एक पांच-सात साल के शहरी मध्य वर्ग के गैर मुस्लिम बच्चे से पूछिए, वह पूरी मासूमियत से तुतलाती जुबान में हर टोपी-दाढ़ी वाले के बारे में कहेगा- यह एक “आतंतवादी” है۔ मीडिया, राजनेता और हमारा समाज मुसलमानों की यही पहचान अपने नौनिहालों के मासूम मस्तिष्क में ठूस चुके हैं.देश एक नये खतरे की तरफ बढ़ रहा है. चेतिए नहीं तो अनर्थ हो जायेगा.

इर्शादुल हक, सम्पादक नौकरशाही डॉट इन

एक कल्पना जो हकीकत है

अकसर ऐसा होता है, कि सम्पादक, फिल्ड के अपने पत्रकारों को देर रात में भी फोन कर देते हैं. ऐसा ही मेरे साथ हुआ. मेरे सम्पादनक ने आधी रात में मुझे फोन किया. वह किसी स्टोरी का जिक्र करते हैं. पर एक बार जब उन से बात हुई तो में नींद में था. फोन रखने के बाद मैं फिर सो गया. और स्टोरी पर सपने में ही चर्चा हुई. यह चर्चा कुछ यूं है.

मेरे संस्थान ने मुझे इस बात की जिम्मेदारी सौंपी कि मैं दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चन्नई समेत देश के तमाम शहरों में एक सर्वे करूं. और उसके बाद एक रिपोर्ट,इस सर्वे के आधार पर लिखूं. सर्वे में शामिल लोगों( बच्चों) की उम्र 5-7 साल के बीच होगी. इनकी आर्थिक स्थिति निम्न मध्यवर्ग, मध्यवर्ग या उच्च वर्ग के लोगों तक सीमित रखी जाये. सर्वे में शामिल बच्चों का धर्म कोई भी हो सकता है, इस्लाम छोड़ कर. सर्वे में इन बच्चों को तीन तस्वीरें एक-एक करके दिखानी हैं. और उनसे पूछना है कि इन तस्वीरों को देख कर उनके मन में कैसी धारणा उत्पन्न होती है, या वह इन तस्वीरों को देख कर क्या कहना चाहते हैं. सबसे पहली तस्वीर एक लम्बी दाढ़ी वाले मुसलमान की होगी. दूसरी तस्वीर में दिखाये जाने वाले आदमी को भी दाढ़ी है, पर इसकी दाढ़ी अपेक्षाकृत छोटी है. तीसरी तस्वीर भी एक मुस्लिम की होगी, जो नमाज पढ़ता है,इस्लाम के उसूलों पर पाबंदी से अमल करता है पर उसकी दाढ़ी नहीं है, वह क्लीन सेव है.मैं देश के तमाम बड़े शहरों का दौरा कर इस सर्वे को पूरा करता हूं. सर्वे में प्राप्त रिजल्ट कुछ इस तरह हैं.

नतीजा

सर्वे में शामिल 90 प्रतिशत बच्चे बताते हैं कि सबसे लम्बी-चौड़ी दाढ़ी वाला इंसान एक खूनखार आतंकवादी है. यह देश का नंबर एक दुश्मन है. उन्हें इनसे बच कर रहना चाहिए. और मौका मिलते ही इसे पुलिस के हवाले कर देना चाहिए.

दूसरा इंसान जिसकी दाढ़ी थोड़ी छोटी है, वह भी आतंकवादी है. पर हो सकता है कि यह ज्यादा बड़ा आतंकवादी नहीं हो. और तीसरी तस्वीर को देख कर अधिकतर बच्चे कुछ भी कह पाने की स्थिति में नहीं हैं. चूंकि उसकी दाढ़ी नहीं है. वह कहते हैं कि वे इसे नहीं जानते.
मेरी आंखें खुल जाती हैं. पर इसके बाद मरे दिमाग में दो बातें आती हैं. पहला भारत के नयूज चैनल और अखबारों ने मुसलमानों की यही तस्वीर गढ़ी है. जो दूसरी बात दिमाग में आती है, वह इससे थोड़ी अलग है, पर एक हद तक ऐसा ही.

