लिखी होती है। कोई भोग होता है! उसे काटना पड़ता है। देखिए न! ….इसी वार्ड में कई ऐसे हैं, जो नशा-बंदी अधिनियम में, बेमतलब लाए गए हैं… अब आपसे क्या बताउफँ।… इस जेल में अस्सी प्रतिशत निरपराध बंदी होंगे। उनमें से भी 90 प्रतिशत वे लोग हैं, जो या तो दहेज-निरोधक कानून, या अनुसूचित जाति-जनजाति कानून…या फिर इस नये कानून ‘नशा-बंदी’ कानून में पकड़ लाए गए है। अधिकारियों को पैसे नहीं दिए, इसलिए या फिर किसी अधिकारी या प्रभावशाली दबंग से कहा-सुनी कर ली। भाई साहब! …यह सबको ठीक कर देनेवाली सरकार है।’’

 

मैं चकित होकर उस व्यक्ति की बातें सुन रहा था! मैं तो समझा था, यह कोई अनपढ़ अपराधकर्मी होगा, पर उसकी बातें तो ज्ञानियों जैसी थी। मुझे भौंचक देखकर, उसे लगा होगा कि शायद मैं अभी भी शोक-ग्रस्त हूँ। उसने कहा ‘‘आप क्यों चिंतित हैं? …चिंता को फेंक डालिए! जैसे कोई अपने देह से पसीने वाला कोट उतार फेंकता है। कोई दिक्कत नहीं होगी यहाँ आपको। किसी चीज की नहीं। जो चाहिए सब मिलेगा। आप हमारे बॉस के मेहमान हैं। वैसे भी यह जेल बड़े काम की जगह है। यहाँ हर उस व्यक्ति को एक बार जरूर आना चाहिए, जो जीवन में कुछ बड़ा करना चाहता है। आप तो जानते ही हांगे। महात्मा गाँधी, इंदिरा गाँधी, जयप्रकाश जी, राजेन्द्रबाबू . न जाने कितने बड़े-बड़े लोग जेल आए, तभी बड़े नेता बने. कई बड़े-बड़े नेता भी इस जेल की शोभा बढ़ा चुके हैं, आपको मालूम ही होगा। इसलिए यह जरा भी मत समझिए कि आपकी इज्जत को बट्टा लगा है।’’

 

अब वो सज्जन तत्त्वज्ञानी दार्शनिकों-सी बाते करने लगे थे। उन्होंने आगे कहा ‘‘प्रेमसागर जी! यह दुनिया बड़ी निराली है। कब कौन-सा व्यक्ति ‘इज्जतदार’ बन जायेगा और किसकी ‘मिट्टी पलीद’ हो जाएगी, कोई नहीं जानता! और फिर वही व्यक्ति कब दुनिया की नजरों में महान हो जाएगा! यह भी नहीं कह सकते!’’

 

वह न जाने मेरी तसल्ली के लिए और क्या-क्या कहता रहा था। अपमान की ज्वाला से धधक रहा मेरा हृदय भी अब शांत हो चला था। मैं अब उस क्रूर नियति से समझौता कर रहा था। मस्तिष्क में एक साथ हजारों चींटियाँ रेंगने लगी थीं! भीषण अग्नि-ज्वाला में घिरे पक्षी की भांति तड़पता रहा। मेरा मन अब विश्रान्ति चाहता था। दो दिनों के बाद मुझे थकान और निद्रा की अनुभूति हो रही थी। देह निढाल होकर लुढ़क जाना चाहता था। मुझे उस सज्जन के कुछ अंतिम शब्द याद रह गए थे- ‘‘सिर के नीचे तकिया लगा दो! ….वो सो रहे हैं…’’

 

घंटों सोता रहा! दो दिनों की अनिद्रा अभी पूरी हुई थी! ….नींद खुली तो वार्ड में कुछ और लोग भी आ गए थे। यह नयी आमद थी। कल ही पुलिस ने नशा-बंदी-अधिनियम में कई लोगों को पकड़ा था। उनमें महिलाएँ भी थीं। एक तो गर्भ से थी।  दो वर्ष का बेटा भी साथ आया था। पूरा परिवार ही घर लाया गया था। हमारे वार्ड में आए नये लोग विधयक जी के क्षेत्रा के थे। महिलाएँ ‘महिलावार्ड’ में भेज दी गई थीं।

