Begam Hajrat Mahal जिन्होंने अंग्रेजी सेना के खिलाफ फूका था विद्रोह का बिगुल

बेगम हजरत महल सन 1857 के संग्राम से जुडी एक प्रसिद्ध महिला थीं , जिनका जन्म सन 1830 में उतरप्रदेश के फ़ैजाबाद में हुआ था. इनका वास्तविक नाम मुहम्मदी खानम था. इनके पिता गुलाम हुसैन फ़ैजाबाद के थे. बहुत ही कम उम्र में उन्होंने साहित्य में अपनी  प्रतिभा दिखाई थी.

बेगम हजरत महल (Begam Hajrat Mahal) सन 1857 के संग्राम से जुडी एक प्रसिद्ध महिला थीं , जिनका जन्म सन 1830 में उतरप्रदेश के फ़ैजाबाद में हुआ था. इनका वास्तविक नाम मुहम्मदी खानम था. इनके पिता गुलाम हुसैन फ़ैजाबाद के थे. बहुत ही कम उम्र में उन्होंने साहित्य में अपनी  प्रतिभा दिखाई थी.

इनका विवाह अवध के नवाब, वाजिद अलीशाह के साथ हुआ था. इनका एक बेटा था, जिनका नाम  मिर्जा बिरजिस खादिर बहादुर था. 13 फरवरी 1856 को अंग्रेजी सैनिको ने नवाब वाजिद अलीशाह को कैद कर लिया और 13 मार्च को उन्हें कलकता भेज कर अवध पर गैरकानूनी रूप से कब्ज़ा कर लिया. इस बात पर आम जनता और स्थानीय शासकों  में नाराजगी फ़ैल गई और उन्होंने बेगम हजरत महल के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया.

स्थानीय शासकों और आम जनता ने 31 मई,1857 में अवध की राजधानी  लखनऊ के छावनी क्षेत्र में इकठा होकर अपने आप को स्वतंत्र घोषित कर दिया . इन्होने मिलकर अंग्रेजी सैनिकों को सबक सिखाया और लखनऊ से उनका सफाया कर दिया. इसके पश्चात बेगम हजरत महल ने 7 जुलाई 1857 को अपने बेटे बिरजिस खदिर को नवाब घोषित कर दिया. एक राजमाता होने क नाते इन्होने 1,80,000 सैनिक जुटाए और एक बड़ी रकम खर्च कर के लखनऊ के किले का नवीकरण कराया.

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मुमु खान, महाराजा बालकृष्ण, बाबू पूर्णचंद, मुंशी गुलाम हजरत, मोहम्मद इब्राहीम खान, राजा मान सिंह, राजा देशीबख्श सिंह, राजा बेनी प्रसाद आदि जैसे लोग सदस्य थे. शर्फुछैला को मुख्यमंत्री और राजा जैल लाल सिंह को कलेक्टर नियुक्त किया गया था.

अंग्रेजों को दी चुनौती

हजरत महल ने अपने बेटे कि ओर से लगभग 10 महीने तक शासन किया और लोगो तथा स्थानीय शासकों को देश प्रेम की प्रेरणा देते हुए अंग्रेजी सेना को चुनौती दी. इन्होंने 1 नवम्बर,1858 को महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी की गई घोसना को चुनौती देते हुए , 31 दिसम्बर 1858 को एक ऐतिहासिक बयां जारी किया, लेकिन आजादी की पहली लड़ाई के केंद्र बिंदु  दिल्ली पर कब्ज़ा हो जाने के बाद अंग्रेजी सेना ने मार्च, 1859 में लखनऊ की घेराबंदी करके आक्रमण कर दिया.

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कम्पनी और बेगम की सेना में घमासान लड़ाई हुई लेकिन जब हार सामने नजर आने लगी,तो बेगम हजरत महल अपने साथी क्रांतिकारी नेताओं जैसे नाना साहेब पेशवा एवं अन्य के साथ नेपाल के जंगलो की ओर बच निकलीं. अंग्रेजी शासकों ने उन्हें बड़ी धनराशी और शानोशौकत की पेशकश की, ताकि उन्हें लखनऊ वापस लाया जा सके, लेकिन बेगम ने उसे अस्वीकार कर दिया और यह स्पस्ट कर दिया की उन्हें अवध कि आजादी के सिवाय और कुछ स्वीकार नहीं.

बेगम हजरत महल अपने आखिरी दम तक अवध की आजादी के लिए संघर्ष करती रहीं. इन्होंने 7 अप्रैल 1879 को नेपाल के काठमांडू में अपनी अंतिम सांस ली. भारत सरकार ने 1984 में इनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था.

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