आप लालू प्रसाद को याद करें. चुनाव के दौरान वह ओसामाबिन लादेन जैसा दिखने वाले एक गुमनाम मुसलमान को अपने साथ चुनाव प्रचार में ले जाते थे. ऐसा कि जैसे दाढ़ी वाला वह इंसान एक सच्चे मुसलमाना का प्रतिनिधित्व करता हो. उसके चेहरे पर लम्बी काली घनी दाढ़ी, सर पर अरबी पगड़ी और पहरवा भई ऐसा जिससे वह ओसामाबिल लादिन जैसा दिखता था. कुछ दिनों बाद वह दाढ़ी वाला शख्स रामविलास पासवान के साथ चुनाव रैलियों में दिखता था. मतलब लालू और पासवान ने भी मुसलमान की वही छवि गढ़ी.

अपने नीतीश कुमार इससे थोड़ा अलग ठहरे, पर सिर्फ रणनीतिक स्तर पर. एक जमाने में नीतीश के बेहद करीब रहने वाले एक व्यक्ति ने हमें बताया था कि एक बार नीतीश एक ऐसी सभा में गये जहां मुसलमानों की अच्छी खासी भीड़ थी. पर मंच पर दाढ़ीनुमा मुसलमान एक भी नहीं था. नीतीश कुमार ने उन व्यक्ति के कान में कहा, “मंच के सामने जो दाढ़ीवाला व्यक्ति बैठा है उसे मंच पर बुला लीजिए”. नीतीश के इस हुक्म की तामील की गई.

आज देश के मुसलमानों की कमोबेश यही पहचान है. जिसे या तो मीडिया ने गढ़ी है या नेताओं ने. यही विडंबना है कि मीडिया आतंकवादियों के सरगना को दाढ़ी वाला बताता है. और हमारे नेताओं को दाढ़ी वाले मुसलमान ही, मुसलमानों का प्रतिनिधि दिखता है.

अगर मुसलमानों की यही पहचान स्थापित होगी तो, उनकी समस्याओं के समाधान का आधार भी इसी पहचान को ध्याम में रखकर तय किया जायेगा. यानी पांच-सात साल के मासूम बच्चे के हिसाब से हर दाढ़ी वाला खूनखान आतंवादी दिखेगा. जब कि हर कथित सेक्यूलर नेता को हर दाढ़ी वाला मुसलमान मुसलमानों का प्रतिनिधि लगेगा.

इसलिए हमें सबसे पहले मुसलमानों की पहचान की परिभाषा को ही पुनर्भाषित करने की जरूरत आ गई है.ऐसे में यहां महत्वपूर्ण सवाल है कि मुसलमानों की वास्तविक पहचान को परिभाषित कैसे किया जाये. क्या मुसलमानों को परिभाषित करने के मोटे तौर पर यही दो आधार हैं- पहला, उनकी पहचान उनके धर्म को ध्यान में रख कर की जाये. और दूसरा उनके सामाजिक-आर्थिक आधार को मद्देनजर रख कर, उनकी पहचान की जाये.

कौन हैं मुसलमान

चूंकि धर्म हर इंसान का निजी मामला होता है जिसका संबंध आम तौर पर उनकी निजी जिंदगी से होता है, या उनके मरने की बाद की जिंदगी से. ऐसे में धर्म के आधार पर मुसलमानों की पहचान की जिम्मेदारी इस्लामी विद्वानों या उलेमाओं के पर छोड़ देनी चाहिए. पर यह या तो एक आशचर्य की बात है कि हमारे सामाजिक संगठन, राजनीतिक संगठन और यहां तक के हमारी सरकारें भी मुसलमानों की पहचान और उनकी परिभाषा सिर्फ उनके मजहब के आधार पर करने की या तो अंजाने में कोशिश करते हैं या साजिशी तौर पर जानबूझ कर वे ऐसा करते हैं.