 

एक-दूसरे का दुख सुनते हुए धीरे-धीरे मन स्थिर हुआ। तरह-तरह की आपबीती… किसी ने ठीक ही कहा था- ‘‘जेल की दुनिया एक अलग ही दुनिया है।’’ नगर में होकर भी सामान्य जीवन से कितना भिन्न होता है यह! यह तो एक अनोखे अनुभव का क्षेत्रा-विस्तार करता है। यहीं आकर जीवन की कठोर सच्चाइयों से वाकिफ हुआ जा सकता है। यही पता चलता है कि कौन अपना है, कौन पराया! …और कितने लोग उपकारों को याद रखते हैं!

 

गुपचुप ढंग से यहाँ क्या नहीं होता! यहाँ भी दबंगों और धनवानों की चलती है। सरकार और प्रशासन में भ्रष्टाचार किस तरह व्याप्त है, यहाँ आए बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता।

 

यहाँ भी दबंगों और धनवानों की चलती है। सरकार और प्रशासन में भ्रष्टाचार किस तरह व्याप्त है, यहाँ आए बिना ठीक से नहीं समझा जा सकता।

धीरे-धीरे इस वार्ड के अन्य सदस्यों के दुख-सुख सुनता-बाँटता मैं भी उस किशोर की भाँति सहज होने लगा था, जो अपने माता-पिता की अकालमृत्यु के पश्चात, अनेक दिवा-रात्रि, रोते-रोते थक कर, फिर सामान्य जीवन जीने लगता है। दिल पर पत्थर रख लेता है।

 

यहाँ आए एक महीना पूरा हो चुका था। एक महीना दो दिन! आज निचली अदालत में मेरी जमानत की अर्जी पर न्यायमूर्ति द्वारा निर्णय दिया जाना था. चार दिन पहले ही इस पर बहस हो चुकी थी ….आदेश ‘सुरिक्षित’ रख लिया गया था।

 

सुना कि हमारे विद्वान् अधिवक्ता ने हमारा पक्ष बहुत मजबूती से रखा था। उन्होंने न्यायालय को बताया था कि यह पूरा का पूरा प्रसंग नियोजित षड्यंत्रा अैर भ्रम के कारण है। प्रेमसागरजी एक प्रतिष्ठित कवि और सुप्रसिद्ध समाजसेवी हैं। कवि रहीम की भांति, एक दाता के रूप में जाने जाते हैं। दर्जनों साहित्यिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और समाजिक संस्थाएँ इनके द्वारा पोषित होती हैं। अनेक ऐसी संस्थाओं के अध्यक्ष, संरक्षक और मुख्य संरक्षक के रूप में इनकी समाज में व्यापक प्रतिष्ठा है। एक दानवीर किसी के साथ धेखा नहीं कर सकता! ऐसे उदार और निरंतर सक्रिय व्यक्ति का चोर-डाकुओं के साथ, जेल में रखा जाना समाज के लिए अहितकर है।

 

हमारे अधिक्ता ने यह भी कहा कि इस प्रकरण में जो भ्रम हैं, उन्हें भी वही दूर कर सकते हैं। और यह तभी संभव है, जब वे जेल से बाहर हों। समाज के व्यापक हित में उनहें जमानत दिया जाना नितांत आवश्यक है।

 

तथ्यों के साथ अध्विक्ता महोदय की प्रभावशाली बहस से सबको यह विश्वास था कि आज निश्चिय ही माननीय न्यायमूर्ति द्वारा जमानत अर्जी स्वीकृत होगी।

 

पर हाय! विधाता को यह कतई मँजूर नहीं था! न्यायमूर्ति जी ने जमानत का आग्रह ठुकरा दिया था। यह सूचना मिलते ही, हमारे सीने पर हजारों आरे एक साथ चल पडे़। बूँद-बूँद रक्त देह का त्याग करने लगा। हृदय और मस्तिष्क चेतना के अनेक प्रश्न-वाणों से छलनी होने लगे। क्या मेरे 30-35 वर्षों से समाज के लिए किए जानेवाले त्याग और बलिदान व्यर्थ थे? मेरी वर्षों की सेवा और संघर्ष का कोई मूल्य नहीं था! अगणित असंख्य अभावग्रस्त लोगों के लिए, तन-मन-धन से जो किया, उसका कोई लाभ पाने का अधिकार मुझे नहीं है? …क्या, अपना सबकुछ समाज के लिए न्योछावर करने का अर्थ यह है कि बचा-खुचा जो भी मेरे पास है, उसे कोई लूट ले और मुझे ही उस अपराध् में सूली पर चढ़ा दे?

