JGU : राष्ट्रीय अध्यक्ष के खिलाफ महासचिव ने खोल दिया मोर्चा

31 जुलाई को ललन सिंह JDU के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने। सिर्फ 41 दिन बाद उनकी कार्यशैली से नाराज प्रदेश महासचिव परमहंस कुमार ने खोल दिया मोर्चा।

परमहंस कुमार, प्रदेश महासिचव, जदयू

जदयू में पिछले कई दिनों से गुटबाजी की खबरें आ रही थीं। कहा जा रहा था कि राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह के खिलाफ हैं। कल ही पार्टी ने आरसीपी सिंह समर्थक माने जानेवाले तीन महासचिवों अनिल कुमार, चंदन सिंह और परमहंस कुमार को मुख्यालय प्रभारी से हटाकर जिलों का प्रभारी बना दिया। आज परमहंस कुमार ने बिना नाम लिये मोर्चा खोल दिया। उनका इशारा राष्ट्रीय अध्यक्ष की तरफ ही है। उन्होंने नए राष्ट्रीय अध्यक्ष के पदभार ग्रहण करने के बाद लगातार कहे जा रहे ‘पार्टी में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं’ को ही मुद्दा बनाया है। पढ़िए, उनका खुला पत्र-

जदयू में अनुशासनहीनता की बात मीडिया में लाना ठीक नहीं

इधर कुछ दिनों से अखबारों, टीवी और खासकर सोशल मीडिया पर एक चेतावनी अक्सर नजर आ रही है कि जदयू में अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जाएगी, संभल जाएं आदि।

मेरा मानना है कि जदयू में ऐसी न तो कोई बात है और ना ही कोई घटनाक्रम है, जिसे अनुशासनहीनता का नाम देकर इतना बड़ा मुद्दा बनाया जा रहा है। अगर अनुशासनहीनता के इक्के-दुक्के मामले हैं भी तो इसे तिल का ताड़ नहीं बनाना चाहिए। साथ ही मीडिया और सोशल मीडिया पर तो बिल्कुल ही सार्वजनिक नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से बिहार की जनता में पार्टी के बारे में नकारात्मक मैसेज जा रहा है। बार-बार इस बात को दोहराते रहने से ऐसा लगता है कि पार्टी में अनुशासन तोड़ने वालों की लंबी कतार है और यह पार्टी का ज्वलंत मुद्दा है। पार्टी में कलह है, गुटबाजी है आदि आदि, जबकि ऐसी कोई बात है ही नहीं।

हमारी पार्टी की बुनियाद ही ईमानदारी और अनुशासन है और हमारे नेता श्री नीतीश कुमार इसी के प्रतीक हैं। इस पार्टी के कार्यकर्ता समर्पित, निष्ठावान और अनुशासित हैं और यही बात जदयू को अन्य पार्टियों से अलग पहचान देती है। साथ ही नेता का सिर ऊंचा करता है। यह बात दिन के उजाले की तरह स्पष्ट है।

यह भी खास बात है कि 16 साल सत्ता में रहने के बाद भी जदयू कार्यकर्ता में न तो कोई घमंड है,  ना उद्दंडता है ना कोई सनक है और न ही उच्छृंखलता है। अभी भी पार्टी में सादगी और व्यवहारकुशलता का पक्ष बहुत मजबूत है। इतने समय सत्ता में रहने के बाद तो अन्य पार्टियों के लोग बउरा जाते हैं, नंगा नाच करने लगते हैं। यही है जदयू में अनुशासन का जीता जागता सच और दुनिया की कोई भी ताकत इस सच को झुठला नहीं सकती। छोटी-मोटी गलतियां कहां नहीं होती है। सच्चाई है कि अनुशासनहीनता हमारी पार्टी में कोई मुद्दा नहीं है। इसलिए ऐसे नकारात्मक शब्द का हमेशा प्रयोग करने से हमें बचना चाहिए।