यहां यह बात बिल्कुल दरकिनार कर दी जाती है कि मुसलमानों की पहचान एक सामाजिक समूह के आधार पर की जाये. किसी सामाजिक संगठन, राजनीतिक पार्टी या सरकारों की जिम्मेदारी यह नहीं है कि वह मुसलमानों को चिन्हित करने के लिए उनके धर्म को आधार बनायें. पर वे राजनीतिक सुविधा के लिए ऐसा ही करते हैं.

सामाजिक समूह के तौर पर मुसलमान एक आम भारतीय सामाज की तरह हिंदुओं की तरह ही है. जहां ऊंची जाति, मध्य जाति और सामाजिक स्तर पर निम्न जाति के लोग होते हैं. पर इस हकीकत को राजनितक पार्टियों और उनके नेताओं ने कभी जानने की कोशिश नहीं की. पिछले 15 सालों में मुस्लिम सामाज की राजनितिक-सामाजिक चेतना में काफी फर्क आया है. मुसलमानों का पसमांदा सामाज, पसमांदा आंदोलन के बाद अपनी पहचान परिभाषित कर चुका है. इन पंद्रह सालों में गंगा में बहुत पानी बह चुका है. लेकिन जिन राजनीतिक पार्टयों ने इस सच्चाई से आंख मूंदने की कोशिश की है, उन्हें खतरनाक राजनीतिक परिणाम का सामना करना पड़ा है. बिहार में मुसलमानो के दो दशक तक मसीहा बने रहे लालू प्रसाद ने इस हकीकत से मुंह मोड़ा तो पसंमांदा मुसलमानों ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर देने में अमहम भूमिका निभा दी.

कुछ ऐसी ही स्थिति पश्चिम बंगाल में देखने को मिली. लगभग ढ़ाई दशक तक पश्चिम बंगाल के मुसलमानों ने कम्युनिस्ट सरकार का साथ दिया. कम्युनिस्टों ने भी मुसलमानों की पहचान सामाजिक आधार पर करने के बजाये एक धार्मिक समुह के तौर पर करने की गलती दुहराई. नतीजा यह हुआ कि उस राज्य की कुल आबादी के लगभग 24 प्रतिशत मुसलमानों ने कम्यनिस्टों को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया .

राजनितक पार्टियों को यह जानने की जरूरत है कि मुसलमानों का 85 प्रतिशत भाग पसमांदा समाज का हिस्सा है. जबकि वे मात्र 15 प्रतिशत अगड़े और प्रभावशाली मुसलमानों की आवाज को ही टोटल मुस्लिम समाज की प्रतिनिधि आवाज मानते रहे हैं. नतीजा यह हुआ कि पसमांदा मुसलमानों में आई राजनितिक चेतना ने अंडरकरेंट की तरह काम किया और तमाम राजनितक परिभाषाओं को ध्वस्त कर के रख दिया.जिसके कारण न बिहार में लालू की सरकार रही और न ही पश्चिम बंगाल में बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार बच सकी.

नीतीश ने पसमांदा मुसलमानों की शक्ति को समझा और उन्हें अपनी तरफ खीचने की कोशिश की. जिस कारण वे सत्ता में आये.पर उनकी यह कोशिश मात्र राजनितीक स्तर पर सिमट के रह गई. पिछले आठ सालों में अब नीतीश भी सुविधा की राजनितक के चक्कर में फंस गये हैं और वह पसमांदा मुसलमानों की सिर्फ बात करते हैं पर वह घिरे हैं तो सिर्फ अशराफ मुसलमानों के कुछ चापलूस नेताओं के साथ.यह स्थिति नतीश के राजनीतिक भविष्य के लिए एक खतरे की घंटी है.