 

मेरा हृदय चीत्कार कर उठा। जो प्राण-घातक पीड़ा मुझे आज हो रही थी, वह उस दिन भी नहीं हुई थी, जिस दिन मुझे एक अविवेकी अधिकारी ने, मेरे ऊपर ठगी का भयानक लाँछन लगाकर, मुझे नर्क में ढकेल दिया था। ऐसा कौन-सा अपराध् मैंने कर दिया था जो अक्षम्य था? न्यायकर्ता की दृष्टि में मैं राहत और अवसर देने के योग्य भी मैं नहीं था? मेरी ही फसल अपनी बताकर, डाकुओं ने काट ली थी, और मुझे ही उसका दंड दे दिया गया! …. मेरा पक्ष जाने बगैर! …केवल किसी और के कहने भर से!

आज मुझे ठीक से अनुभव हुआ कि यहाँ आज भी अँग्रेजों के पुराने कानून क्यों लागू हैं! ….भारत की आजादी के इतने वर्षों के बाद भी उन्हें क्यों नही बदला गया! जनता को सदा गुलाम बनाए रखने और उनके शोषण के लिए बनाए गए अँग्रेजों के वे कानून, सत्ताध्ीशों को क्यों प्रिय लगते हैं? यह भी मै समझ पाया। नये कानून उस अँग्रेजी प्रवृत्ति को और सुदृढ़ करने के लिए ही बनाये जा रहे हैं, यह बात भी समझ में आने लगी है।

कानूनविदों से हमने सुना था कि, समाज में सुव्यवस्था लाने तथा हर एक व्यक्ति के कल्याण के निमित्त तथा कल्याण के कार्यों में आनेवाली बाधओं को दूर करने के लिए कानून बनाए जाते हैं। पर यहाँ यह क्या हो रहा है? क्या हम ठीक से कह सकते हैं कि हमारे देश की दंड-विधन-संहिता, सुशासन और समाज का कल्याण सुनिश्चित कर रही है?

आज ही मैंने यह भी अनुभव किया कि नशा-बंदी अधिनियम में पकड़ लाए गए उस युवा विजय और मुझमें कोई अंतर नहीं है। न व्यक्तित्व में, न अस्तित्व में और न घटना की साम्यता में! आज मैं भी स्वयं को, भविष्य के प्रति चिंतित उस नौजवन की भांति हीं लुटा हुआ अनुभव कर रहा था। कंगाल हो चुके किसी सेठ की भांति ही, जिसे कभी ‘श्रेष्ठ’ कहा जाता था!