किसी गलती को न तो बर्दाश्त करें ना ही कार्रवाई करने से चूकें, लेकिन इस सिलसिले में पहला पायदान समझाना-बुझाना और गलती का एहसास कराना होना चाहिए। इसके बाद कार्रवाई होती है। लेकिन यह सब पार्टी संगठन के अंदर की बात होती है। सार्वजनिक मंच और मीडिया की नहीं। मीडिया में ऐसी बात तब ले जाई जाती है. जब चारों तरफ, ऊपर से नीचे तक व्यापक पैमाने पर पार्टी में अराजकता-अनुशासनहीनता का माहौल बन जाए। तब मीडिया का सहारा लेकर अपने संदेश को हर कार्यकर्ता तक पहुंचाते हैं, जबकि जदयू में ऐसी कोई बात नहीं है। यह कार्यशैली का सवाल है और इस पर अवश्य विचार करना चाहिए। नहीं तो कहीं जाने-अनजाने रक्षा में हत्या वाली कहावत चरितार्थ ना हो जाए।

अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं जैसे शब्द का बार-बार मीडिया में प्रयोग करने से न सिर्फ पार्टी की नकारात्मक छवि बन रही है, बल्कि कार्यकर्ताओं में किसी अप्रिय घटना होने का अंदेशा फैल रहा है और उनका मनोबल भी टूट रहा है। हमें कोई भी ऐसी बात करने और कहने से बचना चाहिए जिससे कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटे, बल्कि उनके मनोबल को ऊंचा उठाने वाली बात होनी चाहिए।

अगर कहीं कमजोरी लगती है तो उसे गंभीरता से लेते हुए तब तक प्रयास हो जब तक ठीक ना हो जाए। कार्यकर्ताओं के साथ बैठिए, उनकी बात सुनिए, उनकी भावनाओं और परिस्थिति को समझिए, तभी पार्टी और मजबूत होगी। सिर्फ निर्देश और कार्यवाही से न तो पार्टी मजबूत होगी ना ही कार्यकर्ता उत्साहित होंगे। मेरी समझ से अनुशासन और संगठन निर्माण की कुशल कार्यशैली इसी को कहते हैं।

दूसरी बात सोशल मीडिया और मीडिया में संगठन के अंदरूनी मसले को खूब चलाया जा रहा है, पूछा जा रहा है की 71 सीट से 43 सीट पर आ गए, तो पार्टी मजबूत कैसे हो गई?  पहली बात यह कि यह सवाल सार्वजनिक तौर पर मीडिया के माध्यम से किससे पूछा जा रहा है, जबकि इस सवाल का हल हमें संगठन के अंदर ढूंढना है। यह खबर भी सार्वजनिक तौर पर नकारात्मक और पार्टी के अंदरूनी विवाद की ओर इशारा करता है जो कि नहीं होनी चाहिए। यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, जिसे सार्वजनिक किया जा रहा है।

लेकिन बात उठ गई है तो मैं भी कुछ अपना विचार रखना चाहूंगा। मेरा मानना है कि किसी भी घटनाक्रम को पूरे परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करना होगा तभी हम सही निष्कर्ष पर पहुंच पाएंगे। सब जानते हैं कि कार्यकर्ताओं का समर्पण और सक्रियता पार्टी संगठन को मजबूत तथा निष्क्रियता पार्टी को कमजोर बनाती है। तब क्या हम यह मान बैठे हैं कि 2020 में पार्टी को सिर्फ 43 सीट मिलने का कारण पार्टी कार्यकर्ताओं की निष्क्रियता या मैनेजमेंट जिम्मेवार है या फिर और भी महत्वपूर्ण कारण हैं, जिसने हमारे प्रदर्शन को प्रभावित किया है।

मेरा अनुभव है कि किसी भी पार्टी की जीत-हार सिर्फ कार्यकर्ताओं की सक्रियता पर नहीं, बल्कि राजनीतिक परिस्थिति और सामाजिक समीकरण तथा गठबंधन और गठबंधन के सहयोगियों के गठबंधन धर्म के पालन पर भी निर्भर करता है।

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एक क्षण के लिए मान भी लें कि हम कार्यकर्ताओं ने ठीक से काम नहीं किया, इसलिए पार्टी को कम सीटें मिलीं, तब सवाल यह है कि हमारे नेता ने तो 16 सालों से दिन-रात मेहनत करके और हर क्षेत्र में विकास करने का ऐतिहासिक वह अविस्मरणीय काम किया है, फिर भी जनता हमारे नेता के काम पर बहुमत क्यों नहीं दे रही है?

इस सवाल का उत्तर ढूंढना होगा और हकीकत से रूबरू होना होगा।

अंत में पार्टी की मजबूती या कमजोरी के मामले पर सरलीकरण से बचना चाहिए।

धन्यवाद

परमहंस कुमार, प्रदेश महासचिव, जदयू

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