Surgical Strike:Begusarai के मीडियाई फसाने से अलग क्या है जमीनी हकीकत?

इर्शादुल हक अपने कॉलम Surgical Strike में बेगूसराय की ग्राउंड रियालिटी का विश्लेषण करके बता रहे हैं कि नेशनल चैनलों के पत्रकार अपने कैमरे से कन्हैया की रसोई तक पहुंच कर जो फसाने सुना रहे हैं जबकि वहां की हकीकत देश को चौंका सकती है.

इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम

 

 Begusarai का  मीडियाई फसाना

बेगूसराय के हाइवे पर सरपट भागती नेशनल न्यूज चैनलों की गाड़ियां बस एक ही गांव बिहट की तरफ मुड़ने के लिए एक दूसरे से होड़ लगा रही हैं.हाथों में माइक और कांधों पर कैमरे लिए पत्रकारों की टोली बिहट में कन्हैया कुमार के घर का पता पूछती आगे बढ़ रही है.

अब तो हाल यह हो चुका है कि पता पूछने वाले पत्रकारों के मुंह खुले उस से पहले ही गांव वाले अपनी उंगलियों से कन्हैया के घर की तरफ जाने वाले रास्त की ओर इशारा कर दे रहे हैं.उधर कन्हैया भी पत्रकारों द्वारा रटाये गये डॉयलग और उन दृश्यों को जहननशीं कर चुके हैं कि उन्हें अपने सीलन भरे खपरैल पुस्तैनी घर के मुख्यद्वार से प्रवेश देते हुए उस नये रसोई घर तक ले जाना है जिसे उन्होंने हाल ही में बनवा दिया है.

 

साथ ही वह यह बताना भी नहीं भूलते कि उनकी मां पहले मिट्टी के किस चूल्हे पर खाना बनाया करती थीं. फिर आंगनबाड़ी में कार्यरत और चंद हजार रुपये कमाने वाली कन्हैया की मां का इंटर्व्यू और फिर उस कमरे को दिखाने की बारी आती है जिसमें कन्हैया अपनी दादी के साथ बचपन में रहा करते थे. और फिर माइक व कैमरा लिये पत्रकार उस चुनावी अभियान का हिस्सा बन जाता है जहां कन्हैया के कार्यक्रम तय हैं.

 

अदाकारी भरे इन दृश्यों को टीवी दर्शक देख कर कन्हैया के आभामंडल में गुम हो जाते हैं. ज्यादा से ज्यादा कुछ पत्रकार उन चंद उत्साही मुसलमानों के गावों में जाते हैं जहां यह दिखाने की कोशिश होती है कि किस तरह मुस्लिम युवा कन्हैया के लिए दीवाने हुए बैठे हैं.

इन दृश्यों को देख कर देश के बाकी हिस्सों के टीवी दर्शक यह राय बनाते जा रहे हैं कि कन्हैया अजेय हो चुके हैं.

 

जमीनी हकीकत

पर जरा ठहरिये. जमीन पर उतरिये. बिहट से निकलिए क्योंकि बेगूसराय लोकसभा की जमीनी हकीकत मात्र कन्हैया की रसोई और खपरैल घर के किवांडों तक सीमित नहीं है. बेगूसराय की हकीकत जानने के लिए आपको मीडियाई फसाने और उस फसाने के किरदार से आगे निकलना होगा. क्योंकि ‘जो बिकता है वही दिखाया जाता है’ के मीडियाई फलसफे की अपनी मजबूरियां हैं.यहां वही दिखाया जाता है जो आसानी से बिक सकता है. कन्हैया बतौर खबर एक डिमांडिंग शय बन चुके हैं. इसलिए राजद के उम्मीदवार तन्वीर हसन ‘दिखने और बिकने’ के फलसफे के खांचे में फिट नहीं बैठते. भाजपा के जहरीले बोल बोलने वाले गिरिराज की भौंचक हो चुकी आंखें समझ नहीं पा रहीं कि वह क्या बोलें और कैसे मीडिया को अपनी तरफ आकर्षित करें. इसलिए मीडिया अपनी टीआरपी के लिए कन्हैया की तरफ औंधे मुंह भाग रहा है. मीडियाई फसाना बन चुके कन्हैया से आगे की हकीकत भी जानने की कोशिश हो, इस पर टीवी वाले भला क्यों ध्यान दें?