भयानक दुःस्वप्न जैसी इस घटना ने मेरे स्फटिक समान उज्ज्वल जीवन-वस्त्र पर कितना अशोभन लांछन लगा दिया था! क्या इसका अनुमान लगाया जा सकता है?… एक झटके में, सबसे अधिक ऊंचाई पर उड़ने वाले, पक्षीराज गरुड़ की उड़ान से भी ऊचे ‘हिमालय के सुवर्ण किरीट’ सागरमाथा से भी ऊपर प्रतिष्ठित मेरे कीर्ति ध्वज को धराशाई नहीं कर दिया था? वे सहस्रों, सहसों क्या लाखों सुधी जन, जिनके हदयों में मेरी छवि एक सुकुमार संस्कृति-पुरुष और दानवीर के रूप में दृढ़ता के साथ अंकित थी, क्या उनके मनोभावों में विकार नहीं उत्पन्न हो गया होगा? प्रतिदिन चार से पाँच घंटे, पूजापाठ जप-तप और साधना में व्यतित करनेवाली मेरी अर्द्धांगिनी के हृदय पर सहस्रों बिच्छू बार-बार डंक नही मारते होंगे? उनकी प्राण-घातक वेदना का किसे अनुमान होगा? …और वह …जो अपने लक्ष-लक्ष नेत्रों से समग्र संसार को संसार ही क्यों? निखिल ब्रह्माण्ड को देखता है, और जो सबका भविष्य निर्धारित करता है…. हाँ! वही …विधता, क्या उस क्षण अंधा नहीं हो गया था? ….इस मर्मभेदक समाचार से हमारे उस, प्रकृति की नयनाभिराम छटाओं से पूरित ग्रामवासियों के मन पर क्या बीती होगी, जो मुझे अपने गाँव के विशाल मंदिर का भव्य सुवर्ण-कलश मानते थे? मंदिर के शिखर पर प्रतिष्ठित धर्म-ध्वज की भांति मेरी कीर्ति पर, जो सदा गर्व करते थे, उन हमारे परिजनों के मन में इस समय क्या चल रहा होगा? और क्या उन लोगों के हृदय जुड़ा गए होंगे, जो मेरी अपार प्रतिष्ठा से जल-भुन रहे थे? प्राण-हारी लांछन की छुरियों ने मेरे हृदय को खण्ड-खण्ड कर डाला था।

उस छलना-स्मृति के पाश से छूटने की अनवरत तड़प में, मैं अपनी चेतना पिफर से खोने लगा। साँस की गति निरंतर धीमी होती जा रही थी… चेतना लुप्त होने लगी… मेरा संपूर्ण अस्तित्व घुलकर किसी शून्य में विलीन हो रहा था…!

 

तभी निकट पार्श्व में एक मंजुल पदचाप की ध्वनि सुनाई दी। किसी सुंदरी के चंद्र-नुपूरों की लास्य-ध्वनि! …यह ध्वनि मेरे और निकट आ चुकी थी…. मेरे अत्यंत समीप! एक अत्यंत मादक गंध मेरे नासिका-रधरों को खंगालता हुआ भीतर तक समा रहा था। यह एक चित्र-विचित्र अनुभूति थी! मै मात्र अनुभव कर सकता था… कुछ भी देख नहीं सकता था। मैंने अपने नेत्र खोलने की चेष्टा की। पर्याप्त से अधिक बल लगाया। अपना संपूर्ण प्राण खींच कर शक्ति लगाई ….किन्तु असमर्थ रहा।

 

‘‘कौन!…. कौन है’’ – मैंने पूछा।

 

‘‘कविता!… तुम्हारी कविता!’’

 

इस उत्तर से उसने मुझे भ्रमित कर दिया। क्या मै नर्क के भयानक खदबदाते, बजबजाते दलदल से निकलकर स्वर्ग के द्वार पर आ गया हूँ?… या यह भी एक छलना है? तभी उसका मनोहारी मंजुल स्वर पुनः सुनाई दिया-

 

‘‘उठो! …उठो प्रेमसागर!…. उठो कवि! ….अवसाद और दुख के कीचड़ से बाहर निकलो! … तुम्हारा मूल्यवान जीवन, अपमान और अपयश के विष से समाप्त हो जाने के लिए नहीं, अपितु विष के भाजन हो रहे संसार की पीड़ित मानवता को त्राण देने के लिए है। उठो महाकवि!….. जो गरल तुम्हें दिए गए हैं, उसे संसार के विष-हरण की औषधि बनाओ! इससे संसार में व्याप्तराक्षसी प्रवृत्ति के नाश का आयुध तैयार करो! एक ऐसा आयुध, जिससे एक भी रावण बचने न पाए!’’

 

‘‘उठो! …उठो प्रेमसागर!…. उठो कवि! ….अवसाद और दुख के कीचड़ से बाहर निकलो! … तुम्हारा मूल्यवान जीवन, अपमान और अपयश के विष से समाप्त हो जाने के लिए नहीं, अपितु विष के भाजन हो रहे संसार की पीड़ित मानवता को त्राण देने के लिए है

 

अब मेरी पलकों में शक्ति आने लगी थी। एक नवीन ऊर्जा का संचार हो रहा था …मेरी आँखें खुलने लगी थीं …मेरे सामने एक जीवंत दिव्य मूर्ति खड़ी थी! ….अनिंद्य नहीं… अपूर्व!… महासुंदरी!