मुसलमानों की पहचान सामाजिक-शैक्षिक आधार पर हो

मुसलमानों की पहचान उनके सामाजिक-शैक्षिक आधार को सामने रख कर किया जाये तो मुसलमानों की समस्याओं को भी परिभाषित किया जा सकता है. और अगर मुसलमानों की समस्याओं को सही तरीके से परिभाषित करने में हम सफल रहे तो उनकी समस्याओं को पहचानने और उनकी समस्याओं के समाधान के रास्ते सहज ही निकल सकते हैं.

राजनीतिक प्रतिनिधित्व

बिहार में मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व पर ध्यान दें. बिहार सरकार में इस समय दो मुस्लिम मंत्री हैं, शाहिद अली खान और परवीन अमानुल्लाह. यह दोनों के दोनों उच्च जाति से संबंध रखते हैं. पहले पठान हैं तो दूसरी सैयद. यानी एक भी पसमांदा मुसलमान नीतीश सरकार में शामिल नहीं है.

अब बिहार सरकार के अलपसंख्यकों से संबंधित विभिन्न आयोगों, निगमों, बोर्डॉं और कमेटियों को देखें. तो यहां की स्थिति और भी असंतोषजनक और पसमांदा मुसलमानों के लिए अस्वीकार्य लगती है. बिहार राज्य अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन नौशाद अहमद सैयद मलिक जाति से हैं. बिहार राज्य हज कमेटी के चेयरमैन अनीसुर्रहमान कासमी अगड़ी शेख जाति से हैं. बिहार राज्य मदरसा शिक्षा के बोर्ड के अध्यक्ष मुम्ताज अहमद का संबंध भी उच्च जाति के मुसलमान से है. इसी तरह बिहार राज्य सुन्नी वक्फ बोर्ड के चेयरमैन इरशादुल्लाह का संबंध उच्च जाति के शेख समाज से है तो शिया वक्फ बोर्ड का अध्यक्ष भी उच्च जाति के मुसलमान सैयद अमानत हुसैन को बनया गाया है. सरकार ने हाल ही में उर्दु एडवाजरी बोर्ड का गठन किया है जिसके सरवेसर्वा कलीम आजिज है, जिनका संबंध भी उच्च जाति से है.

राजनीतिक प्रतिनिधित्व के स्तर पर पसमांदा मुसलमों को बिहार की सरकार ने जिस तरह से दरकिनार किया है, यह स्थिति पसमांदा मुसलमानों में रोष पैदा करने वाली है. जिसका राजनीतिक नुकसान नीतीश कुमार को उठाना पड़ेगा.

सरकारी नीतियों के आईने में मुसलमान

अल्पसंख्यक वित्त निगम

अल्पसंख्यकों के स्वरोजगार के लिए आर्थिक मदद देने वाले वित्तनिगम में आप जायें तो वहां बोरों में बंद हजारों हजार आवेदन आपको पड़े मिलेंगे. पर इस संबंध में आप निगम के अधिकारियों से बात करें तो वह आपको बताते हैं कि उनके पास एक पैसा भी नहीं है जिसे वे जरूरतमंदों को दे सकें. यह भयावह स्थिति है. राज्य सरकार का बजट 28 हजार करोड़ का है. पिछले साल यह 24 हजार करोड़ रुपये का था. पिछले सात साल में कोई भी ऐसा साल नहीं है जब राज्य सरकार ने अपने कुल बजट का पैसा कभी भी खर्च कर पाई हो. यानी उसके पास इतने पैसे हैं कि वह उसे खर्च भी नहीं कर पाती. दूसरी तरफ बिहार के 16.5 प्रतिशत आबादी के कल्याण के लिए मात्र वह 125 करोड़ रुपये का इंतजाम करती है. यह रवैया राज्य सरकार के अल्पसंख्यकों के प्रति झूटी चिंता को दर्शाता है.