आंकड़ों का हाल

बेगूसराय एक ऐसा लोकसभा क्षेत्र है जो बिहार के अन्य 39 लोकसभा क्षेत्रों से भी ज्यादा जातीय चेतना का शिकार है. तभी तो 1952 से ले कर अब तक के हो चुके 16 लोकसभा चुनावों में पंद्रह बार भूमिहार प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है. यह जातीय चेतना इतनी गहरी रही है कि भले पार्टी चाहे कोई हो- दक्षिणपंथी, वामपंथी या फिर सेक्युलर समाजवादी, पर जीतता भूमिहार ही है. 2009 एक अपवाद था जब डॉ. मोनाजिर हसन की जीत हुई थी. यह जीत दर असल नीतीश कुमार के उठान की प्राकाष्ठा का दौर था. मोनाजिर की जीत उसी का नतीजा माना जाता है. चूंकि इस क्षेत्र में भूमिहार-ब्रह्मणों की सर्वाधिक आबादी है और इस समाज का संसाधनों पर वर्चस्व है इसलिए बाकी समुदायों के वोट भी उसी प्रभाव का शिकार होते रहे हैं.

कुछ तथ्य, कुछ समीकरण

 

लेकिन इस बार जो सबसे खास बात है वह यह है कि भूमिहार-ब्रहम्णों को कन्हैया और गिरिराज ने दो वर्गों में बांट डाला है. एक लिबरल भूमिहारों का वर्ग है जो कन्हैया के साथ खड़ा है जबकि दूसरा संघी विचारो से प्रेरित है जो हर हाल में गिरिराज के साथ खड़ा है. भूमिहारों के बाद वोटरों की संख्या के लिहाज से दो प्रबल और सशक्त समाज मुसलमानों और यादवों का है. ये दोनों वर्ग पारम्परिक तौर पर राजद के साथ है. बल्कि हकीकत यह है कि लालू प्रसाद की जमानत नहीं हो पाने से नाराज यादव समाज आक्रामक तौर पर राजद से जुड़ा हुआ है. दूसरी तरफ मुसलमानों का एक धड़ा यकीनन कन्हैया के साथ खड़ा हो चुका है पर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि मुसलमानों का दूसरा बड़ा हिस्सा लालू प्रसाद और राजद के सेक्युलर क्रेंडेंशियल का कायल है. इस वर्ग को यह पता है कि कन्हैया की सीपीआई अकेले दम पर बिहार में सत्ता तक पहुंचने की सोच भी नहीं सकती इसलिए राजद ही बिहार के मुसलमानों के लिए जरूरी है.

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रही बात अत्यंत पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों की तो यहां नहीं भूलना चाहिए कि मूलनिवासी बहुजन आंदोलन के प्रशिक्षित दलितों में कन्हैया के प्रति विरोध के स्वर काफी मुखर हैं. पढ़ा-लिखा दलित समुदाय का एक वर्ग कन्हैया के ‘लाल सलाम’ और ‘नील सलाम’ की मिक्सिंग को एक छलावा मानता है. जबकि अत्यंत पिछड़े वर्ग की जातियों पर राजद, भाजपा और एक सीमित हद तक सीपीआई की भी पकड़ है.

 

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ऐसे में 2014 के चुनाव परिणमों पर नजर डालने की जरूरत है. तब भाजपा के भोला सिंह को चार लाख 28 हजार वोट पड़े थे. राजद के तन्वीर हसन दूसरे नम्बर थे और उन्हें पौने चार लाख के करीब वोट मिले थे.दूसरी तरफ तब सीपीआई के उम्मीदवार राजेंद्र प्रसाद सिंह एक लाख 90 हजार वोट ले कर तीसरे स्थान पर थे. यह दृश्य तब था जब उस समय मोदी की लहर थी.लेकिन इस बार बिहार में मोदी के खिलाफ उपजी नाराजगी का लाभ महागठबंधन को मिल रहा है.

 

 

ऐसे में क्या हो सकती है सूरत

मीडियाई तमाशा बेगूसराय में कन्हैया से शुरू हो कर ज्यादा से ज्यादा गिरिराज सिंह तक पहुंचता है. तन्वीर हसन का उल्लेख महज इस बात पर आ कर खानापूर्ति के रूप में कर लिया जा रहा है कि वह भी मैदान में हैं. लेकिन इस फसाने से अलग भी सूरतें उभर सकती हैं जो पूरे देश को अचरज में डाल दें तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.

 

एक अलग सूरत यह हो सकती है कि बेगूसराय के भूमिहार गिरिराज व कन्हैया में बिखर जायें जबकि इसका लाभ तनवीर हसन उठा लें. या फिर एक सूरत यह हो सकती है कि यह लड़ाई गठबंधन बनाम एनडीए के रूप में सामने आ जाये. इन दोनों सूरतों में, संभव है कि कन्हैया हों या गिरिराज उनके सामने जो टक्कर होगी वहां दूसरा पक्ष तन्वीर हसन का ही हो सकता है.

 

कुछ भी हो मीडियाई तमाशे ने बेगूसराय की लड़ाई को दिलचस्प बना डाला है. आसार इसके भी हैं कि वहां का चुनाव परिणाम वह नहीं हो जो मीडिया फसाने में सुनाया जा रहा है.

By Editor