‘‘आप कौन हैं देवि!’’ मैंने पुनः प्रश्न किया।

‘‘तेरी …और केवल तेरी कविता हूँ,… महाकवि!… तुम्हारी काव्य-कल्पनाओं की शक्ति!… तुम्हारे अतुल्य बलिदान के लिए, आज तुम पर अपना सर्वस्व लुटाने आई हूँ!… आओ, मुझे अपना उष्ण आलिंगन दो कवि!’’

यह कहते हुए उसने मुझे अपनी नर्म बाहों में भर लिया। सागर जैसे गहरे और विशाल उसके नेत्रों में अदभुत लास्य और प्रेम का सागर तरंगित था। अब मैं उसके सुनील आकाश जैसे विशाल हृदय-पात्रा में आ चुका था! …एक अवर्णनीय आनंद की स्थिति में! सहस्रों वर्षों से जिस ब्रह्मानंद की लालसा लिए मैं जन्म-जन्मांतर से भटक रहा था, वह अवर्चनीय आनंद मैं आज प्राप्त कर रहा था!

उसने मुझे एक बार पुनः मधुर लास्य के साथ निहारते हुए कहा- ‘‘यह कविता तुमसे अभिन्न है महाकवि! … तुम्हारी प्रेरणा… तुम्हारी शक्ति, तुम्हारी सहचरी और अनुचरी ही नहीं तुम्हारी दासी भी है! …अब तुम सभी संतापों से मुक्त हो जाओ! …. तुम सामान्य जनों सा, मान-अपमान और यश-अपयश से प्रभावित हो जाने वाले सामान्य कवि नहीं हो! ….तुम महाकवि हो प्रेमसागर! … तुम इन सबसे उपर हो! संसार की प्रवृत्तियों को बदल कर रख देने वाले कवि! प्रेम की कांति से क्रांति उत्पन्न करने वाले कवि! क्या तुम भूल गए जिसने यह कहा था कि ‘‘हर क्रांति कलम से शुरू हुई, संपूर्ण हुई…. जुल्म की चट्टान कलम चली, तो चूर्ण हुई।’’

‘‘महाकवि! आज सारा संसार दुष्टों का भीषण प्रहार झेल रहा है… सत्य की सत्ता समाप्त हो रही है …. प्रत्येक मनुष्य को पथ-भ्रष्ट किया जा रहा है। इस अवस्था से मानव-समुदाय को त्राण कौन दिलाएगा?… एक कवि!… केवल कवि ही!… अर्थात् तुम! .सिर्फ तुम! प्रेमसागर!’’

विस्मय और अविश्वास-भरे मेरे मुखमण्डल को देखकर उसने मुझसे फिर कहा- ‘‘शंका न करो मेरे प्यारे कवि! तुम पूर्णतः समर्थ हो! …और . और मै हूँ न तुम्हारे साथ! …हर क्षण …हरपल …अहर्निश! …मैं ही तो हूँ तुम्हारी अक्षय-ऊर्जा! …अजस स्रोत! ….तुम्हारी काव्यशक्ति! ….और इस संपूर्ण शक्ति के उपभोक्ता और प्रयोक्ता केवल तुम हो, मेरे प्रियतम! ….जिस प्रकार शक्ति के बिना ‘शिव’ भी ‘शव’ हो जाते हैं, उसी प्रकार तुम भी, मेरे प्राणेश्वर! शिथिल पड़ गए थे। अब मैं आ चुकी हूँ सदा के लिए तुम्हारे पास! शिव की भांति, अपयश और अपमान के समस्त गरल को अपने कण्ठ मै धरण कर जगत् के कल्याण के लिए सन्न( हो जाओ! ….‘शिव’ का तो अर्थ ही ‘कल्याण’ है। यही तो तुम कहते रहे हो! …पिफर इसे कैसे भूल गए? तुम कैसे भूल गए अपना ही कथन कि, ‘साहित्य’ वह है, जो सबका ‘हित’ करता है? … अर्थात् कल्याण करता है! महाकवि! तुम सुखे तृण का ढेर नहीं, जो अग्नि की एक तीली से जल जाए! …तुम प्रदीप्त स्वर्ण हो, जो सबको भस्म कर डालने वाले अग्नि-कुँड से निकल कर और अध्कि दीप्त होकर चमक रहा है! ….आओ चलें!’’

