CAA विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा में जिन 22 लोगों के बारे में कर्नाटक हाईकोर्ट ने पुलिस द्वारा सुबूत गढ़ने और अपराध के प्रमाण न जुटाने की आलोचना करते हुए जमानत दी थी, उनकी जमानत पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी है.

कर्नाटक के मेंगलुरु में 19 दिसंबर 2019 को सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान हिंसा और पुलिस पर हमले के आरोप में मैंगलोर पुलिस द्वारा आरोपी बनाए गए थे.

लाइव लॉ के मुताबिक सीजेआई एसए बोबडे, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की तीन सदस्यीय पीठ ने राज्य के अधिकारियों द्वारा दाखिल याचिका में कथित प्रदर्शनकारियों को नोटिस भी जारी किया.आदेश में कहा, ‘नोटिसजारी किया जाता है कि आरोपियों के हिरासत में रहने के कारण हाईकोर्ट द्वारा पारित निर्णय पर रोक लगाया जाता है.’

कर्नाटक पुलिस की हुई थी खिचाई

इसके अलावा रिकॉर्ड पर लगाए गए सबूतों पर टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने कहा था कि जांच एजेंसी द्वारा एकत्र की गई सामग्री में कोई ठोस सबूत नहीं है कि घटनास्थल पर कोई भी याचिकाकर्ता उपस्थित था.वहीं सारे आरोप 1500-2000 की मुस्लिम भीड़ के खिलाफ लगाए गए हैं और कहा गया है कि वे पत्थरों, सोडा की बोतलों और कांच के टुकड़ों जैसे हथियारों से लैस थे. एसपीपी द्वारा प्रस्तुत की गई तस्वीरों से पता चलता है कि भीड़ में एक सदस्य के पास एक बोतल को छोड़कर कोई हथियारों से लैस नहीं था.इनमें से किसी भी तस्वीर में पुलिस स्टेशन या पुलिसकर्मी नहीं हैं. अदालत ने टिप्पणी करते हुए यह भी कहा था कि याचिकाकर्ताओं द्वारा दी गई तस्वीरों से पता चलता है कि पुलिसकर्मी खुद भीड़ पर पथराव कर रहे थे.अदालत ने इस तथ्य पर भी विचार किया था कि प्रदर्शनकारियों के खिलाफ पुलिस द्वारा 31 एफआईआर दर्ज की गई थी. वहीं घायलों के परिवार और पुलिस गोलीबारी में मरने वाले लोगों की शिकायतों पर कोई मामला दर्ज नहीं किया गया था.

आदेश में ये भी कहा गया था कि याचिकाकर्ताओं को कथित अपराधों से जोड़ने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है. जांच में चूक और पक्षपात दिखता है. उक्त परिस्थितियों में याचिकाकर्ताओं के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उनकी जमानत को स्वीकार किया जाता है.

आदेश में ये भी कहा गया था कि याचिकाकर्ताओं को कथित अपराधों से जोड़ने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है. जांच में चूक और पक्षपात दिखता है. उक्त परिस्थितियों में याचिकाकर्ताओं के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उनकी जमानत को स्वीकार किया जाता है.

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कर्नाटक हाईकोर्ट ने 17 फरवरी के अपने आदेश में कहा था कि रिकॉर्ड बताते हैं कि जानबूझकर साक्ष्य तैयार करने के लिए और सबूतों को गढ़ कर याचिकाकर्ताओं को स्वतंत्रता से वंचित करने का प्रयास किया गया है. यह विवादित नहीं है कि याचिकाकर्ताओं में से किसी का भी कोई आपराधिक इतिहास नहीं है. याचिकाकर्ताओं के खिलाफ लगाए गए आरोप मृत्यु या आजीवन कारावास के साथ दंडनीय नहीं है.आदेश में ये भी कहा गया था कि याचिकाकर्ताओं को कथित अपराधों से जोड़ने के लिए कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है. जांच में चूक और पक्षपात दिखता है. उक्त परिस्थितियों में याचिकाकर्ताओं के अधिकारों और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि उनकी जमानत को स्वीकार किया जाता है.

कर्नाटक राज्य ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को चुनौती दी है जिसमें इसे ‘दुर्भावनापूर्ण’ जांच कहा.सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक सरकार की तरफ से पेश हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के इन कार्यकर्ताओं ने पुलिस पर भी हमला किया था. पुलिस ने आरोप लगाया था कि 19 दिसंबर को मोहम्मद आशिक सहित 20 लोगों ने सीएए के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान मंगलौर के थाने में आग लगा दी थी.

By Editor