हुनर और औजार का हाल

राज्य सरकार घोषणाओं पर घोषणा करती है कि मुस्लिम बच्चियों के हुनर के विकास के लिए एक लाख से ज्यादा लड़कियों को हुनरमंद करके उनके स्वरोजगार के लिए औजार यानी सिलाई मशीन तथा दीगर तकनीकी सविधायें मुहैया करेगी. पर हमरी जानकारी के अनुसार 60 हजार से ज्यादा लड़कियों के आवेदन उसके पास पड़े हैं लेकिन उन्हें कोई सहायता अभी तक नहीं मिली. कुछ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई तो कुछ मामलों में सरकार अब भी खामोश बैठी है, कोई मदद नहीं करती.

अल्फसंख्यक छात्रों के लिए स्कॉलरशिप

मुस्लिम बच्चों के शैक्षिक विकास के लिए, सचर कमेटी की रिपोर्ट को आधार बना कर लाखों अल्पसंख्यक बच्चों के लिए प्री और पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप का प्रावधान किया गया है. पर हजारों बच्चों को यह स्कालरशिप नहीं मिली. आप इसतरह की जानकारी यूट्यूब पर देख सकते हैं जिसमें ऐसे सैकड़ों छात्र हैं जिन्होंने छठी क्लास में ही आवेदन किया था पर आज वह 9वीं क्लास भी पास कर चुके हैं पर उन्हें यह स्कालरशिप नहीं मिली है.

क्या है समाधान

1.देश की सरकारों को, मीडिया को और सेक्यलरिज्म का दावा करने वीली राजनीतिक पार्टियों को सबसे पहले मुसलमानों की पहचान की धारणा को ही बदलनी होगी. मुसलमानों के पहिरावे और उनके मजहबी वजूद के बजाये उनकी वास्तविक सामाजिक स्थिति को आधार बना कर मुसलमानों की पहचान करनी होगी.
2.पसमांदा समाज का राजनीतिक प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के आधार दी जाये.
3.अल्पसंख्यकों के कल्याण, शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य, खाद्यसुरक्षा, आवास जैसे मुद्दों पर बनाई जाने वाली परियोजनाओं को ईमानदारी से लागू करने के लिए स्वतंत्र और स्वायित्त विभाग बनाया जाये, जिन प्रदेशों में ऐसे स्वतंत्र विभाग हैं उन्हें ऐसे अधिकार दिये जायें ताकि वह इन स्कीमों को लागू करने में स्वतंत्र हों.
4.सरकार अल्पसंख्यकों के कल्याण और उनसे संबंधित योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एक संवतंत्र और स्थाई कमेटी बनाये जिसमें मुसलमानों के हर तबके के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल हों. इस कमेटी के सुझावों को लागू करने के लिए सरकार बाध्य हो.
5.पसमांदा मुसलमानों को दलित समुहों की तरह आरक्षण का लाभ दिया जाये. इसके लिएये संविधान के अनुच्छेद 341 में संशोधन किया जाये और धर्म के आधार आरक्षण के इस प्रावधान को हटाया जाये. ऐसा करने से मुस्लिम और ईसाई समाज के दलितों को भी आरक्षण का लाभ मिल सकेगा, जोकि अभी तक नहीं मल रहा है.

अगर इस तरह के प्रयास, ईमानदारी से किये जायें तो मुसलमानों की समस्याओं के समाधान की दिशा में एक बड़ी पहल हो सकेगी.

इर्शादुल हक ने सिटी युनिवर्सिटी लंदन और बर्मिंघम युनिवर्सिटी इंग्लैंड से शिक्षा प्राप्त की.भारतीय जन संचार संस्थान से पत्रकारिता की पढ़ाई की.फोर्ड फाउंडेशन के अंतरराष्ट्रीय फेलो रहे. बीबीसी के लिए लंदन और बिहार से सेवायें देने के अलावा तहलका समेत अनेक मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे. अभी नौकरशाही डॉट इन के सम्पादक हैं.

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