 

और उसने मुझे अपने अंक में खींचा तथा ऊपर की ओर उड़ चली। मैं एक अपूर्व सुख-निद्रा में था। वायु की तरह हलका हुआ मैं उस दिव्य सुंदरी की लास्यपूर्ण गोद में निढाल पड़ा, ऊपर उड़ता जा रहा था। निरभ्र आसमान के अनंत विस्तार की गहरी अनुभूति आज पहली बार हो रही थी। बहुत तेजी से हम ऊपर …और ऊपर उड़ते जा रहे थे। सबसे ऊँचाई पर उड़ने वाले गरुड़ पक्षियों का एक झुण्ड अब बहुत नीचे रह गया था।

 

कुछ ही क्षणों में पूर्व क्षितिज पर मुझे वह विशाल अग्नि का तेज पुँज ‘सूर्य’ उदित होता दिखाई दिया!… रक्ताभ! ….रथ के पहिए-सा नाचता हुआ! वह धी-धीरे ऊपर चढ़ रहा था!

 

‘‘देखो महाकवि! …सूर्य नारायण को देखो! …वे भी तुम्हें अपना आशिष और दिव्य उफर्जा प्रदान कर रहे हैं!’’ कविता की महादेवी ने एक बार पिफर मुझे प्रेम से निहारा।

 

सचमुच सूर्यदेव मुझे वात्सल्य-भाव से निहारते हुए प्रतीत हुए। उनके तेजस्वी कांति-वलय से निकल रही सहस्रों किरणें मुझे अपनी दिव्य अंगुलियों से मृदुल स्पर्श दे रही थी। मेरा रोम-रोम पुलकित हो उठा! मेरे देह का रंग, पलाश के टह-टह लाल फूलों की भांति, नख-शिख रक्ताभ हो चला था! … उत्साह और उफर्जा की दिव्य तरंगें, सागर की लहरों की भांति मेरे कण-कण में प्रवेश कर रही थी। मैंने देखा मेरी कविता के दाहिने हाथ में एक लेखनी आ गई थी, स्वर्ण की तेजो-दीप्त लेखनी! उसने बड़े प्रेम से मुझे वह लेखनी देती हुई बोली- ‘‘यह हमारे प्रथम-मिलन का, मेरी ओर से तुम्हें दिया गया उपहार है, महाकवि! मेरे प्रियतम! इसे स्वीकार करो! ….और आज से ही अपने दिव्य अनुष्ठान में लग जाओ!’’

 

मैंने काँपते हाथों से उस लेखनी को लिया। निरभ्र आकाश के हलके नीले वितान पर मैने कुछ शब्द लिखे-

 

‘‘ओ मृतकों में भी प्राण-पफूँकने वाली मेरी कविता! महासुन्दरी!’’मेरे हाथ ठिठक गए! . प्रत्येक अक्षर सुवर्ण-मंडित हो गया था! … स्वर्णाक्षर में परिणत हो गया था!

[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2017/05/anil.jpg” ]बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा. अनिल सुलभ की यह कहानी उनके शीघ्र प्रकाशित होने वाले कथा- संग्रह ‘प्रियवंदा’ से ली गयी है.डा. सुलभ कथाकार और कवि होने के साथ अनेक सांस्कृतिक व सामाजिक संगठनों से भी जुड़े हैं तथा संस्कृति-पुरुष की लोक उपाधि के रूप में चर्चित हैं. उन्हें राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा दिनकर साहित्य रत्न सम्मान 2012 से भी नवाजा गया है. उनसे anilsulabh6@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है [/author]

नोट- यह कहानी आपको कैसी लगी नीचे कमेंट बाक्स में प्रतिक्रिया अवश्य दें. साथ ही आपकी अगर कोई कहानी हो तो हमें जरूर भेजें.

 

By Editor